Thursday, 6 September 2018

ह्दय में प्रभुभक्ति


एक बार रहीम के मन में जिज्ञासा हुई कि कोई व्यक्ति गृहस्थी के जंजाल में फंसे रहकर भी भगवद्भक्ति कैसे कर सकता है ?

गृहस्थी और प्रभु भक्ति तो परस्पर विपरीत हैं।एक बिलकुल लौकिक औऱ दूसरी अलौकिक।दोनों का एक साथ निबाह कैसे संभव है ?

उन्होंने तुलसीदास को, जोउस समय चित्रकूटमें थे,यह दोहा लिखा-     
              चलन चहत संसार की मिलन चहत करतार।                        दो घोड़े की सवारी कैसे निभे सवार।।।   

          सांसारिक चलन में चलकर भी उस करतार से मिलने का प्रयास करना दो घोड़ों की सवारी नही है?         

                       हरकारा रहीम का यह संदेश लेकर आगरा से चला और चित्रकूट पहुँचकर गोस्वामी जी के.चरणों मे प्रणाम कर उन्हें रहीम की प्रश्न पाती सौंपी

तुलसीदास ने पहले तो अपने परममित्र के पत्र को सम्मान पूर्वक सिर से लगाया औऱ उसका उत्तर लिखा-       

            चलत -चलत संसार की हरि पर राखो टेक।।                        तुलसी यूं निभ जाएंगे दो घोड़े रथ एक।।

     अर्थात हमारे हाथ औऱ मस्तिष्क संसार के कर्म करें और ह्दय प्रभुभक्ति में लीन हो तो गृहस्थ रहकर भी हरिभक्ति संभव है।

जय जय श्री राधे

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