Sunday, 30 September 2018

श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ बनकर, जो खिलाना है अभी खिला दे


आँखो में आंसू ला दिये इस कहानी ने .......

"अरे! भाई बुढापे का कोई ईलाज नहीं होता . अस्सी पार चुके हैं . अब बस सेवा कीजिये ." डाक्टर पिता जी को देखते हुए बोला।

"डाक्टर साहब ! कोई तो तरीका होगा . साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है ."

"शंकर बाबू ! मैं अपनी तरफ से दुआ ही कर सकता हूँ . बस आप इन्हें खुश रखिये . इस से बेहतर और कोई दवा नहीं है और इन्हें लिक्विड पिलाते रहिये जो इन्हें पसंद है ." डाक्टर अपना बैग सम्हालते हुए मुस्कुराया और बाहर निकल गया .

शंकर पिता को लेकर बहुत चिंतित था . उसे लगता ही नहीं था कि पिता के बिना भी कोई जीवन हो सकता है . माँ के जाने के बाद अब एकमात्र आशीर्वाद उन्ही का बचा था . उसे अपने बचपन और जवानी के सारे दिन याद आ रहे थे . कैसे पिता हर रोज कुछ न कुछ लेकर ही घर घुसते थे . बाहर हलकी-हलकी बारिश हो रही थी . ऐसा लगता था जैसे आसमान भी रो रहा हो . शंकर ने खुद को किसी तरह समेटा और पत्नी से बोला -

"सुशीला ! आज सबके लिए मूंग दाल के पकौड़े , हरी चटनी बनाओ . मैं बाहर से जलेबी लेकर आता हूँ ."

पत्नी ने दाल पहले ही भिगो रखी थी . वह भी अपने काम में लग गई . कुछ ही देर में रसोई से खुशबू आने लगी पकौड़ों की . शंकर भी जलेबियाँ ले आया था . वह जलेबी रसोई में रख पिता के पास बैठ गया . उनका हाथ अपने हाथ में लिया और उन्हें निहारते हुए बोला -

"बाबा ! आज आपकी पसंद की चीज लाया हूँ . थोड़ी जलेबी खायेंगे ."
पिता ने आँखे झपकाईं और हल्का सा मुस्कुरा दिए . वह अस्फुट आवाज में बोले -
"पकौड़े बन रहे हैं क्या ?"

"हाँ, बाबा ! आपकी पसंद की हर चीज अब मेरी भी पसंद है . अरे! सुषमा जरा पकौड़े और जलेबी तो लाओ।" शंकर ने आवाज लगाईं।
"लीजिये बाबू जी एक और" उसने पकौड़ा हाथ में देते हुए कहा।

"बस...अब पूरा हो गया। पेट भर गया, जरा सी जलेबी दे" पिता बोले।

शंकर ने जलेबी का एक टुकड़ा हाथ में लेकर मुँह में डाल दिया। पिता उसे प्यार से देखते रहे।

"शंकर ! सदा खुश रहो बेटा. मेरा दाना पानी अब पूरा हुआ", पिता बोले।

"बाबा ! आपको तो सेंचुरी लगानी है। आप मेरे तेंदुलकर हो," आँखों में आंसू बहने लगे थे।

वह मुस्कुराए और बोले- "तेरी माँ पेवेलियन में इंतज़ार कर रही है, अगला मैच खेलना है। तेरा पोता बनकर आऊंगा, तब खूब  खाऊंगा बेटा।"

पिता उसे देखते रहे। शंकर ने प्लेट उठाकर एक तरफ रख दी . मगर पिता उसे लगातार देखे जा रहे थे। आँख भी नहीं झपक रही थी। शंकर समझ गया कि यात्रा पूर्ण हुई।

तभी उसे ख्याल आया, पिता कहा करते थे -
"श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ बनकर, जो खिलाना है अभी खिला दे।"

माँ बाप का सम्मान करें और उन्हें जीते जी खुश रखें।

Saturday, 29 September 2018

व्यवहारिक जीवन का एक सुंदर समन्वय! A balanced science of living!


सूंड एक हाथी का असाधारण अंग होता है। अतः हमारे लिए बहुत प्रकार से शिक्षाप्रद है। चालीस हजार से भी अधिक पेशियों से बनी यह अदभुत सूंड एक और तो मिट्टी में पड़ा घास का तिनका या सुई, दूसरी और लकड़ी के भारी- भारी लट्ठे तक उठा सकती हैं।
यह क्या दर्शाता है? व्यवहारिक जीवन का एक सुंदर समन्वय! A balanced science of living! हमारे जीवन में कभी हल्के- फुल्के, तो कभी समस्याओं से युक्त भारी क्षण आते हैं। श्री गणपति की सूंड सिखाती है- हर स्थिति को सहजता से शिरोधार्य करो। यही नहीं, इस संसार की छोटी से लेकर बड़ी तक, क्षुद्रतम से विराटतम तक- हर रचना या पहलू से नाता रखो। हेय समझकर किसी का तिरस्कार न करो, न जाने कब किसकी आवश्यकता पड जाए।यह व्यवसाय- सम्बन्धी सफलता का मंत्र है- A mantra of success for work management!
हाथी की सूंड एक और विशेष गुण होता है। वह अपनी इस लचीली सूंड को दाएँ- बाएँ लहरा कर दूर- दूर तक निरीक्षण कर लेता है। कैसे? मात्र सूँघकर!वह हवा में व्याप्त गंध को मात्र सूँघकर  अपने दूर स्थित मित्रो- शत्रुओ, भोजन या जल- स्रोतों का पता लगा लेता है। गंध ही क्यों, हाथी की सूंड में इतनी कमाल की ग्रहण- शक्ति होती है कि वह सूक्ष्मतम तरंगो तक को भांप लेती है। ऐसी तरंगे, जिन्हें पकडना हमारी और आपकी क्षमताओ से बहुत परे है। इस सत्य की खोजकर्ता Katy Payne अपनी पुस्तक -'Silent Thunder' में लिखती है कि हाथी अपने दूरवर्ती मित्र हाथी से बातचीत करने या सम्पर्क साधने के लिए बड़ी विचित्र क्रिया करते है। वे कम वृति (low frequency) वाली इंफ्रा- ध्वनि(infrasound), जिसे 'a sub-sonic rumbling '(एक सूक्ष्म कराहट) भी कहते है, पैदा करते है। यह ध्वनि तरंग रुप में हवा से नहीं, धरती के माध्यम से यात्रा करती है। हाथी अपनी सूंड धरती पर टिका कर इन सूक्ष्म तरंगो को पकडता और डी-कोड करता (समझता) है। इस तरह से वह अपने दूरवर्ती गज- झुंड या साथी से सम्पर्क में रहता है।
गज- सूंड का यह विशेष गुण श्री गणपति देव की मनोशक्तियो की और संकेत करता है। वैदिक मनोविज्ञान के अनुसार हमारे मन में अनेक सुप्त क्षमताएँ है। जैसे कि विचार संप्रेषण, अतीन्द्रिय श्रवण, दूरसंभाषण इत्यादि। आधुनिक मनोविज्ञान ने इन्हें  Telepathy, Clairaudience, Thought-transference  आदि शीर्षक देकर स्वीकारा है। इन मनोशक्तियो के माध्यम से एक व्यक्ति दूर बैठे व्यक्ति या समूह के साथ मनोभावो का आदान- प्रदान कर सकता है। सूक्ष्म विचार या भाव- तरंगो को प्रेषित और ग्रहण करने की सामर्थ्य रखता है। श्री गणपति में ये मन:शक्तियाँ पूरी तरह जागृत है। उनकी सूंड इसी बात का परिचय देती है।
आज का मानव भी आध्यात्मिक साधना- अभ्यास, वैदिक तप- पद्धतियों द्वारा इन्हें जागृत कर सकता है। परन्तु इनसे बढकर यह विशेष गुण हमें एक सामाजिक स्तर की प्रेरणा देता है। वास्तव में आज का मानव संवेदनहीन हो चुका है, इसलिए उसकी बुद्धि जड होती जा रही है और वह इन सूक्ष्म शक्तियों व अनुभूतियो से कोसो दूर हो रहा है। परन्तु आवश्यकता है,  मानव इकाइयों के बीच भी ऐसी ही हार्दिक संवेदना हो कि वे परस्पर एक- दूसरे की भाव- तरंगो को समझ पाएँ। बंधुत्व का ऐसा जोड बंधा हो कि एक ह्रदय दूसरे ह्रदय की सूक्ष्म बोली को सुन पाए। यदि श्री गणपति की सूंड से हम यह गुण ग्रहण कर ले, तो 'विश्व बंधुत्व'(Universal Brotherhood)  का आदर्श साकार होने में देर नहीं।
एक और विशेषता! श्री गजानन की यह सूंड सूंघती भी है तथा जल भी पीती है। अर्थात यह ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मेन्द्रिय भी है। अतः प्रतीक रुप में, यह ज्ञान और कर्म का समन्वय है। हमें विवेकजनित शिक्षा देती है कि हम ज्ञान से अभिभूत होकर कर्म करे-
'योगस्थ: कुरु कर्माणि '।
जीवन में ज्ञान और कर्म, दोनो का समन्वय करो। अपने व्यक्तित्व को दोनो के आधार पर संचालित करो।

मृत्यु कैसे होती है ?

मृत्यु कैसे होती है ?

मृत्यु का जब आक्रमण आरम्भ होता है तब पैरों की तरफ से प्राण ऊपर को खीचने लगते हैं, उस समय बड़ा कष्ट होता है। हृदय (दिल) की धड़कन बढ़ जाती है, चक्कर आने लगते हैं, साँस रुक--रुक कर चलती है। दम घुटने लगता है और प्राणी चिल्लाता  पुकारता है। यह क्रम कुछ देर तक चलता रहता है। और प्राण खींचकर झटका दे--देकर कमर तक का भाग त्याग देते हैं। वह भाग शून्य हो जाता है, निर्जीव मुर्दा जैसा हो जाता है जैसे लकवा मार गया हो उसमें कोई क्रिया (हरकत) नहीं होती तब लोग कहने लगते हैं कि इधर की नब्ज छूट गयी। इसी प्रकार प्राण खींचकर कण्ठ में रुक जाता है और कण्ठ से नीचे का भाग निर्जीव हो जाता है, न वो हिल सकता है, और न कुछ हरकत कर सकता है, साथ ही वाणी भी निर्जीव होकर बंद हो जाती है। और दम बुरी तरह घुटता है ! आँखों से आँसू निकलने लगते हैं पर वो बता नहीं सकता कि उसे कितना कष्ट है। पास के लोग सगे--सम्बन्धी पुत्र--पुत्री सब खड़े--खड़े देखते हैं और खुद भी रोते हैं पर समझ नहीं पाते कि क्या कष्ट है, यह दशा बहुत देर तक रहती है।

फिर भयानक शक्ल यमदूत की उसे दिखाई देती है। उनकी भयानक आकृति देखकर आँखे फिरने लगती हैं। वो बोलते हैं कि मकान खाली करो उनकी भयानक आवाज सुनकर सिर फटने लगता है मानो हजारों गोला बारुदों की आवाज आ रही हो  यह दशा बड़ी भयानक होती है और वही जान सकता है जिसपर बीतती है। तब यमदूत एक फन्दा फेंकते हैं और आत्मा को पकड़कर जोर का झटका देते हैं। उस समय आँखे उलट-- पुलट हो जाती हैं और उस कष्ट का वर्णन नहीं हो सकता। जैसा कि रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में श्रीमद्गोस्वामीतुलसीदासजी ने लिखा है---

जनमत मरत दुसह दुख होई।

अर्थात् जन्म और मृत्यु के समय अपार कष्ट होता है। ग्रामीण क्षेत्र के लोग कहते हैं मरते समय 100 बिच्छू एक साथ काट रहे हों उतना कष्ट मरनेवाले को होता है।

यमदूत उसके लिंग शरीर को शरीर से निकालकर प्राणों के साथ घसीटते हुए ले जाते हैं और धर्मराज की कचहरी में पेश कर देते हैं जहाँ कर्मानुसार दण्ड (सजा) सुनाया जाता है। यह है मृत्यु का दृश्य।

महात्मा इन दृश्यों को देखते रहते हैं और भूले जीवों को चेताते रहते हैं कि सुधर जाओ होश में आ जाओ वरन् एक दिन सबकी यही दशा होने वाली है। जीव के सच्चे रक्षक संत सत्गुरु होते हैं जो जीव को काल के दण्ड से बचा लेते हैं। शाकाहारी रह कर भगवान् का सत्गुरु का ध्यान करके इस कलियुग में बचा जा सकता है।

Tuesday, 25 September 2018

उत्सव रिश्तों के भीतर बसती इंसानियत का होता है

गणपति  विसर्जन

पापा के पाँव में चोट लगी थी, कुछ दिनों से वे वैसे ही लंगडाकर चल रहे थे।
मैं भी छोटा था और ऐन टाइम पर हमारे घर के गणेश विसर्जन के लिए किसी गाड़ी की व्यवस्था भी न हो सकी।
पापा ने अचानक ही पहली मंजिल पर रहने वाले जावेद भाई को आवाज लगा दी : " ओ जावेद भाई, गणेश विसर्जन के लिए तालाब तक चलते हो क्या ? "
मम्मी तुरंत विरोध स्वरूप बड़बड़ाने लगीं : " उनसे पूछने की क्या जरूरत है ? "

