Wednesday, 5 September 2018

दायित्वों से मुक्त

एक गिद्ध था। उसके माता- पिता अंधे थे।सारा परिवार पर्वत की एक कोटर में रहता था।गिद्ध रोज सूर्योदय पर निकल जाता अपना पेट भरता और अपने अंधे बूढ़े माता-पिता के लिए भी खोज- खोज कर मांस के टुकड़े लाता था ।बहुत दिनों तक यह क्रम चलता रहा किंतु सब दिन जात न एक समान।

एक दिन नदी के किनारे बहेलिये ने जाल डाला और गिद्ध आकर उसमें फंस गया।वह तड़फड़ाया, मगर उसकी सब कोशिशें बेकार रही। गिद्ध को अपने जाल में फंस जाने का संताप इतना नहीं था जितना उसे अपने माता-पिता के भूखों मर जाने का भय था। वह जोर जोर से विलाप करने लगा।बहेलिए का ध्यान उधर गया।

उसने गिद्ध के पास जाकर पूछा कि वह क्यों परेशान है? दूसरे गिद्ध तो रोते  नहीं हैं, वह अकेला ही क्यों जमीन आसमान एक कर रहा है? गिद्ध ने अपनी व्यथा कही। बहेलिए ने ताना मारा-"  रे गिद्ध! तेरी बात मेरी समझ में नहीं आई है। गिद्धों की दृष्टि तो इतनी तेज होती है कि सौ योजन आसमान से भी मुर्दा चीजों को देख लेती हैं, लेकिन तू तो निकट बिछे जाल को भी नहीं देख पाया है,ऐसा गजब कैसे हो गया?"

इस पर गिद्ध बोला- "बहेलिये! बुद्धि की लगाम जब तक अपने हाथ में रहती है, तब तक मनुष्य प्रपंच में नहीं फंसता किन्तु जब बुद्धि पर लोभ का अधिकार हो जाता है, तो थोड़ा रास्ता भूल जाता है और अपने साथ सवार को भी ले डुबोता है।जीवन भर मांस पिंड के पीछे ही भागते-भागते मेरी नजर में मांस पिंड ही सर्वस्व बन गए हैं। उनके सिवाय मुझे और कुछ दिखलाई ही नहीं पड़ता है। दृष्टि जब इतनी संकरी हो जाती है, तो सही रास्ता भी लुप्त हो जाता है।तेरे जाल को नहीं देख सकने का कारण यही है। लेकिन अब ज्ञान का उदय होने से क्या होगा?किए का फल भोगना ही पड़ेगा।"

बहेलिये को गिद्ध की बात भायी। उसने प्रसन्न होकर कहा-"गिद्धराज! जाओ, मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ। अपने अंधे माता- पिता की सेवा करो । तुमने आज मेरी भी आंखें खोल दी।"
ठीक यही भूल मनुष्य अपने जीवन में करता है ।जो पहले ही संभल जाता है,वह जीते जी अपने दायित्वों से मुक्त हो जाता है।


 प्रज्ञा पुराण कथा, खंड /4
 पं०श्रीराम शर्मा 'आचार्य'

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