जिन्दगी जीने की समस्या (भाग 3)
यह संसार एक कर्म भूमि है, व्यायामशाला है, विद्यालय है जिसमें प्रविष्ट होकर प्राणी अपनी आन्तरिक प्रतिभा को विकसित करता है और यह विकास ही अन्ततः आत्म कल्याण के रूप में परिणत हो जाता है। यह दुनियाँ भव बन्धन भी है, माया पाश भी है, नरक भी है, पर है उन्हीं के लिए जिनकी मनोभूमि अस्त-व्यस्त है जिनको जिन्दगी जीने की कला का ज्ञान नहीं है। सब के लिए यह दुनियाँ कुरूप नहीं है। दर्पण की तरह यह केवल उन्हें ही कुरूप दिखाई देती है जिनका अपना चेहरा बिगड़ा हुआ है।
महात्मा इमर्सन कहा करते थे, “मुझे नरक में भेज दो, मैं अपने लिए वही स्वर्ग बना लूँगा।” वे जानते थे कि दुनियाँ में चाहे कितनी ही बुराई और कमी क्यों न हो यदि मनुष्य स्वयं अपने आपको सुसंस्कृत बना ले तो उन बुराइयों की प्रतिक्रिया से बच सकता है। मोटर की कमानी-स्प्रिंग-बढ़िया हो तो सड़क के खड्डे उसको बहुत दचके नहीं देते। कमानी के आधार पर वह उन खड्डों की प्रतिक्रिया को पचा जाता है। सज्जनता में भी ऐसी ही विशेषता है, वह दुर्जनों को नंगे रूप में प्रकट होने का अवसर बहुत कम ही आने देती है। गीली लकड़ी को एक छोटा अंगारा जला नहीं पाता वरन् बुझ जाता है, दुष्टता भी सज्जनता के सामने जाकर हार जाती है।
फिर सज्जनता में एक दूसरा गुण भी तो है कि कोई परेशानी आ ही जाय तो उसे बिना सन्तुलन खोये, एक तुच्छ सी बात मानकर हँसते खेलते सहन कर लिया जाता है। इन विशेषताओं से जिसने अपने आपको अलंकृत कर लिया है उसका यह दावा करना उचित ही है कि “मुझे नरक में भेज दो मैं अपने लिए वही स्वर्ग बना लूँगा।” सज्जनता अपने प्रभाव से दुर्जनों पर भी सज्जनता की छाप छोड़ती ही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति,
यह संसार एक कर्म भूमि है, व्यायामशाला है, विद्यालय है जिसमें प्रविष्ट होकर प्राणी अपनी आन्तरिक प्रतिभा को विकसित करता है और यह विकास ही अन्ततः आत्म कल्याण के रूप में परिणत हो जाता है। यह दुनियाँ भव बन्धन भी है, माया पाश भी है, नरक भी है, पर है उन्हीं के लिए जिनकी मनोभूमि अस्त-व्यस्त है जिनको जिन्दगी जीने की कला का ज्ञान नहीं है। सब के लिए यह दुनियाँ कुरूप नहीं है। दर्पण की तरह यह केवल उन्हें ही कुरूप दिखाई देती है जिनका अपना चेहरा बिगड़ा हुआ है।
महात्मा इमर्सन कहा करते थे, “मुझे नरक में भेज दो, मैं अपने लिए वही स्वर्ग बना लूँगा।” वे जानते थे कि दुनियाँ में चाहे कितनी ही बुराई और कमी क्यों न हो यदि मनुष्य स्वयं अपने आपको सुसंस्कृत बना ले तो उन बुराइयों की प्रतिक्रिया से बच सकता है। मोटर की कमानी-स्प्रिंग-बढ़िया हो तो सड़क के खड्डे उसको बहुत दचके नहीं देते। कमानी के आधार पर वह उन खड्डों की प्रतिक्रिया को पचा जाता है। सज्जनता में भी ऐसी ही विशेषता है, वह दुर्जनों को नंगे रूप में प्रकट होने का अवसर बहुत कम ही आने देती है। गीली लकड़ी को एक छोटा अंगारा जला नहीं पाता वरन् बुझ जाता है, दुष्टता भी सज्जनता के सामने जाकर हार जाती है।
फिर सज्जनता में एक दूसरा गुण भी तो है कि कोई परेशानी आ ही जाय तो उसे बिना सन्तुलन खोये, एक तुच्छ सी बात मानकर हँसते खेलते सहन कर लिया जाता है। इन विशेषताओं से जिसने अपने आपको अलंकृत कर लिया है उसका यह दावा करना उचित ही है कि “मुझे नरक में भेज दो मैं अपने लिए वही स्वर्ग बना लूँगा।” सज्जनता अपने प्रभाव से दुर्जनों पर भी सज्जनता की छाप छोड़ती ही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति,
No comments:
Post a Comment