छुट्टी का दिन था और जावेद भाई घर पर ही थे। तुरंत दौड़े आए और बोले : " अरे, गणपती बप्पा को गाड़ी में क्या, आप हुक्म करो तो अपने कन्धे पर लेकर जा सकता हूँ। "
अपनी टेम्पो की चाबी वे साथ ले आए थे।
गणपती विसर्जन कर जब वापस आए तो पापा ने लाख कहा मगर जावेद भाई ने टेम्पो का भाड़ा नहीं लिया। लेकिन मम्मी ने बहुत आग्रह कर उन्हें घर में बने हुए पकवान और मोदक आदि खाने के लिए राजी कर लिया। जिसे जावेद भाई ने प्रेमपूर्वक स्वीकार किया, कुछ खाया कुछ घर ले गए।

तब से हर साल का नियम सा बन गया, गणपती हमारे घर बैठते और विसर्जन के दिन जावेद भाई अपना टेम्पो लिए तैयार रहते।

हमने चाल छोड़ दी, बस्ती बदल गई, हमारा घर बदल गया, जावेद भाई की भी गाड़ियाँ बदलीं मगर उन्होंने गणेश विसर्जन का सदा ही मान रखा। हम लोगों ने भी कभी किसी और को नहीं कहा।
जावेद भाई कहीं भी होते लेकिन विसर्जन के दिन समय से एक घंटे पहले अपनी गाड़ी सहित आरती के वक्त हाजिर हो जाते।
पापा, मम्मी को चिढ़ाने के लिए कहते : " तुम्हारे स्वादिष्ट मोदकों के लिए समय पर आ जाते हैं भाईजान। "
जावेद भाई कहते : " आपका बप्पा मुझे बरकत देता है भाभी जी, उनके विसर्जन के लिए मैं समय पर न आऊँ, ऐंसा कभी हो ही नहीं सकता। "

26 सालों तक ये सिलसिला अनवरत चला।
तीन साल पहले पापा का स्वर्गवास हो गया लेकिन जावेद भाई ने गणपती विसर्जन के समय की अपनी परंपरा जारी रखी।
अब बस यही होता था कि विसर्जन से आने के पश्चात जावेद भाई पकवानों का भोजन नहीं करते, बस मोदक लेकर चले जाया करते।
आज भी जावेद भाई से भाड़ा पूछने की मेरी मजाल नहीं होती थी।

इस साल मार्च के महीने में जावेद भाई का इंतकाल हो गया।

आज विसर्जन का दिन है, क्या करूँ कुछ सूझ नहीं रहा।
आज मेरे खुद के पास गाड़ी है लेकिन मन में कुछ खटकता सा है, इतने सालों में हमारे बप्पा बिना जावेद भाई की गाड़ी के कभी गए ही नहीं। ऐंसा लगता है कि, विसर्जन किया ही न जाए।

मम्मी ने पुकारा : " आओ बेटा, आरती कर लो। "
आरती के बाद अचानक एक अपरिचित को अपने घर के द्वार पर देखा।
सबको मोदक बाँटती मम्मी ने उसे भी प्रसाद स्वरूप मोदक दिया जिसे उसने बड़ी श्रद्धा से अपनी हथेली पर लिया।
फिर वो मम्मी से बड़े आदर से बोला : " गणपती बप्पा के विसर्जन के लिए गाड़ी लाया हूँ। मैं जावेद भाई का बड़ा बेटा हूँ। "
अब्बा ने कहा था कि, " कुछ भी हो जाए लेकिन आपके गणपती, विसर्जन के लिए हमारी ही गाड़ी में जाने चाहिए। परंपरा के साथ हमारा मान भी है बेटा। "
" इसीलिए आया हूँ। "

मम्मी की आँखे छलक उठीं। उन्होंने एक और मोदक उसके हाथ पर रखा जो कदाचित जावेद भाई के लिए था....

फाइनली एक बात तो तय है कि, देव, देवता या भगवान चाहे किसी भी धर्म के हों लेकिन उत्सव जो है वो, रिश्तों का होता है....रिश्तों के भीतर बसती इंसानियत का होता है....

बस इतना ही...!!

Monday, 24 September 2018

चिन्ता और चिन्तन


       मनुष्य जीवन जीने के दो रास्ते हैं चिन्ता और चिन्तन। यहाँ पर कुछ लोग चिन्ता में जीते हैं और कुछ चिन्तन में। चिन्ता में हजारों लोग जीते हैं और चिन्तन में दो-चार लोग ही जी पाते हैं। चिन्ता स्वयं में एक मुसीबत है और चिन्तन उसका समाधान। आसान से भी आसान कार्य को चिन्ता मुश्किल बना देती है और मुश्किल से मुश्किल कार्य को चिन्तन बड़ा आसान बना देता है।
       जीवन में हमें इसलिए पराजय नहीं मिलती कि कार्य बहुत बड़ा था अपितु हम इसलिए परास्त हो जाते हैं कि हमारे प्रयास बहुत छोटे थे। हमारी सोच जितनी छोटी होगी हमारी चिन्ता उतनी ही बड़ी और हमारी सोच जितनी बड़ी होगी, हमारे कार्य करने का स्तर भी उतना ही श्रेष्ठ होगा।
      किसी भी समस्या के आ जाने पर उसके समाधान के लिए विवेकपूर्ण निर्णय ही चिन्तन है। चिन्तनशील व्यक्ति के लिए कोई न कोई मार्ग अवश्य मिल भी जाता है। उसके पास विवेक है और वह समस्या के आगे से हटता नहीं अपितु डटता है। समस्या का डटकर मुकाबला करना आधी सफलता प्राप्त कर लेना है।

चिंतन से हटकट चिंतामणि तक यदि किसी व्यक्ति या वस्तु का चिंतन तो वह सहज ही प्राप्त हो जाता है।


  जय श्रीराधे कृष्णा

मैं तुम्हारे आने वाले संकट को रोक नहीं सकता बस आसान कर सकता हूँ


मैं तुम्हारे आने वाले संकट को रोक नहीं सकता
बस....
गौरी रोटी बनाते बनाते "प्रभु" नाम का जाप कर रही थी, अलग से पूजा का समय कहाँ निकाल पाती थी बेचारी, तो बस काम करते करते ही...।

एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ मे दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़ कर झांकी।

आठ साल का चुन्नू चित्त पड़ा था खून से लथपथ। मन हुआ दहाड़ मार कर रोये। परंतु घर मे उसके अलावा कोई था नही, रोकर भी किसे बुलाती, फिर चुन्नू को संभालना भी तो था।

दौड़ कर नीचे गई तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में माँ माँ की रट लगाए हुए है। अंदर की ममता ने आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया।

फिर 10 दिन पहले करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी कि चुन्नू को गोद मे उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी।

रास्ते भर भगवान को कोसती रही, जी भर कर, बड़बड़ाती रही, हे प्रभु क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को..।

खैर डॉक्टर मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया। चोटें गहरी नही थी, ऊपरी थीं तो कोई खास परेशानी नही हुई। रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे तब गौरी का मन बेचैन था।

भगवान से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता प्रभुसत्ता को चुनौती दे रही थी। उसके दिमाग मे दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी।

कैसे चुन्नू आंगन में गिरा की एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने चापाकल का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां चिंटू गिरा पड़ा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो..?

उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के चुन्नू को उठाया कैसे, कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी? फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू।

वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नही ले जा पाती। फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था।

उसका सर प्रभु चरणों मे श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी। मन ही मन प्रभु से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी।

टीवी पर प्रवचन आ रहा था; - प्रभु कहते हैं :-

"मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हे इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।"

Sunday, 23 September 2018

गणेश कौन हैं?


गणेश शब्द..
जो इंद्रिय गणों का ,
मन- बुद्धि गणों का स्वामी है ,
उस अंतर्यामी विभू का ही वाचक है। गणानां इति गणपतिः..
उस परब्रम्ह निराकार को समझाने के लिए भगवान ने कैसी लीला की!
गणेशजी के सूपडे जैसे कान -सूपडे में कंकड़ पत्थर निकल जाते है अनाज रह जाता है अर्थात सब सुनो लेकिन सार -सार  लो,
लंबी सूंड अर्थात कहाँ क्या हो रहा है सारी खबर हो,
छोटी आँखे -सूक्ष्म दृष्टि हो तोल मोल के निर्णय हो,
चूहे की सवारी-ये संकेत है अध्यात्मिक जगत में प्रवेश पाने का ।
अपनी सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करके तुरीयावस्था में पहुँचने का संकेत करनेवाले गणपतिजी गणों के नायक है |
ऐसे सूक्ष्म सन्देश देने वाले श्री गणेश जी के श्री चरणों मे कोटि कोटि नमन

अनमोल विचार/ Anmol Vichar


अमूल्य उपदेश

1) तुरन्त दुहा हुआ दूध जैसे शीघ्र नहीं बिगड़ता उसी प्रकार कुकर्मों का परिणाम भी शीघ्र नहीं विदित होता।परन्तु वह राख दबी हुई आग की तरह स्थिर रहता है।


2) मित्र का मिलने पर आदर करो, पीठ पीछे प्रशंसा करो और आवश्यकता के समय सहायता करो।


3) तप मनुष्य को कुन्दन बना देता है।


4) उसकी कभी विजय नहीं होती जिसका मन पवित्र नहीं होता।


5) जहाँ अच्छी बात का आदर न हो वहाँ चुप रहना ही बोलने से अच्छा है।


6) जो निरुत्साही, दीन और शोकाकुल बना रहता है उसके सब कार्य नष्ट हो जाते हैं।


7) वास्तविक धर्म यह है कि जिस बात को मनुष्य अपने लिए उचित नहीं समझता, दूसरों के साथ, वैसी बात कभी न करे।


8) ब्रह्मचर्य के पालन से आत्मबल प्राप्त होता है।


9) बिना ब्रह्मचर्य के आयुष्य, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी, महात्वाकांक्षा, पुण्य, तप और स्वाभिमान का नाश हो जाता है।


10) मनुष्य बिना ब्रह्मचर्य धारण किये कदापि पूर्ण आयु वाले नहीं हो सकते।


11) सज्जनों की संगति करनी चाहिए,दुर्जनों से किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रखना चाहिए।


12) जिसके पास धैर्य-धन है, उसके पास समस्त संसार का खजाना है।


13) किसी की चालाकी को जान लेना बड़ी बुद्धिमानी है।


14) शुभ कर्म करो,ताकि मरते समय दुःख न हो और अगला जीवन अच्छा मिले।


15) सदाचार का पालन करने से मनुष्य को दीर्घायु, मनचाही सन्तान और अमिट धन मिलता है।सदाचार दुर्गुणों का नाश करता है।


16) जो व्यक्ति अपने मित्र के साथ छल-कपट,झूठ का व्यवहार कर मित्र को धोखा देता है,वह स्वयं को ही धोखा दे रहा है,अपने मित्र को नहीं।

अनंत चतुर्दशी का महत्व: और कथा


अनंत चतुर्दशी का महत्व:

पौराणिक मान्यता के अनुसार महाभारत काल से अनंत चतुर्दशी व्रत की शुरुआत हुई। यह भगवान श्रीहरिः विष्णु का दिन माना जाता है। अनंत भगवान ने सृष्टि के आरंभ में चौदह लोकों तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भू, भुवः, स्वः, जन, तप, सत्य, मह की रचना की थी। इन लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए वह स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हुए थे, जिससे वे अनंत प्रतीत होने लगे। इसलिए अनंत चतुर्दशी का व्रत भगवान श्रीहरि: विष्णु को प्रसन्न करने और अनंत फल देने वाला माना गया है। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने के साथ-साथ यदि कोई व्यक्ति श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसकी समस्त मनोकामनाऐ पूर्ण होती है। धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से यह व्रत किया जाता है। भारत के कई राज्यों में इस व्रत का प्रचलन है। इस दिन भगवान श्रीहरिः विष्णु की लोक कथाएं सुनी जाती है।

अनंत चतुर्दशी की कथा:~

महाभारत की कथा के अनुसार कौरवों ने छल से जुए में पांडवों को हरा दिया था। इसके बाद पांडवों को अपना राजपाट त्याग कर वनवास जाना पड़ा। इस दौरान पांडवों ने बहुत कष्ट उठाए। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण जी ने पांडवों से मिलने वन पधारे। भगवान श्रीकृष्ण जी को देखकर युधिष्ठिर ने कहा कि, हे मधुसूदन हमें इस पीड़ा से निकलने का और दोबारा राजपाट प्राप्त करने का हमे कोई उपाय बताएं। युधिष्ठिर की बात सुनकर भगवान ने कहा आप सभी भाई पत्नी समेत भाद्र शुक्ल चतुर्दशी का व्रत रखें और अनंत भगवान की पूजा करें।

इस पर युधिष्ठिर ने पूछा कि, अनंत भगवान कौन हैं? इनके बारे में हमें बताएं। इसके उत्तर में श्रीकृष्ण जी ने कहा कि यह भगवान श्रीहरिः विष्णु के ही रूप हैं। चतुर्मास में भगवान श्रीहरिः नारायणः विष्णु शेषनाग की शैय्या पर अनंत शयन में रहते हैं। अनंत भगवान ने ही वामन अवतार में दो पग में ही तीनों लोकों को नाप लिया था। इनके ना तो आदि का पता है नही अंत का इसलिए भी यह अनंत कहलाते हैं अत: इनके पूजन से आपके सभी कष्ट समाप्त हो जाएंगे। इसके बाद युधिष्ठिर ने परिवार सहित यह व्रत किया और पुन: उन्हें हस्तिनापुर का राज-पाट मिला।

Saturday, 22 September 2018

मान-अपमान जीवन की कसौटी है


       मान-अपमान जीवन की कसौटी है, परीक्षा है। आज हमारी आन्तरिक स्थिति बड़ी नाजुक हो गई है। किसी कार्यक्रम में चले जाने पर आज हम अपने आप नहीं बैठ सकते। हमें दो आदमी चाहियें जो हाथ जोड़कर और हाथ पकड़कर हमें बिठा दें। अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर हम तनाव (टैंशन) में आ जाते हैं और कई दिन तक ये तनाव बना रहता है कि किसी ने हमें बैठने तक को नहीं कहा।
       क्या है अपमान ? किसी व्यक्ति की वह व्यक्तिगत कल्पना जिसमें वह दूसरों से वेवजह सम्मान की चाह रखता है और उस चाह का पूरा ना होना ही अपमान कहलाता है। अपेक्षा की उपेक्षा का ही तो नाम अपमान है। हमें दूसरों से कम अपनी सोच से ज्यादा अपमानित होना पड़ता है।
        किसी ने नमस्कार ना कर हमारा अपमान कर दिया, यह सिर्फ हमारी सोच है। उसने तुम्हारा अपमान नहीं किया, उस बात को बार-बार सोचकर तुम खुद अपना अपमान करते हो।
      जो लोग मान और सम्मान पर ज्यादा विचार करते हैं वही तो बेचारे कहलाते हैं। अतः अपनी सोच का स्तर ऊपर उठाकर मान-अपमान से मुक्त होकर प्रसन्नता के साथ जिन्दगी जीओ।

कुछ शब्द Silent होते हैं

कुछ शब्द Silent होते हैं।

जब कोई दुकानदार भाव करते समय कहता है कि आपको ज्यादा नहीं लगाएंगे तो इसमें
चूना शब्द Silent

शादी के समय ये कहा जाता है कि हमारी लड़की तो गाय है गाय
उसमें सींगवाली शब्द silent

बिदाई के वक्त जब दूल्हे से कहा जाता है।
ख्याल रखना
इसमें अपना शब्द Silent

सफलता रिश्तों के संतुलन से मिलती है


क्या हमारे माता-पिता हमे आगे बढ़ने से रोक रहे है?

