स्वप्न दृष्टा तुम्ही हो और यह संसार तुम्हारा ही स्वप्न है। जिस समय तुम इस ज्ञान को अपनी हृदय में स्थिर कर लोगे उसी समय मुक्त हो जाओगे।
साधू को फलाहारी, लवण त्यागी, दुग्धाहारी, या मौनी हो कर नही रहना चाहिए। । इससे व्यर्थ अभिमान होता है।
1. संसार मिथ्या है , यह मन्द ज्ञान की धारणा है।
2. संसार स्वप्नवत् है यह मध्यम ज्ञान की धारणा है।
3. संसार का अत्यंताभाव है अर्थात संसार कभी हुआ ही नही। यह उत्तम ज्ञानी की धारणा है।
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