हमारे माता-पिता… दोस्तो हमारे माता पिता हमें हमारे बहुत से कम में रोक टोक करते रहते है।ये मत करो,वो मत करो,यहा मत जाओ,वहा मत जाओ,एशा मत करो वैसा मत करो और भी बोहोत चीज़ों में हमे बोलते रहते है।वे हमें अक्सर किसी न किसी काम मे रोक टोक करते रहते है।तो दोस्तो क्या आपको नही लगता कि ऐसा करके हमारे माता पिता हमे आगे बढ़ने से रोक रहे है??

चलिये हम इश्का फैसला बाद में करेंगे।उसके पहले में आपको एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ।

एक बार की बात है एक पिता अपने सात साल के बेटे के साथ पतंग उड़ा रहे थे।पतंग काफी उचाई छू रही थी।वो लगभग बदलो को छूती हुई हवा के साथ लहरा रही थी।कुछ समय बाद बेटा पिता से बोला “पापा हमारी पतंग धागे की वजह से ऊपर नही जा रही हमे इस धागे को तोड़ देना चाहिए। इशके टूटते ही हमारी पतंग ऊपर चली जाएगी।

पिता ने तुरन्त ऐसा ही किया।उन्होंने धागे को तोड़ दिया।फिर कुछ ही देर में पतंग और ऊपर जाने लगी। पुत्र के चेहरे पर खुशी दिखाई दी पर ये खुशी कुछ पल के लिए ही थी क्योंकि वह पतंग थोड़ी ऊपर जाने के बाद खुद ब खुद नीचे आने लगी और कही दूर जमीन पर आके गिर गयी।

यह देख पिताने बेटे को कहा “पुत्र जिंदगी की जिस उचाई पर हम है वहा से हमे अक्सर लगता है कि कुछ चीजें जिस से हम बंधे हुये है वो हमें उचाईयों पर जाने से रोक रही है।जैसे कि हमारे माता,पिता,अनुसासन,हमारा परिवार आदि।इसलिए हम कई बार सोचते है कि शायद में इसी वजह से sucess नही हो रहा।मुझे इस से आजाद होना चाहिए।

जिस प्रकार से वह पतंग उस धागे से बंधी हुई रहती है उसी तरह से हम भी इन रिस्तो से बंधे हुये हैlवास्तव में यही वो धागा होता है जो पतंग को उचाईयों पर ले जाता है ।हाँ जरूर तुम ये धागा तोड़ के यानी की अपने रिश्ते तोड़ के उचाईयों को छू सकते हो लेकिन उस पतंग की तरह ही कभी ना कभी कट कर नीचे गिर जाओगे।

पतंग तब तक ऊचाइयों  को छूती रंहेंगी जब तक पतंग उस डोर से बंधी रंहेंगी।ठीक इसी तरह से हम जब तक इन रिश्तों से बंधे रंहेंगे तब तक हम उचाईयों को छूते रंहेंगे।क्योंकि हमारे जीवन मे सफलता रिश्तों के संतुलन से मिलती है।

दोस्तों इस कहानी से में बस आपको यही समझना चाहता हूँ कि हमारे माता पिता हमे आगे बढ़ने से बिल्कुल रोक नही रहे बस वो रोक टोक करके उस धागे को टूटने से बचाना चाहते है।क्योंकि वो जानते है कि आप इस धागे को तोड़ के उचाईयों को नही छू सकते।

Friday, 21 September 2018

इल्जाम की भी हद हो गयी


इल्जाम की भी हद हो गयी -

आज एक सज्जन हमारे पासवाले स्कूल के सर से बोल रहे थे-
मास्साब, स्कूल खुले तो कई दिन हुई गये..
पर बो गोरी वाली मैडम कही नही दिखाई दई अबतक?

सर बोले- भाई साहब, उनको ट्रांसफर हो गओ ।

सज्जन बोले - हे भगवान.. जे मोदी कोऊ को खुश नई देख सकत ।

जानें कहां हुआ था श्री राधा जी का जन्म


मथुरा. राधा जी के बारे में प्रचलित है कि वह बरसाना की थीं। लेकिन, हकीकत है कि उनका जन्‍म बरसाना से 50 किलोमीटर दूर हुआ था। यह गांव रावल के नाम प्रसिद्ध है। यहां पर राधा का जन्‍म स्‍थान है।

कमल के फूल पर जन्‍मी थीं राधा
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- रावल गांव में राधा का मंदिर है। माना जाता है कि यहां पर राधाजी का जन्‍म स्‍थान है।
- श्रीकृष्‍ण जन्‍मस्‍थान सेवा संस्‍थान के सचिव कपिल शर्मा के अनुसार, 5 हजार साल पहले रावल गांव को छूकर यमुना बहती थी।
- राधा की मां कृति यमुना में स्‍नान करते हुए अराधना करती थी और पुत्री की लालसा रखती थी।
- पूजा करते समय एक दिन यमुना से कमल का फूल प्रकट हुआ। कमल के फूल से सोने की चमक सी रोशनी निकल रही थी। इसमें छोटी बच्‍ची का नेत्र बंद था। अब वह स्‍थान इस मंदिर का गर्भगृह है।
- इसके 11 महीने बाद 3 किलोमीटर दूर मथुरा में कंस के कारागार में भगवान कृष्‍ण का जन्‍म हुआ था।
- वह रात में गोकुल में नंदबाबा के घर पर पहुंचाए गए। तब नंद बाबा ने सभी जगह संदेश भेजा और कृष्‍ण का जन्‍मोत्‍सव मनाया गया।
- जब बधाई लेकर वृषभान अपने गोद में राधारानी को लेकर यहां गए तो राधारानी घुटने के बल चलते हुए बालकृष्‍ण के पास पहुंची। वहां बैठते ही तब राधारानी के नेत्र खुले और उन्‍होंने पहला दर्शन बालकृष्‍ण का किया।

राधा और कृष्‍ण क्‍यों गए बरसाना
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- कृष्‍ण के जन्‍म के बाद से ही कंस का प्रकोप गोकुल में बढ़ गया था। यहां के लोग परेशान हो गए थे।
- नंदबाबा ने स्‍थानीय राजाओं को इकट्ठा किया। उस वक्‍त बृज के सबसे बड़े राजा वृषभान थे। इनके पास 11 लाख गाय थीं। जबकि, नंद जी के पास नौ लाख गाय थी।
- जिसके पास सबसे ज्‍यादा गाय होतीं थी, वह वृषभान कहलाते थे। उससे कम गाय जिनके पास रहती थीं, वह नंद कहलाए जाते थे।
- बैठक के बाद फैसला हुआ कि गोकुल व रावल छोड़ दिया जाए।
- गोकुल से नंद बाबा और जनता पलायन करके पहाड़ी पर गए, उसका नाम नंदगांव पड़ा। वृषभान, कृति और राधारानी को लेकर पहाड़ी पर गए, उसका नाम बरसाना पड़ा।

रावल में मंदिर के सामने बगीचा, इसमें पेड़ स्‍वरूप में हैं राधा व श्‍याम

- रावल गांव में राधारानी के मंदिर के ठीक सामने प्राचीन बगीचा है। कहा जाता है कि यहां पर पेड़ स्‍वरूप में आज भी राधा और कृष्‍ण मौजूद हैं।
- यहां पर एक साथ दो पेड़ हैं। एक श्‍वेत है तो दूसरा श्‍याम रंग का। इसकी पूजा होती है। माना जाता है कि राधा और कृष्‍ण पेड़ स्‍वरूप में आज भी यहां से यमुना जी को निहारते हैं।

बड़े-बुजुर्ग परिवार की शान है


एक बहुत बड़ा विशाल पेड़ था। उस पर बीसीयों हंस रहते थे। उनमें एक बहुत सयाना हंस था, बुद्धिमान और बहुत दूरदर्शी। सब उसका आदर करते ‘ताऊ’ कहकर बुलाते थे। एक दिन उसने एक नन्ही-सी बेल को पेड़ के तने पर बहुत नीचे लिपटते पाया। ताऊ ने दूसरे हंसों को बुलाकर कहा, देखो, इस बेल को नष्ट कर दो। एक दिन यह बेल हम सबको मौत के मुंह में ले जाएगी। एक युवा हंस हंसते हुए बोला, ताऊ, यह छोटी-सी बेल हमें कैसे मौत के मुंह में ले जाएगी? सयाने हंस ने समझाया, आज यह तुम्हें छोटी-सी लग रही है। धीरे-धीरे यह पेड़ के सारे तने को लपेटा मारकर ऊपर तक आएगी। फिर बेल का तना मोटा होने लगेगा और पेड़ से चिपक जाएगा, तब नीचे से ऊपर तक पेड़ पर चढ़ने के लिए सीढ़ी बन जाएगी। कोई भी शिकारी सीढ़ी के सहारे चढ़कर हम तक पहुंच जाएगा और हम मारे जाएंगे। दूसरे हंस को यकीन न आया, एक छोटी-सी बेल कैसे सीढ़ी बनेगी? तीसरा हंस बोला, ताऊ, तू तो एक छोटी-सी बेल को खींचकर ज्यादा ही लंबा कर रहा है। एक हंस बड़बड़ाया, यह ताऊ अपनी अक्ल का रौब डालने के लिए अंट-शंट कहानी बना रहा है। इस प्रकार किसी दूसरे हंस ने ताऊ की बात को गंभीरता से नहीं लिया। इतनी दूर तक देख पाने की उनमें अक्ल कहां थी? समय बीतता रहा। बेल लिपटते-लिपटते ऊपर शाखाओं तक पहुंच गई। बेल का तना मोटा होना शुरू हुआ और सचमुच ही पेड़ के तने पर सीढ़ी बन गई। जिस पर आसानी से चढ़ा जा सकता था। सबको ताऊ की बात की सच्चाई सामने नजर आने लगी। पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था क्योंकि बेल इतनी मजबूत हो गई थी कि उसे नष्ट करना हंसों के बस की बात नहीं थी। एक दिन जब सब हंस दाना चुगने बाहर गए हुए थे तब एक बहेलिया उधर आ निकला। पेड़ पर बनी सीढ़ी को देखते ही उसने पेड़ पर चढ़कर जाल बिछाया और चला गया। सांझ को सारे हंस लौट आए और जब पेड़ से उतरे तो बहेलिए के जाल में बुरी तरह फंस गए। जब वे जाल में फंस गए और फड़फड़ाने लगे, तब उन्हें ताऊ की बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का पता लगा। सब ताऊ की बात न मानने के लिए लज्जित थे और अपने आपको कोस रहे थे। ताऊ सबसे रुष्ट था और चुप बैठा था। एक हंस ने हिम्मत करके कहा, ताऊ, हम मूर्ख हैं, लेकिन अब हमसे मुंह मत फेरो। दूसरा हंस बोला, इस संकट से निकालने की तरकीब तू ही हमें बता सकता हैं। आगे हम तेरी कोई बात नहीं टालेंगे। सभी हंसों ने हामी भरी तब ताऊ ने उन्हें बताया, मेरी बात ध्यान से सुनो। सुबह जब बहेलिया आएगा, तब मुर्दा होने का नाटक करना। बहेलिया तुम्हें मुर्दा समझकर जाल से निकालकर जमीन पर रखता जाएगा। वहां भी मरे समान पड़े रहना। जैसे ही वह अन्तिम हंस को नीचे रखेगा, मैं सीटी बजाऊंगा। मेरी सीटी सुनते ही सब उड़ जाना। सुबह बहेलिया आया। हंसों ने वैसा ही किया, जैसा ताऊ ने समझाया था। सचमुच बहेलिया हंसों को मुर्दा समझकर जमीन पर पटकता गया। सीटी की आवाज के साथ ही सारे हंस उड़ गए। बहेलिया अवाक होकर देखता रह गया। वरिष्ठजन घर की धरोहर हैं ।वे हमारे संरक्षक एवं मार्गदर्शक है। जिस तरह आंगन में पीपल का वृक्ष फल नहीं देता, परंतु छाया अवश्य देता है। उसी तरह हमारे घर के बुजुर्ग हमे भले ही आर्थिक रूप से सहयोग नहीं कर पाते है, परंतु उनसे हमे संस्कार एवं उनके अनुभव से कई बाते सीखने को मिलती है,
 बड़े-बुजुर्ग परिवार की शान है वो कोई कूड़ा-करकट नहीं हैं, जिसे कि परिवार से बाहर निकाल फेंका जाए। अपने प्यार से रिश्तों को सींचने वाले इन बुजुगों को भी बच्चों से प्यार व सम्मान चाहिए अपमान व तिरस्कार नहीं। अपने बच्चों की खातिर अपना जीवन दाँव पर लगा चुके इन बुजुर्गों को अब अपनों के प्यार की जरूरत है। यदि हम इन्हें सम्मान व अपने परिवार में स्थान देंगे तो लाभान्वित ही होंगे । ऐसा न करने पर हम अपने हाथों अपने बच्चों को उस प्यार, संस्कार, आशीर्वाद व स्पर्श से वंचित कर रहे हैं, जो उनकी जिंदगी को सँवार सकता है। याद रखिए किराए से भले ही प्यार मिल सकता है परंतु संस्कार, आशीर्वाद व दुआएँ नहीं। यह सब तो हमें माँ-बाप से ही मिलती हैं।

Wednesday, 19 September 2018

भगवान गणेश को क्यों नहीं चढ़ाते तुलसी ?


धर्म ग्रंथो के अनुसार भगवान गणेश को भगवान  श्री कृष्ण का अवतार बताया गया है और भगवान श्री कृष्ण स्वयं भगवान विष्णु के अवतार है। लेकिन जो तुलसी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है, इतनी प्रिय की भगवान विष्णु के ही एक रूप शालिग्राम का विवाह तक तुलसी से होता है वही तुलसी भगवान गणेश को अप्रिय है, इतनी अप्रिय की भगवान गणेश के पूजन में इसका प्रयोग वर्जित है।  पर ऐसा क्यों है इसके सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा है

एक बार श्री गणेश गंगा किनारे तप कर रहे थे। इसी कालावधि में धर्मात्मज की नवयौवना कन्या तुलसी ने विवाह की इच्छा लेकर तीर्थ यात्रा पर प्रस्थान किया। देवी तुलसी सभी तीर्थस्थलों का भ्रमण करते हुए गंगा के तट पर पंहुची। गंगा तट पर देवी तुलसी ने युवा तरुण गणेश जी को देखा जो तपस्या में विलीन थे। शास्त्रों के अनुसार तपस्या में विलीन गणेश जी रत्न जटित सिंहासन पर विराजमान थे। उनके समस्त अंगों पर चंदन लगा हुआ था। उनके गले में पारिजात पुष्पों के साथ स्वर्ण-मणि रत्नों के अनेक हार पड़े थे। उनके कमर में अत्यन्त कोमल रेशम का पीताम्बर लिपटा हुआ था।

तुलसी श्री गणेश के रुप पर मोहित हो गई और उनके मन में गणेश से विवाह करने की इच्छा जाग्रत हुई। तुलसी ने विवाह की इच्छा से उनका ध्यान भंग किया। तब भगवान श्री गणेश ने तुलसी द्वारा तप भंग करने को अशुभ बताया और तुलसी की मंशा जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया।

श्री गणेश द्वारा अपने विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने से देवी तुलसी बहुत दुखी हुई और आवेश में आकर उन्होंने श्री गणेश के दो विवाह होने का शाप दे दिया। इस पर श्री गणेश ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारा विवाह एक असुर से होगा। एक राक्षस की पत्नी होने का शाप सुनकर तुलसी ने श्री गणेश से माफी मांगी। तब श्री गणेश ने तुलसी से कहा कि तुम्हारा विवाह शंखचूर्ण राक्षस से होगा। किंतु फिर तुम भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। पर मेरी पूजा में तुलसी चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा।

स्यमंतक मणि की कथा

स्यमंतक मणि की कथा  (  गणेश चतुर्थी पर चन्द्र-दर्शन करने पर अभिशापित हुए मनुष्य को दोष-मुक्त करने वाली कथा )

श्रीमद्भागवत पुराण के दसवें स्कंध के अध्याय 56 और 57 में श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं,'' परीक्षित ! सत्राजित ने श्री कृष्ण पर मणि चोरी का झूठा कलंक लगाया था और फिर अपने उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमंतक मणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण को सौंप दी। ''

राजा परीक्षित ने पूछा," भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्री कृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या श्री कृष्ण को क्यों सौंप दी ? ''

श्री शुकदेव जी कहते हैं," परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। सूर्यदेव उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये। सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस दिव्य मणि को गले में धारण करके ऐसा चमकने लगा, मानों स्वयं सूर्यदेव ही हों ।

जब सत्राजित द्वारका आया, तो अत्यंत तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके । दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान सूर्य ही आ रहें हैं।

उन लोगों ने भगवान श्री कृष्ण के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी । भगवान उस समय चौसर खेल रहे थे। लोगों ने कहा," हे शंख-चक्र-गदाधारी, नारायण! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए भगवान सूर्य आपके दर्शन करने आ रहे हैं। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूंढते रहते हैं। आज आपको यदुवंश में छिपा जानकर सूर्य भगवान आपके दर्शन करने आ रहे हैं। "

श्री शुकदेव जी कहते हैं," अंजान लोगों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्री कृष्ण हंसने लगे । उन्होंने कहा," यह तो सत्राजित है, जो मणि के प्रभाव से इतना चमक रहा है। "
इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर चला आया। घर पर उसके शुभ आगमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमंदिर में स्थापित करवा दिया। वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहां वह मणि पूजित होकर रहती थी, वहाँ महामारी, ग्रह -पीड़ा, सर्पभय, मानसिक एवं शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था।
एक बार भगवान श्री कृष्ण ने प्रसंगवश कहा," सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो । पर वह इतना अर्थ-लोलुप था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करते हुए भगवान श्री कृष्ण की बात को अस्वीकार कर दिया।

श्री शुकदेव जी कहते हैं," एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमय मणि को अपने गले में धारण कर लिया और वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस दिव्य मणि को छीन लिया। वह सिंह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ॠक्षराज जाम्बवान् ने उस सिंह को मार डाला और उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चों को खेलने के लिए दे दी।

अपने भाई प्रसेन के न लौटने पर उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा," बहुत संभव है कि श्री कृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डाल कर वन गया था। "

सत्राजित की बात सुनकर लोग आपस में काना-फूंसी करने लगे। जब भगवान श्री कृष्ण ने यह सुना कि इस कलंक का टीका मेरे सिर लगाया जा रहा है, तब वह नगर के कुछ सभ्य पुरषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूंढने वन में गये।

वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों के निशान देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।

भगवान श्री कृष्ण ने सब लोगों को गुफा के बाहर ही बैठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ॠक्षराज की उस भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उस मणि को हर लेने की इच्छा से बच्चों के पास जा खड़े हुए। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चों की दायीं भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट को सुनकर परम बली ॠक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये।

श्री शुकदेव जी कहते हैं," उस समय जाम्बवान कुपित हो रहे थे और उन्हें भगवान की महिमा एवं प्रभाव का पता नहीं चला। उन्होंने भगवान को एक साधारण मनुष्य समझ लिया और अपने स्वामी भगवान श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। मणि के विजयाभिलाषी भगवान श्री कृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया और फिर शिलाओं का उपयोग किया। तत्पश्चात वें दोनों वृक्ष उखाड़ कर एक-दूसरे पर फेंकने लगे । अन्त में इनमें बाहुयुद्ध होने लगा। वज्र प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक गाँठ टूट गई। उनका उत्साह जाता रहा। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान श्री कृष्ण से कहा," हे प्रभु ! मैं जान गया, आप ही समस्त प्राणियों के रक्षक, प्राण-पुरष भगवान हैं, आप ही सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं और आप अवश्य ही मेरे वही भगवान हैं, जिन्होंने अपने दिव्य बाणों से राक्षसों के सिर काट-काट कर पृथ्वी पर गिरा दिए। "

जब जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी करकमल को जाम्बवान के शरीर पर फेर दिया और फिर कृपा से भरकर अत्यंत प्रेम से अपने भक्त जाम्बवान से कहने लगे कि हम इस मणि के लिए तुम्हारी गुफा में आये हैं और इस मणि के द्वारा मैं अपने ऊपर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान जी ने बड़े आनंद के साथ उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती जी को मणि के साथ भगवान के श्री चरणों में समर्पित कर दिया।

भगवान श्री कृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की, पर जब उन्होंने देखा कि अब तक भगवान गुफा से नहीं निकलें, तो वह सब अत्यंत दुखी हो द्वारका वापिस लौट आए। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी सहित अन्य संबंधियों और कुटुम्बियों को पता चला, तो उन्हें बहुत शोक हुआ। सभी द्वारकावासी सत्राजित को भला-बुरा कहने लगे और भगवान श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया की शरण गए।

महामाया उनकी उपासना से प्रसन्न होकर प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में मणि सहित अपनी नववधू जाम्बवती को लेकर प्रकट हो गये।

तदनंतर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। अपने अपराध पर सत्राजित को। बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। अब वह यही सोचता रहता कि मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ  ? मैं ऐसा कौन सा कार्य करूँ कि लोग मुझे कोसे नहीं।

उसने विचार किया कि अब मैं अपनी रमणियों में रत्न के समान पुत्री सत्यभामा और स्यमंतक मणि दोनों को ही श्री कृष्ण को दे दूँ, तो मेरे अपराध का अन्त हो सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है।

सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि गुणों से संपन्न थी। सत्राजित ने अपनी कन्या और स्यमंतक मणि दोनों को ले जाकर भगवान श्री कृष्ण को अर्पित कर दिया।
भगवान ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया और सत्राजित से कहा कि हम स्यमंतक मणि नहीं लेंगे। आप सूर्य भगवान के परम भक्त हैं, इसलिए वह आप ही के पास रहे । हम तो केवल उसके फल अर्थात् उससे निकले सोने के अधिकारी हैं, वही आप हमें दे दिया करें।

कुछ ही समय बाद अक्रूर के कहने पर ऋतु वर्मा ने सत्राजित को मारकर मणि छीन ली। श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ उनसे युद्ध करने पहुंचे। युद्ध में जीत हासिल होने वाली थी कि ऋतु वर्मा ने मणि अक्रूर को दे दी और भाग निकला। श्रीकृष्ण ने युद्ध तो जीत लिया लेकिन मणि हासिल नहीं कर सके। जब बलराम ने उनसे मणि के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मणि उनके पास नहीं। ऐसे में बलराम खिन्न होकर द्वारिका जाने की बजाय इंद्रप्रस्थ लौट गए।
उधर द्वारिका में फिर चर्चा फैल गई कि श्रीकृष्ण ने मणि के मोह में भाई का भी तिरस्कार कर दिया। मणि के चलते झूठे लांछनों से दुखी होकर श्रीकृष्ण सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है।

तब नारद जी आए और उन्होंने कहा कि हे श्री कृष्ण ! आपने भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन किये थे और इसी कारण आपको मिथ्या कलंक झेलना पड़ रहा हैं।
श्रीकृष्ण चंद्रमा के दर्शन कि बात विस्तार पूछने पर नारदजी ने श्रीकृष्ण को कलंक वाली यह कथा बताई थी-

एक बार भगवान श्रीगणेश ब्रह्मलोक से होते हुए लौट रहे थे कि चंद्रमा को गणेशजी का स्थूल शरीर और गजमुख देखकर हंसी आ गई। गणेश जी को अपना यह अपमान सहन नहीं हुआ और उन्होंने चंद्रमा को शाप देते हुए कहा, "पापी तूने मेरा मजाक उड़ाया हैं। आज मैं तुझे शाप देता हूं कि जो भी तेरा मुख देखेगा, वह कलंकित हो जायेगा। "

गणेशजी का शाप सुनकर चंद्रमा बहुत दुखी हुए क्योंकि इस प्रकार तो उन्हें सृष्टि में सर्वदा अशुभ होने की मान्यता प्राप्त हो जाएगी। गणेशजी के शाप वाली बात चंद्रमा ने समस्त देवताओं को बतायी तो सभी देवताओं को चिंता हुई और विचार विमर्श करने लगे कि चंद्रमा ही रात्रिकाल में पृथ्वी का आभूषण हैं तथा इसे देखे बिना पृथ्वी पर रात्रि का कोई काम पूरा नहीं हो सकता।

अत: चंद्रमा को साथ लेकर सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुचें। देवताओं ने ब्रह्माजी को सारी घटना विस्तार से सुनाई। उनकी बातें सुनकर ब्रह्माजी बोले, " चंद्रमा तुमने सभी गणों के अराध्य देव शिव-पार्वती के पुत्र गणेश का अपमान किया हैं। यदि तुम गणेश के शाप से मुक्त होना चाहते हो तो श्रीगणेशजी का व्रत रखो। वे दयालु हैं, तुम्हें माफ कर देंगे। "

चंद्रमा गणेशजी को प्रशन्न करने के लिये कठोर व्रत-तपस्या करने लगे। भगवान गणेश चंद्रमा की कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और कहा वर्षभर में केवल एक दिन भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात्रि को जो तुम्हें देखेगा, उसे ही कोई मिथ्या कलंक लगेगा। बाकी दिन कुछ नहीं होगा। केवल एक ही दिन कलंक लगने की बात सुनकर चंद्रमा समेत सभी देवताओं ने राहत की सांस ली।

उसी दिन से गणेश चतुर्थी यानि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र दर्शन निषेध माना गया है।
स्वयं श्रीकृष्ण जी ने भागवत ( स्कंध -10 के अध्याय 56 ) में इसे मिथ्याभिशाप कहकर मिथ्या कलंक का ही संकेत दिया है। स्कंद पुराण में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कहा है कि भादव के शुक्ल पक्ष के चन्द्र दर्शन मैंने गोखुर के जल में किए, जिसके फलस्वरूप मुझ पर मणि की चोरी का झूठा कलंक लगा-

" मया भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्यां चंद्रदर्शनं गोष्पदाम्बुनि वै राजन् कृतं दिवमपश्यता "

देवर्षि नारदजी ने भी श्री कृष्ण को भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को चन्द्र दर्शन करने के फलस्वरूप व्यर्थ कलंक लगने की बात कही है-

 त्वया भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्यां चन्द्रदर्शनम् । कृतं येनेह भगवन् वृथाशापमवाप्तवानम् ।।

इसके अतिरिक्त श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इस तिथि को चन्द्रमा के दर्शन ना किए जाने के संकेत दिए हैं-

सो परनारि लिलार गोसाईं । तजउ चौथि कै चंद की नाईं ।।

यदि भूलवश इस तिथि को चन्द्र  दर्शन हो ही जायें
विष्णु पुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्र दर्शन से कलंक लगने के शमन हेतु विष्णु पुराण में वर्णित स्यमंतक मणि का उल्लेख पढ़ने या सुनने से यह दोष समाप्त होता है।

अत: स्यमंतक मणि की ( ऊपर लिखी ) यह कथा गणेश चतुर्थी पर चन्द्र-दर्शन करने पर अभिशापित हुए मनुष्य को दोष-मुक्त करती है।

Tuesday, 18 September 2018

जीवन की सार्थकता

आज का भगवद चिन्तन ॥

       जितना बड़ा वृक्ष होगा उसके बीज के अंकुरित होने की यात्रा भी उतनी ही लम्बी होगी। ठीक उसी प्रकार जीवन के शुभ संकल्प जितने श्रेष्ठ होंगे उनको साकार रूप लेने में उतना ही समय लगेगा।
       शुभ संकल्प रुपी बीज ऐसे ही फलित नहीं हो जायेंगे, परिश्रम रुपी जल से नित इन्हें सिंचित करना पड़ेगा। संकल्प रुपी खाद डालनी पड़ेंगी, कुसंग रुपी कीड़ा से बचाना होगा और झंझावत रुपी घोर निराशा से भी बचाना होगा।
       उसके बाद आपके सामने बीज नहीं अपितु एक विशाल वृक्ष होगा जिसकी शीतल छाया तले अनेकों लोग विश्राम व मधुर फलों से तृप्ति पा रहे होंगे। और आपको मिल रहा होगा एक परम धन्यता का अनुभव और जीवन की सार्थकता का आनन्द।

   जय श्रीराधे कृष्णा

संत की परिभाषा


            महर्षि दधीचि ने संसार के कल्याण के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।  इनके विषय में कथा है कि एक बार वृत्रासुर नाम का एक राक्षस देवलोक पर आक्रमण कर दिया।

              देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्रासुर पर अपने दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किया लेकिन सभी अस्त्र शस्त्र इसके कठोर शरीर से टकराकर टुकरे-टुकरे हो रहे थे। अंत में देवराज इन्द्र को अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा। इन्द्र भागकर ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव के पास गया लेकिन तीनों देवों ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई अस्त्र शस्त्र नहीं है जिससे वृत्रासुर का वध हो सके।

          त्रिदेवों की ऐसी बातें सुनकर इन्द्र मायूस हो गया। देवराज की दयनीय स्थिति देखकर भगवान शिव ने कहा कि पृथ्वी पर एक महामानव हैं दधिचि। इन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को अत्यंत कठोर बना लिया है। इनसे निवेदन करो कि संसार के कल्याण हेतु अपनी हड्डियों का दान कर दें।

             इन्द्र ने शिव की आज्ञा के अनुसार दधिचि से हड्डियों का दान मांगा। महर्षि दधिचि ने संसार के हित में अपने प्राण त्याग दिए। देव शिल्पी विश्वकर्मा ने इनकी हड्डियों से देवराज के लिए वज्र नामक अस्त्र का निर्माण किया और दूसरे देवताओं के लिए भी अस्त्र शस्त्र बनाए।

           इसके बाद इन्द्र ने वृत्रासुर को युद्घ के लिए ललकारा। युद्घ में इन्द्र ने वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार किया। जिससे टकराकर वृत्रासुर का शरीर रेत की तरह बिखर गया। देवताओं का फिर से देवलोक पर अधिकार हो गया और संसार में धर्म का राज कायम हुआ।

         आज महर्षि दधिचि का जीवन एक आदर्श रूप है जो बताता है कि संत और ऋषि को कैसा होना चाहिए। वास्तव में संत की यही परिभाषा है। जैसा महर्षि दधिचि ने किया। 

Monday, 17 September 2018

कर्म सत्कर्म बन जाता है


     भगवान् श्री कृष्ण एक तरफ वंशीधर हैं तो दूसरी तरफ चक्रधर, एक तरफ माखन चुराने वाले हैं तो दूसरी तरफ सृष्टि को खिलाने वाले। वो एक तरफ वनवारी हैं तो दूसरी तरफ गिरधारी, वो एक तरफ राधारमण हैं तो तो दूसरी तरफ रुक्मणि हरण करने वाले हैं।
     कभी शांतिदूत तो कभी क्रांतिदूत, कभी यशोदा तो कभी देवकी के पूत। कभी युद्ध का मैदान छोड़कर भागने का कृत्य , तो कभी सहस्र फन नाग के मस्तक पर नृत्य। जीवन को पूर्णता से जीने का नाम कृष्ण है। जीवन को समग्रता से स्वीकार किया श्री कृष्ण ने। परिस्थितियों से भागे नहीं उन्हें स्वीकार किया।
     भगवान श्री कृष्ण एक महान कर्मयोगी थे, उन्होंने अर्जुन को यही समझाया कि हे अर्जुन, माना कि कर्म थोड़ा दुखदायी होता है लेकिन बिना कर्म किये सुख की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। अगर कर्म का उद्देश्य पवित्र व शुभ हो तो वही कर्म सत्कर्म बन जाता है।

   जय श्रीराधे कृष्णा

Sunday, 16 September 2018

प्रकृति अपने नियम से कभी नहीं चूकती


       प्रकृति अपने नियम से कभी नहीं चूकती। अगर पौधे को आप पानी देते हैं तो वह स्वत: हरा भरा रहेगा और यदि आपने उसकी उपेक्षा शुरू की तो उसे मुरझाने में भी वक्त नहीं लगने वाला है। जिन लोगों ने इस दुनियाँ को स्वर्ग कहा उनके लिए यही प्रकृति उनके अच्छे कार्यों से स्वर्ग वन गई और जिन लोगों ने गलत काम किये उनके लिए यही प्रकृति, यही दुनियाँ नरक बन गई।
       यहाँ खुशबू उनके लिए स्वत: मिल जाती है जो लोग फूलों की खेती किया करते हैं और यहाँ मीठे फल उन्हें स्वत: मिल जाते हैं जो लोग पेड़ लगाने भर का परिश्रम कर पाते हैं।
       अत: यहाँ चाहने मात्र से कुछ नहीं प्राप्त होता जो भी और जितना भी आपको प्राप्त होता है वह निश्चित ही आपके परिश्रम का और आपके सदकार्यों का पुरुस्कार होता है।

पाप का फल


     एक मांसाहारी परिवार था...

परिवार का प्रमुख रोज एक मुर्गे को हलाल करता था।मुर्गा चीखता और वह अट्टहास भरता !!!

      उसके तीन अबोध बच्चे थे , बड़ा करीब चार वर्ष का था, दूसरा ढाई वर्ष का और तीसरा गोद का बच्चा था , उसके बच्चे जब पिता के इन कृत्यों को देखते तो उन्हें लगता कि उनके पिता कोई खेल खेलते हैं और पिता को उसमें बड़ा आनन्द आता है ।

      एक दिन पिता किसी काम से कहीं बाहर गये , घर में मुर्गा नहीं आया तो बच्चों ने सोचा कि आज पिताजी नहीं हैं तो चलो आज हम ही यह खेल खेलें, बड़े बेटे ने छोटे को लिटाया, लिटाकर एक पैर से उसे दबाया, एक हाथ से सिर दबाया और उसके गले को छुरे से रेत दिया , जैसे ही गला रेता, बच्चा चीख पड़ा , भाई की चीख सुनकर यह भी घबराकर भागा।

     चीख की आवाज़ सुनी, तो माँ जो अपने सबसे छोटे बेटे को टब में नहला रही थी, वह उसे वहीं छोड़कर आवाज की दिशा की ओर भागी , बेटे ने देखा माँ आ रही है और अब मुझे मारेगी तो उसने अपना मानसिक सन्तुलन खो दिया और छत से कूदकर अपनी जान दे दी, तो इधर वह बेटा भी गले की नस कट जाने के कारण मर चुका था , माँ दोनों बेटों का हाल देखकर वहीं मूर्छित होकर गिर गई।
      काफी देर बाद जब माँ को होश आया तो याद आया कि वह छोटे बेटे को टब में नहलाता हुआ छोड़कर आई थी, मगर तब तक काफी समय गुजर चुका था , जब वह नीचे आई, तो उसकी गोद का बालक टब में ही शान्त हो चुका था।

     ये है पाप का कहर , आदमी पाप करता है, तो उसका परिणाम उसे भुगतना ही पड़ता है। मगर अफसोस, कि मनुष्य सब चीजों को देखते हुए समझते हुए भी पाप करने से भय नहीं खाता।

जो बोयेंगे, ऐसा ही काटेंगे....
पाप का फल, आज नही तो कल

Friday, 14 September 2018

कृष्ण होने का अर्थ


      जिसे सीमित शब्दों में परिभाषित किया जा सके वो कभी भी कृष्ण नहीं हो सकता क्योंकि कृष्ण होने का अर्थ ही यह है कि जिसके लिए सारे शब्द कम पड़ जाएं व सारी उपमाएं छोटी। जो दूसरों के चित्त को अपनी ओर आकर्षित करे वो श्रीकृष्ण है।
       बाल भाव से बच्चे उनकी तरफ खिंचते हैं तो प्रौढ़ गाम्भीर्य भाव से। कान्त भाव से गोपियाँ उनको अपना सर्वस्व दे बैठीँ तो योगिराज बनकर उन्होंने योगियों को अपना बनाया। केवल बाहर ही नहीं अपितु हमें अपने भीतर भी कृष्ण को जन्म देना होगा।
     अनीति व अत्याचार के विरोध की सामर्थ्य, कठिनतम परिस्थितियों में भी धर्म रक्षार्थ कृत संकल्प, पग - पग पर अधर्म को चुनौती देने का साहस व प्रत्येक कर्म का पूर्ण निष्ठा से निर्वहन, वास्तव में अपने भीतर कृष्ण को जन्म देना ही है।


जय श्री कृष्ण

गणपती क्यों बिठाते हैं

गणपती क्यों बिठाते हैं

हम सभी हर साल गणपती की स्थापना करते हैं, साधारण भाषा में गणपती को बैठाते हैं।
लेकिन क्यों ???
किसी को मालूम है क्या ??
हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार, महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की रचना की है।
लेकिन लिखना उनके वश का नहीं था।
अतः उन्होंने श्री गणेश जी की आराधना की और गणपती जी से महाभारत लिखने की प्रार्थना की।
गणपती जी ने सहमति दी और दिन-रात लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ और इस कारण गणेश जी को थकान तो होनी ही थी, लेकिन उन्हें पानी पीना भी वर्जित था।
अतः गणपती जी के शरीर का तापमान बढ़े नहीं, इसलिए वेदव्यास ने उनके शरीर पर मिट्टी का लेप किया और भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी की पूजा की।
मिट्टी का लेप सूखने पर गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई, इसी कारण गणेश जी का एक नाम पर्थिव गणेश भी पड़ा।
महाभारत का लेखन कार्य 10 दिनों तक चला।
अनंत चतुर्दशी को लेखन कार्य संपन्न हुआ।
वेदव्यास ने देखा कि, गणपती का शारीरिक तापमान फिर भी बहुत बढ़ा हुआ है और उनके शरीर पर लेप की गई मिट्टी सूखकर झड़ रही है, तो वेदव्यास ने उन्हें पानी में डाल दिया।
इन दस दिनों में वेदव्यास ने गणेश जी को खाने के लिए विभिन्न पदार्थ दिए।
तभी से गणपती बैठाने की प्रथा चल पड़ी।
इन दस दिनों में इसीलिए गणेश जी को पसंद विभिन्न भोजन अर्पित किए जाते हैं।।

Thursday, 13 September 2018

वर्तमान मे जियो


       भविष्य का भय सदैव केवल उनके लिए सताता है जो वर्तमान में भी संतुष्ट नहीं। जिस व्यक्ति को वर्तमान में संतुष्ट रहना आ गया फिर ऐसा कोई दूसरा कारण ही नहीं कि उसे भविष्य की चिंता करनी पड़े।
      हमारे जीवन की सारी प्रतिस्पर्धाएँ कवेल वर्तमान जीवन के प्रति हमारी असंतुष्टि को ही दर्शाती हैं। व्यक्ति जितना संतोषी होगा उसकी प्रतिस्पर्धाएँ भी उतनी ही कम होंगी। अक्सर लोग़ भविष्य को सुखमय बनाने के पीछे वर्तमान को दुखमय बना देते हैं।
      लेकिन तब वो जीवन के इस साश्वत नियम को भी भूल जाते हैं कि भविष्य कभी नहीं आता, वह जब भी आयेगा वर्तमान बनकर ही आयेगा। याद रखना जिया सदैव वर्तमान में ही जाता है। अत: वर्तमान के भाव मे जियो ताकि भविष्य का भय मिट सके।

Wednesday, 12 September 2018

गौरी नंदन की आरती/ Gauri Nandan Ki Aarti

ॐ जय गौरी नंदन, प्रभु जय गौरी नंदन
गणपति विघ्न निकंदन, मंगल निःस्पंदन || ॐ जय ||

ऋद्धि सिद्धियाँ जिनके, नित ही चंवर करे
करिवर मुख सुखकारक, गणपति विघ्न हरे || ॐ जय ||

देवगणों में पहले तव पूजा होती
तब मुख छवि भक्तो के निदारिद खोती || ॐ जय ||

गुड़ का भोग लगत हैं कर मोदक सोहे
ऋद्धि सिद्धि सह-शोभित, त्रिभुवन मन मोहै || ॐ जय ||

लंबोदर भय हारी, भक्तो के त्राता
मातृ-भक्त हो तुम्ही, वाँछित फल दाता || ॐ जय ||

मूषक वाहन राजत, कनक छत्रधारी
विघ्नारण्यदवानल, शुभ मंगलकारी || ॐ जय ||

धरणीधर कृत आरती गणपति की गावे
सुख संपत्ति युक्त होकर वह वांछित पावे || ॐ जय ||





Om Jai Gauri Nandan, Prabhu Jai Gauri Nandan
Ganapati Vighna Nikandan, Mangal Nispandan || Om Jai ||

Ridhi Sidhiya Jinke, Nit Hi Chanwar Kare
Karivar Mukh Sukhkaarak, Ganapati Vighan Hae || Om Jai ||

Devganno Me Pehle Tav Pooja Hoti
Tab Mukh Chavi Bhakto Ke Nidaarid Khoti || Om Jai ||

Gud Ka Bhog Lagat Hain Akr Modak Sohe
Ridhi Sidhi Seh Shobhit, Tribhuvan Man Mohe || Om Jai ||

Lambodar Bhay Haari, Bhakto Ke Trata
Matra- Bhakt Ho Tumhi, Vaanchit Phal Daata || Om Jai ||

Mushak Vaahan Raajat, Kanak Chatradhaari
Vighnaaranyadavaanal, Subh Mangalkaari || Om Jai ||

Dharnidhar Krit Aarti Ganpati Ki Gaave
Sukh Sanpati Yukt Hokar Wah Vaanchit Paave || Om Jai ||

कर ले तू प्राणायाम

कर ले तू प्राणायाम...

कर ले तू प्राणायाम, सब रोग दूर हो जाएगा ।
रोना नही होगा, जीवन खुशियों से भर जाएगा ।।

जीवन तुम्हारा दुर्भर है आज, कल तू ही इतराएगा।
आज तुझे विश्वास नहीं, कल दुनिया को बतलाएगा ।।
करले तू प्राणायाम……


पांच मिनट भास्त्रिका करले, रक्त शुद्ध हो जायेगा ।
सर्दी जुकाम एलर्जी दूर, मन स्थिर हो जायेगा।।

पन्द्रह मिनट कपालभाती कर, मुखमंडल तेज हो जायेगा ।
गैस कब्ज, मधुमेह सहित, मोटापा दूर हो जाएगा ।
कर ले तू प्राणायाम …..

पांच बार बाह्य प्राणायाम कर, चंचलता दूर हो जायेगा ।
उदर रोग सब दूर होकर , जठराग्नि प्रदीप्त हो जायेगा ।।

दस मिनट अनुलोम-विलोम कर, सिरदर्द ठीक हो जायेगा ।
नकारात्मक चिन्तन से दूर, आनंद, उत्साह बढ़ जायेगा ।।
कर ले तू प्राणायाम……


ग्यारह बार भ्रामरी कर , सब तनाव दूर हो जायेगा ।
रक्तचाप हृदय रोग सहित, उत्तेजना मिट जाएगा ।।

इक्कीस बार ओंकार जनकर, अनिद्रा रोग ठीक हो जायेगा ।
बुरे स्वप्नों से छुटकारा पाकर, ध्यान तेरा लग जायेगा ।।
कर ले तू प्राणायाम……

तीन बार नाड़ी शोधन कर, रक्त संचार ठीक हो जायेगा ।
बहरापन, लकवारोग मिटे, ऑक्सीजन बढ़ जायेगा ।।

पांच बार उज्जायी कर, गला मधुर हो जायेगा।
सर्दी जुकाम सहित, हकलाना, ठीक हो जायेगा ।।
कर ले तू प्राणायाम……



ग्यारह बार शीतकारी कर , पायरिया दूर हो जाएगा ।
दंत रेाग दूर होकर, शीतल शरीर हो जायेगा ।।

ग्यारह बार शीतली कर, भूख प्यास मिट जायेगा ।
मुंह गले के रोग सहित, पित्त रेाग मिट जायेगा ।।
कर ले तू प्राणायाम……

तीन बार सिंहासन कर ले, दर्द गले का ठीक हो जायेगा ।
अंत में हृस्यासन कर ले, हंसते जीवन बीत जायेगा।।

कर ले तू प्राणायाम, सब रोग दूर हो जाएगा ।
रोना नही होगा, जीवन खुशियों से भर जाएगा ।।

ॐ शांति ॐ

आज का भगवत चिंतन/ Aaj ka bhagwat chintan


       जीवन में कष्ट सहने की क्षमता तो रखो मगर इसे कष्टकर ना बनाओ। जीवन को पर-पीड़ा में लगाने में भी कष्ट मिलता है और पर-पीड़ा दायक बनाने से भी कष्ट ही मिलता है।
       मगर एक कष्ट जहाँ आपको परोपकार रुपी सुख का आंनद देता है' वहीँ दूसरा कष्ट सम्पूर्ण जीवन को ही कष्ट कारक व पीड़ा दायक बना देता है। कष्ट कारक नहीं कष्ट निवारक बनो। पीड़ा दायक नहीं प्रेम दायक बनो।
       जीवन को क्षणभंगुर समझने का मतलब यह नहीं कि कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा विषयोपभोग कर लिया जाए, बल्कि यह है कि फिर दुवारा अवसर मिले ना मिले इसलिए इस अवसर का पूर्ण लाभ लेते हुए इसे सदकर्मों में व्यय किया जाए।

जय श्रीराधे कृष्णा

Monday, 10 September 2018

लफ्जो की जुबानी दिल की कहानी


रात आती भी है और जाने किधर जाती है।
कभी नींद कभी ख्वाब मनाने में गुजर जाती है।
शाम होते ही सब चले जाते हैं अपने अपने घर।
एक तन्हाई सिरहाने चुपके से ठहर जाती है।
वो बात याद आये जिसमें वादे थे बहुत।
बनकर नश्तर जाने क्यों सीने में उतर जाती है।
करती है लम्बी उम्र का वादा ये जिन्दगी।
कोई हादसा हो जाये तो झट से मुकर जाती है।
बड़ा अजीब सा रिश्ता है दिल और आँख का।
कसक दिल में होती है और आँख भर जाती है।


 शुभ रात्रि/ Good Night

क्रोध किन-किन चीज़ों पर निकलता है


एक फकीर था नान इन . उसके पास एक आदमी मिलने आया . वह बड़े क्रोध में था . घर में कुछ झगड़ा हो गया होगा पत्नी से . क्रोध में चला आया .

आकर जोर से दरवाजा खोला . इतने जोर से कि दरवाजा दीवाल से टकराया . और क्रोध में ही जूते उतारकर रख दिए . भीतर गया . नान इन को झुककर नमस्कार किया .

नान इन ने कहा कि तेरा झुकना , तेरा नमस्कार स्वीकार नहीं है . तू पहले जाकर दरवाजे से क्षमा मांग और जूते पर सिर रख ; अपने जूते पर सिर रख और क्षमा मांग .

उस आदमी ने कहा आप क्या बात कर रहे हैं ! दरवाजे में कोई जान है जो क्षमा मांगूं ! जूते में कोई जान है , जो क्षमा मांगू .

नान इन ने कहा : जब इतना समझदार था , तो जूते पर क्रोध क्यों प्रगट किया ? जूते में कोई जान है , जो क्रोध प्रगट करो ! तो दरवाजे को इतने जोर से धक्का क्यों दिया ? दरवाजा कोई तेरी पत्नी है ? तू जा . जब क्रोध करने के लिए तूने जान मान ली दरवाजे में और जूते में, तो क्षमा मांगने में अब क्यों कंजूसी करता है ?

उस आदमी को बात तो दिखायी पड़ गयी . वह गया , उसने दरवाजे से क्षमा मांगी . उसने जूते पर सिर रखा और क्षमा मांगी .

उस आदमी ने कहा कि इतनी शांति मुझे कभी नहीं मिली थी . जब मैंने अपने जूते पर सिर रखा , मुझे एक बात का दर्शन हुआ कि मामला तो मेरा ही है .

लोग बिलकुल अप्रौढ़ हैं .
बच्चों की भांति हैं .
आप दुख के कारण नहीं देखते .
दुख के कारण , सदा तुम्हारे भीतर हैं .
दुख बाहर से नहीं आता ,
और नर्क पाताल में नहीं है .

नर्क तुम्हारे ही अचेतन मन में है . वही है पाताल .
और स्वर्ग कहीं आकाश में नहीं है .
तुम अपने अचेतन मन को साफ कर लो कूड़े करकट से , वहीं स्वर्ग निर्मित हो जाता है .

स्वर्ग और नर्क तुम्हारी ही भावदशाएं हैं और तुम ही निर्माता हो . तुम ही मालिक हो

शिवजी को प्रसन्न कर लिया

एक महिला ने तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न कर लिया !
शिवजी:-  मैं प्रसन्न हूं, एक वरदान मांगो.
महिला:-  प्रभु एक नही मुझे तीन चाहिए.
शिवजी:- ठीक है, पर एक शर्त पर ।  तुम्हे जो दुंगा ,उसके दस गुना मैं तुम्हारी सास को दूंगा
(शिवजी को लगा वह महिला आना कानी करेगी परन्तु)
महिला:- चलेगा.

वरदान न01:- मुझे 100 करोड़ डालर दिजीए?
शिवजी:- दिया (सास को दस गुना मिला)

वरदान न02:-  मुझे सबसे सुंदर बनाओ
शिवजी :- ठीक है बना दिया . (सास दस गुना सुंदर हो गयी)

वरदान न03:- मुझे एक हल्का सा हार्ट अटैक दो.
(सास को दस गुना तेज झटका.धडा ...धड..... धडा ....धड..सास सीधे उपर)
अब सब कुछ बहुरानी का........ है

तब से शिवजी त्रिशुल लेकर उस व्यक्ति को ढूंढ रहे है जिसनें कहा," औरतों के पास दिमाग नहीं होता "

कल-युग " में रहें कोई बात नहीं मगर " कल-युग " आप में ना रहे

आज का भगवद चिंतन ॥
               
       किसी भी कार्य को समय पर न कर उसे " कल " पर छोड़ देना यह आज के आदमी का स्वभाव बन गया है। शायद इसीलिए इस युग का नाम " कल युग " यानि कलियुग रखा गया है। कलयुग यानि वो युग जिसमें प्रत्येक आदमी अपने काम को कल पर टाल दे। कलयुग यानि वो युग जिसमें आदमी अपने वर्तमान को बेचकर, वर्तमान का दुरूपयोग कर भविष्य में सुख से जीने की कल्पना करता है।
       कार्य कोई भी क्यों ना हो, चाहे वो व्यवसाय का हो, आत्मसुधार का हो, पुण्यार्जन करने का हो चाहे अन्य सामजिक कार्य हो, आज मेरे पास समय नहीं है, मै कल इस काम को जरूर करूँगा। यह बार-बार उच्चारण करना अब हमारी आदत बन गई है।
       अगर आप भी अपने कार्यों को " कल " के भरोसे छोड़ देने के आदी हैं तो फिर समझ लेना आप जीवन में बहुत कुछ खोने जा रहे हो। सत्कर्मों, शुभकर्मों और अपने कार्यों को आज और अभी से अपने जीवन में स्थान दें। आप " कल-युग " में रहें कोई बात नहीं मगर " कल-युग " आप में ना रहे।


Sunday, 9 September 2018

छठी के दूध का महत्व

छठी के दूध  के बारे में सुना है

छठिहार क्यूँ होता है,,,?ये बात हर कोई जानना चाहेगा,,
क्यूंकि यदा कदा लोग ये सवाल उठाते रहते हैं,,,,
बात कन्हैया की जन्म पश्चात की है,,बडा ही मनोरम समय था हर तरफ संगीत और बधाई के गीत बज रहे थे,,सारा नन्द ग्राम फूलों से सजा हुआ था,,हो भी क्यों न ,,आज कान्हा का छठा दिन जो था,,परन्तु ये क्या ,कनहा तो जोर जोर से रोये जा रहा था,,,हर कोई लल्ला को चुप करने का प्रयास कर रहा था,,मगर सब विफल... देव गण भी  प्रभू की ये लीला देख अचंभित थे,,देवों ने ब्रह्मा जी से निराकरण के लिए कहा तो ब्रह्मा जी ने,,शक्ति स्वरूपणी महामाया को भेज दिया ,,,कान्हा को चुप करने के लिए,,ये सुनके
महामाया आनंदित हो गई इस कार्य को पाकर ,,,,और भांति भांति के रूप बदल कर लल्ला को चुप करने की प्रयास करने लगी ,,,कभी फूल बनती तो कभी पक्षी ,,,,कभी इधर जाती तो कभी उधर जाती,,,,लल्ला चुप ,,सबको शांति मिली,,,लेकिन लल्ला अपनी सर को कभी इधर तो कभी उधर क्यों कर रहा है,,,फिर खुद ही मुस्कुरा रहा है,,,दरअसल माया की माया सिर्फ प्रभू देख रहे थे और कोई नहीं,,,और फिर लल्ला रोने लगे,,,तो माया ने कहा की हे ब्रह्मा जी प्रभू को भूख लगी है,,,और मैया को दूध नहीं आ रहा,, यही है प्रभु की रोने का कारन,। फिर ब्रह्मा जी के आशीर्वाद से यसोदा को छाती में दर्द महसूस हुआ,,,देखा तो दूध टपक रहा है,,,मैया ने झट से कान्हा को गोद में उठाई और छाती से लगा ली ,,दूध मुह में जाते ही लल्ला चुप हो गए,,,देव मानव सब हर्षित हो गए,,,परन्तु माया गुमसुम हो गई..ब्रह्मा जी से ये छुपा ना रहा ,,,पूछा की क्या बात है?,,महामाया ने कहा की मुझे इसमें बड़ा आनंद आ रहा था,,ब्रह्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा ये बात है,,,आज से तुम छठी के रूप में हर बच्चे के छठे दिन पूजी जाओगी,,,साज सजावट और गीत संगीत से तुम्हारा स्वागत होगा,,और बिना किसी को दिखाई दिए हर बच्चे के साथ तुम आनंद कर पाओगी ,,,माया ने कहा की आपका बहुत बहुत धन्वाद प्रभु ,,चुकी आपके आशीर्वाद से यशोदा को दूध आया ,,,इसीलिए,,,छठी के दिन माँ के दूध पिने से बच्चे को वो दूध अमृत के सामान उपकारी हो और हर तरह के कष्ट को दूर करने वाली हो,ऐसा वर दें ,,,,तथास्तु ,,कह के ब्रह्मा जी अलक्षित हो गए,,,और तब से छठी पूजन (छठिहार)का प्रचलन है,,,और छठी के दूध का एक अलग महत्व है,

बड़े आदमी नहीं महामानव बनें

शीघ्रता नहीं

        उत्तम रीती अंग्रेजी भाषा में प्रख्यात साहित्यकार बुल्वर लिटन शौकिया तौर पर ही लिखा करते थे* लेकिन उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह इतना श्रेष्ठ था कि उसके कारण लिटन की गणना अंग्रेजी के अग्रणी लेखकों में की जाती है। *एक बार किसी ने उनसे इसका रहस्य पूछा तो लिटन ने कहा कि "मैं कभी शीघ्रतापूर्वक बहुत अधिक काम कर डालने की कोशिश नहीं करता बल्कि उसे उत्तम रीति से करना ही ज्यादा पसंद करता हूँ। अगर आज अपनी शक्ति से अधिक काम कर डाला जाए तो कल तक थकान आ जाएगी और फिर थोड़ा-सा काम भी ठीक ढंग से नहीं हो सकेगा।

       जब मैंने कालेज छोड़ा और सांसारिक कामों में पड़ा तो उसके पहले वास्तव में मैंने ऐसे कामों का कोई अध्ययन नहीं किया था। लेकिन इसके बाद मैं पढ़ने लगा और मेरा विश्वास है कि मैंने सामान्य लोगों से कम नहीं पढ़ा। मैंने बहुत-सी दूर-दूर देशों की यात्राएँ कीं, राजनीति में भाग लिया और उद्योग धंधों में भी समय बिताया। फिर भी साठ से अधिक किताबें लिख डालीं। आपको विश्वास नहीं होगा कि मैंने इस पढ़ने-लिखने में कभी तीन घंटे से अधिक समय खर्च नहीं किया। लेकिन इन तीन घंटों में जो भी पढ़ता-लिखता था वह पूरी एकाग्रता, तन्मयता और तत्परता के साथ।"

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 बड़े आदमी नहीं महामानव बनें,

Saturday, 8 September 2018

श्री महावीर तीर्थंकर चालीसा/ Shri Mahaveer Swami Teerthankar Chalisa

दोहा
शीश नवा अरिहन्त को, सिद्धन करूँ प्रणाम।
उपाध्याय आचार्य का, ले सुखकारी नाम।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार।
महावीर भगवान को, मन-मन्दिर में धार।

चौपाई
जय महावीर दयालु स्वामी, वीर प्रभु तुम जग में नामी।
वर्धमान है नाम तुम्हारा, लगे हृदय को प्यारा प्यारा।
शांति छवि और मोहनी मूरत, शान हँसीली सोहनी सूरत।
तुमने वेश दिगम्बर धारा, कर्म-शत्रु भी तुम से हारा।

क्रोध मान अरु लोभ भगाया, महा-मोह तुमसे डर खाया।
तू सर्वज्ञ सर्व का ज्ञाता, तुझको दुनिया से क्या नाता।
तुझमें नहीं राग और द्वेष, वीर रण राग तू हितोपदेश।
तेरा नाम जगत में सच्चा, जिसको जाने बच्चा बच्चा।

भूत प्रेत तुम से भय खावें, व्यन्तर राक्षस सब भग जावें।
महा व्याध मारी न सतावे, महा विकराल काल डर खावे।
काला नाग होय फन धारी, या हो शेर भयंकर भारी।
ना हो कोई बचाने वाला, स्वामी तुम्हीं करो प्रतिपाला।

अग्नि दावानल सुलग रही हो, तेज हवा से भड़क रही हो।
नाम तुम्हारा सब दुख खोवे, आग एकदम ठण्डी होवे।
हिंसामय था भारत सारा, तब तुमने कीना निस्तारा।
जनम लिया कुण्डलपुर नगरी, हुई सुखी तब प्रजा सगरी।

सिद्धारथ जी पिता तुम्हारे, त्रिशला के आँखों के तारे।
छोड़ सभी झंझट संसारी, स्वामी हुए बाल-ब्रह्मचारी।
पंचम काल महा-दुखदाई, चाँदनपुर महिमा दिखलाई।
टीले में अतिशय दिखलाया, एक गाय का दूध गिराया।

सोच हुआ मन में ग्वाले के, पहुँचा एक फावड़ा लेके।
सारा टीला खोद बगाया, तब तुमने दर्शन दिखलाया।
जोधराज को दुख ने घेरा, उसने नाम जपा जब तेरा।
ठंडा हुआ तोप का गोला, तब सब ने जयकारा बोला।

मंत्री ने मन्दिर बनवाया, राजा ने भी द्रव्य लगाया।
बड़ी धर्मशाला बनवाई, तुमको लाने को ठहराई।
तुमने तोड़ी बीसों गाड़ी, पहिया खसका नहीं अगाड़ी।
ग्वाले ने जो हाथ लगाया, फिर तो रथ चलता ही पाया।

पहिले दिन बैशाख बदी के, रथ जाता है तीर नदी के।
मीना गूजर सब ही आते, नाच-कूद सब चित उमगाते।
स्वामी तुमने प्रेम निभाया, ग्वाले का बहु मान बढ़ाया।
हाथ लगे ग्वाले का जब ही, स्वामी रथ चलता है तब ही।

मेरी है टूटी सी नैया, तुम बिन कोई नहीं खिवैया।
मुझ पर स्वामी जरा कृपा कर, मैं हूँ प्रभु तुम्हारा चाकर।
तुम से मैं अरु कछु नहीं चाहूँ, जन्म-जन्म तेरे दर्शन पाऊँ।
चालीसे को चन्द्र बनावे, बीर प्रभु को शीश नवावे।

सोरठा
नित चालीसहि बार, पाठ करे चालीस दिन।
खेय सुगन्ध अपार, वर्धमान के सामने।।
होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो।
जिसके नहिं संतान, नाम वंश जग में चले।।

आज के विचार/ Thoughts Of The Day

गन्ने में जहाँ गाँठ होती है वहां रस नहीं होता
जहाँ रस होता है वहाँ गाँठ नहीं होती।
बस जीवन भी ऐसा ही है- यदि मन में किसी के लिये नफरत की गाँठ होगी तो हमारा जीवन भी बिना रस का बन जायेगा.....
और
जीवन का रस बनाये रखना हो तो नफरत की गाँठ को निकालना ही होगा.....






ईश्वर हमें दर्शन जरुर देते है

एक गाँव में एक बूढ़ी माई रहती थी । माई का आगे – पीछे कोई नहीं था इसलिए बूढ़ी माई बिचारी अकेली रहती थी । एक दिन उस गाँव में एक संत आए । बूढ़ी माई ने महात्मा जी का बहुत ही प्रेम पूर्वक आदर सत्कार किया । जब महात्मा जी जाने लगे तो बूढ़ी माई ने कहा – “ महात्मा जी ! आप तो ईश्वर के परम भक्त है । कृपा करके मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिये जिससे मेरा अकेलापन दूर हो जाये । अकेले रह – रह करके उब चुकी हूँ ”

तब उन महात्मा ने मुस्कुराते हुए अपनी झोली में से बाल – गोपाल की एक मूर्ति निकाली और बुढ़िया माई को देते हुए कहा – “ माई ये लो आपका बालक है, इसका अपने बच्चे की तरह प्रेम पूर्वक लालन-पालन करती रहना।

 बुढ़िया माई बड़े लाड़-प्यार से ठाकुर जी का लालन-पालन करने लगी।

एक दिन गाँव के कुछ शरारती बच्चों ने देखा कि माई मूर्ती को अपने बच्चे की तरह लाड़ कर रही है । नटखट बच्चो को माई से हंसी – मजाक करने की सूझी

  उन्होंने माई से कहा - "अरी मैय्या सुन ! आज गाँव में जंगल से एक भेड़िया घुस आया है, जो छोटे बच्चो को उठाकर ले जाता है। और मारकर खा जाता है । तू अपने लाल का ख्याल रखना, कही भेड़िया इसे उठाकर ना ले जाये !

बुढ़िया माई ने अपने बाल-गोपाल को उसी समय कुटिया मे विराजमान किया और स्वयं लाठी (छड़ी) लेकर दरवाजे पर पहरा लगाने के लिए बैठ गयी।

अपने लाल को भेड़िये से बचाने के लिये बुढ़िया माई भूखी -प्यासी दरवाजे पर पहरा देती रही। पहरा देते-देते एक दिन बीता, फिर दुसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवा दिन बीत गया।

बुढ़िया माई पाँच दिन और पाँच रात लगातार, बगैर पलके झपकाये -भेड़िये से अपने बाल-गोपाल की रक्षा के लिये पहरा देती रही। उस भोली-भाली मैय्या का यह भाव देखकर, ठाकुर जी का ह्रदय प्रेम से भर गया, अब ठाकुर जी को मैय्या के प्रेम का प्रत्यक्ष रुप से आस्वादन करने की इच्छा हुई ।

भगवान बहुत ही सुंदर रुप धारण कर, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर माई के पास आये। ठाकुर जी के पाँव की आहट पाकर माई ड़र गई कि "कही दुष्ट भेड़िया तो नहीं आ गया, मेरे लाल को उठाने !" माई ने लाठी उठाई और भेड़िये को भगाने के लिये उठ खड़ी हूई ।

तब श्यामसुंदर ने कहा – “मैय्या मैं हूँ, मैं तेरा वही बालक हूँ -जिसकी तुम रक्षा करती हो!"

माई ने कहा - "क्या ? चल हट तेरे जैसे बहुत देखे है, तेरे जैसे सैकड़ो अपने लाल पर न्यौछावर कर दूँ, अब ऐसे मत कहियो ! चल भाग जा यहा से ।

ठाकुर जी मैय्या के इस भाव और एकनिष्ठता को देखकर बहुत ज्यादा प्रसन्न हो गये । ठाकुर जी मैय्या से बोले - "अरी मेरी भोली मैय्या, मैं त्रिलोकीनाथ भगवान हूँ, मुझसे जो चाहे वर मांग ले, मैं तेरी भक्ती से प्रसन्न हूँ"

बुढ़िया माई ने कहा - "अच्छा आप भगवान हो, मैं आपको सौ-सौ प्रणाम् करती हूँ ! कृपा कर मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरे प्राण-प्यारे लाल को भेड़िया न ले जाय" अब ठाकुर जी और ज्यादा प्रसन्न होते हुए बोले - "तो चल मैय्या मैं तेरे लाल को और तुझे अपने निज धाम लिए चलता हूँ, वहाँ भेड़िये का कोई भय नहीं है।" इस तरह प्रभु बुढ़िया माई को अपने निज धाम ले गये।

भगवान को पाने का सबसे सरल मार्ग है, भगवान को प्रेम करो - निष्काम प्रेम जैसे बुढ़िया माई ने किया....

हमें अपने अन्दर बैठे ईश्वरीय अंश की काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी भेड़ियों से रक्षा करनी चाहिए ।

जब हम पूरी तरह से तन्मय होकर अपनी पवित्रता और शांति की रक्षा करते है तो एक न एक दिन ईश्वर हमें दर्शन जरुर देते है

Friday, 7 September 2018

शाकम्भरी देवी आरती






हरी ॐ श्री शाकुम्भरी अम्बा जी की आरती कीजो

ऐसी अदभुत रूप ह्रदय धर लीजो

शताक्षी दयालु की आरती कीजो

तुम परिपूर्ण आदि भवानी माँ, सब घट तुम आप बखानी माँ

शाकुम्भरी अम्बा जी की आरती कीजो

 तुम्ही हो शाकुम्भर, तुम ही हो सताक्षी माँ

शिवमूर्ति माया प्रकाशी माँ,

शाकुम्भरी अम्बा जी की आरती कीजो

 नित जो नर – नारी अम्बे आरती गावे माँ

इच्छा पूर्ण कीजो, शाकुम्भर दर्शन पावे माँ

शाकुम्भरी अम्बा जी की आरती कीजो

 जो नर आरती पढ़े पढावे माँ, जो नर आरती सुनावे माँ

बस बैकुंठ शाकुम्भर दर्शन पावे

शाकुम्भरी अंबा जी की आरती कीजो

नैना देवी की आरती/ Naina Devi Ki Aarti

तेरा अद्भुत रूप निराला, आजा! मेरी नैना माई ए |
तुझपे तन मन धन सब वारू, आजा मेरी नैना माई ए ||
सुन्दर भवन बनाया तेरा, तेरी शोभा न्यारी |
नीके नीके खंभे लागे, अद्बूत चित्र कारी |
तेरा रंग बिरंगा द्वार ||
झाँझा और मृदंगा बाजे, और बाजे शहनाई |
तुराई नगाड़ा ढोलक बाजे, तबला शब्द सुनाई |
तेरे द्वारे नौबत बाजे ||
पीला चोला जरद किनारी, लाल ध्वजा फेहराई |
सिर लालों दा मुकुट विराजे, निगाह नही ठहराए |
तेरे रूप ना वरना जाए ||
पान सुपारी ध्वजा, नारियल भेंट तिहारी लागे |
बालक बूढ़े नर नारी की, भीड़ खड़ी तेरे आगे |
तेरी जय जयकार मानवे ||
कोई गाए कोई बजाए, कोई ध्यान लगाए |
कोई बैठा तेरे आँगन में, नाम की टेर सुनाए ।
कोई नृत्य करे तेरे आगे ||
कोई माँगे बेटा बेटी, किसी को कंचन माया |
कोई माँगे जीवनसाथी, कोई सूंदर काया |
भगत कृपा तेरी माँगे ||



Tera Adbhut Roop Nirala, Aaja! Meri Naina Maayi Ae |
Tujhpe Tan Man Dhan Sab Vaaru, Aaja Meri Naina Maayi Ae ||
Sunder Bhawan Banaya Tera, Teri Shobha Nyaari |
Nike Nike Khambhe Laage, Adbut Chitra kaari |
Tera Rang Biranga Dwar ||
Zhaanzha Aur Mirdanga Baaje, Aur Baaje Shahnai |
Turayi Nagaada Dholak Baaje, Tabla Shabd Sunaayi |
Tere Dware Naubat Baaje ||
Peela Chola Jarad Kinari, Lal Dhwaja Fehrai |
Sir Laalon Daa Mukut Viraje, Nigah Nahi Thehraye |
Tere Roop Na Warna Jaye ||
Paan Supari Dwaja, Nariyal Bhent Tihari Lage |
Baalak Buddhe Nar Nari Ki, Bheed Khadi Tere Aage |
Teri Jai Jaikar Manave ||
Koi Gaaye Koi Bajaye, Koi Dhyan Lagaye |
Koi Baitha Tere Aangan Mein, Naam Ki Teair Sunaye |
Koi Nritya Kare Tere Aage ||
Koi Mange Beta Beti, Kisi Ko Kanchan Maya |
Koi Mange Jeevansathi, Koi Sunder Kaya |
Bhagat Kripa Teri Maange ||

Thursday, 6 September 2018

ह्दय में प्रभुभक्ति


एक बार रहीम के मन में जिज्ञासा हुई कि कोई व्यक्ति गृहस्थी के जंजाल में फंसे रहकर भी भगवद्भक्ति कैसे कर सकता है ?

गृहस्थी और प्रभु भक्ति तो परस्पर विपरीत हैं।एक बिलकुल लौकिक औऱ दूसरी अलौकिक।दोनों का एक साथ निबाह कैसे संभव है ?

उन्होंने तुलसीदास को, जोउस समय चित्रकूटमें थे,यह दोहा लिखा-     
              चलन चहत संसार की मिलन चहत करतार।                        दो घोड़े की सवारी कैसे निभे सवार।।।   

          सांसारिक चलन में चलकर भी उस करतार से मिलने का प्रयास करना दो घोड़ों की सवारी नही है?         

                       हरकारा रहीम का यह संदेश लेकर आगरा से चला और चित्रकूट पहुँचकर गोस्वामी जी के.चरणों मे प्रणाम कर उन्हें रहीम की प्रश्न पाती सौंपी

तुलसीदास ने पहले तो अपने परममित्र के पत्र को सम्मान पूर्वक सिर से लगाया औऱ उसका उत्तर लिखा-       

            चलत -चलत संसार की हरि पर राखो टेक।।                        तुलसी यूं निभ जाएंगे दो घोड़े रथ एक।।

     अर्थात हमारे हाथ औऱ मस्तिष्क संसार के कर्म करें और ह्दय प्रभुभक्ति में लीन हो तो गृहस्थ रहकर भी हरिभक्ति संभव है।

जय जय श्री राधे

शुभ प्रभात/ Good Morning

" जो रिश्ते सच में गहरे होते हैं वो कभी अपनेपन का शोर नहीं मचाते...

          सच्चे रिश्ते शब्दों से नहीं दिल और आंखो से बात करते हैं..

          यूँ ही नहीं आती,
          खूबसूरती रंगोली में ।

           अलग-अलग रंगो को
          "एक" होना पड़ता है।

      शुभ प्रभात/ Good Morning

Wednesday, 5 September 2018

दायित्वों से मुक्त

एक गिद्ध था। उसके माता- पिता अंधे थे।सारा परिवार पर्वत की एक कोटर में रहता था।गिद्ध रोज सूर्योदय पर निकल जाता अपना पेट भरता और अपने अंधे बूढ़े माता-पिता के लिए भी खोज- खोज कर मांस के टुकड़े लाता था ।बहुत दिनों तक यह क्रम चलता रहा किंतु सब दिन जात न एक समान।

एक दिन नदी के किनारे बहेलिये ने जाल डाला और गिद्ध आकर उसमें फंस गया।वह तड़फड़ाया, मगर उसकी सब कोशिशें बेकार रही। गिद्ध को अपने जाल में फंस जाने का संताप इतना नहीं था जितना उसे अपने माता-पिता के भूखों मर जाने का भय था। वह जोर जोर से विलाप करने लगा।बहेलिए का ध्यान उधर गया।

उसने गिद्ध के पास जाकर पूछा कि वह क्यों परेशान है? दूसरे गिद्ध तो रोते  नहीं हैं, वह अकेला ही क्यों जमीन आसमान एक कर रहा है? गिद्ध ने अपनी व्यथा कही। बहेलिए ने ताना मारा-"  रे गिद्ध! तेरी बात मेरी समझ में नहीं आई है। गिद्धों की दृष्टि तो इतनी तेज होती है कि सौ योजन आसमान से भी मुर्दा चीजों को देख लेती हैं, लेकिन तू तो निकट बिछे जाल को भी नहीं देख पाया है,ऐसा गजब कैसे हो गया?"

इस पर गिद्ध बोला- "बहेलिये! बुद्धि की लगाम जब तक अपने हाथ में रहती है, तब तक मनुष्य प्रपंच में नहीं फंसता किन्तु जब बुद्धि पर लोभ का अधिकार हो जाता है, तो थोड़ा रास्ता भूल जाता है और अपने साथ सवार को भी ले डुबोता है।जीवन भर मांस पिंड के पीछे ही भागते-भागते मेरी नजर में मांस पिंड ही सर्वस्व बन गए हैं। उनके सिवाय मुझे और कुछ दिखलाई ही नहीं पड़ता है। दृष्टि जब इतनी संकरी हो जाती है, तो सही रास्ता भी लुप्त हो जाता है।तेरे जाल को नहीं देख सकने का कारण यही है। लेकिन अब ज्ञान का उदय होने से क्या होगा?किए का फल भोगना ही पड़ेगा।"

बहेलिये को गिद्ध की बात भायी। उसने प्रसन्न होकर कहा-"गिद्धराज! जाओ, मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ। अपने अंधे माता- पिता की सेवा करो । तुमने आज मेरी भी आंखें खोल दी।"
ठीक यही भूल मनुष्य अपने जीवन में करता है ।जो पहले ही संभल जाता है,वह जीते जी अपने दायित्वों से मुक्त हो जाता है।


 प्रज्ञा पुराण कथा, खंड /4
 पं०श्रीराम शर्मा 'आचार्य'

सुप्रभात्/ Good morning

अपनों पर भी उतना ही विश्वास रखो जितना दवाइयों पर रखते हो..

बेशक थोड़े कड़वे होंगे पर आपके फ़ायदे के लिए होंगे...

 गलती नीम की नहीं कि वो कड़वा है खुदगर्जी जीभ की है जिसे मीठा पसंद है..!

         

सुप्रभात्/ Good morning 

संस्कार / Sanskar

संस्कार

 हम अपूर्ण महसूस ही इसलिए करते है कि हम पूर्णता की ओर बढे। अपूर्णता से परिपूर्णता की ओर बढ़ना ही जीवन है। जो हम नहीं कर सके है उनको संकल्प में लेकर करना ही पूर्णता है।

 ज्यादा सोचना, हताशा या अपने आप को कमजोर (अपूर्ण) महसूस करते रहना हमारा जीवन नहीं... पूर्णता की ओर... संकल्पो की ओर... प्राप्ति की ओर आगे बढ़ना हमारा जीवन है... लक्ष है...

 एक अच्छी जीवात्मा अशुभ संस्कारों को त्याग कर शुभ संस्कार से परिपूर्णता की ओर बढ़ती है। जीवन अगर अनित्य चीजों के पीछे रहेगा तो अपूर्णता निश्चित है नित्य से परिपूर्णता प्राप्त होगी और वह नित्य परमात्मा परब्रह्म हैं।

सुप्रभात्/ Good morning

कमरा कितना भी साफ हो
 "धूल" तो हो ही जाती है,

इंसान कितना भी अच्छा हो
 "भूल" तो हो ही जाती

"मैं अपनी  'ज़िंदगी' मे हर किसी   को 'अहमियत' देता हूँ...
क्योंकि जो 'अच्छे' होंगे वो 'साथ' देंगे...
और जो 'बुरे' होंगे वो 'सबक' देंगे...!!

जिंदगी जीने के लिए सबक
 और साथ दोनों जरुरी होता है।

सुप्रभात्

Tuesday, 4 September 2018

नवधा भक्ति


1. श्रवण, 2. कीर्तन, 3. स्मरण, 4. पादसेवन, 5. अर्चन, 6. वंदन, 7. दास्य, 8. सख्य और आत्मनिवेदन - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।


इस तरह समझें नवधा भक्ति के प्रकार 



श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।
पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
आत्मनिवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।


श्री राम चरित मानस में नवधा भक्ति 

नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं।।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।

गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।

मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।

छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।

आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।

नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।।

शीतकारी प्राणायाम/ Sheetkari Pranayam


योग करना शरीर के लिए बेहद फायदेमंद है| योग बहुत ही विस्तारित है| योग के आठ अंग होते है उन्ही में से चौथा अंग है प्राणायाम। प्राणायाम को दो शब्दों से मिलकर बनाया गया है  प्राण+आयाम। प्राण का अर्थ जीवात्मा वही आयाम के दो अर्थ है- प्रथम नियंत्रण और दूसरा रोकना


प्राणायाम कई तरह के होते है| उन्ही में एक है शीतकारी प्राणायाम| यह एक बेहद ही सरल प्राणायाम है। यह हमारे शरीर को शीतलता प्रदान करता है| यह शरीर की भीतरी सफाई कर इसे शुद्ध बनता हैं|


शीतकारी प्राणायाम करने की विधि :- 

 

शीतकारी प्राणायाम को करने के लिए सबसे पहले सिद्धासन की मुद्रा में बैठ जाये इसके पश्चात नीचे के दांतों को ऊपर के जबड़े के दांतों पर रख दे| अब दांतों के पीछे जीभ को लगाये और अपने मुंह को थोडा सा खोले ताकि सांसों को मुख के अन्दर लाया जा सके| अब धीरे से मुंह से साँस को अंदर की और रोक कर रखे फिर बाद में नाक से निकाल दें|

 

शीतकारी प्राणायाम के लाभ:-

 

·       शीतकारी प्राणायाम करने से शरीर में स्थित अतिरिक्त गर्मी दूर हो जाती है और पेट में जलन नहीं होती है|

·       यह शरीर की भीतरी सफाई कर इसे शुद्ध बनाने में मददगार है| इसलिए जिन लोगो को अधिक पसीना आने की परेशानी हो वो दूर होती है|

·       इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से शरीर में शुद्ध वायु का संचार होता हैं| इससे शरीर में ऑक्सीजन की कमी नहीं होती हैं जिससे पुरे दिन शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है।

·       यह प्राणायाम आपके चेहरे की सुंदरता को बढ़ाता है। इससे चेहरे की सौंदर्य वृद्धि होती है|

·       इसके निरंतर अभ्यास से रात में नींद अच्छी आती हैं| शारीरिक तेज में वृद्धि होती है। भूख-प्यास ना लगने की समस्या दूर होती है| इससे शरीर सतत स्फूर्तिवान बना रहता है।

·       यह रक्त को शुद्ध करता है। इसको करने से कई तरह के रोग जैसे दंत रोग, पायरिया, गले और मुंह के रोग, नाक और जीभ के रोगो से निजात मिलती है|

 

शीतकारी प्राणायाम करने में सावधानी :-

 

इस प्रणायाम को हमेशा खाली पेट ही करना चाहिए मुह में कफ टॉन्सिल के रोगियों को यह प्राणायाम बिलकुल नहीं करना चाहिए सर्दियों के मौसम में इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए खुली साफ जगह पर ही इसका अभ्यास करें धूल वाले स्थान से बचें।