Friday, 31 August 2018

एहसास

रामायण कथा का एक अंश
जिससे हमे सीख मिलती है "एहसास" की...
 

श्री राम, लक्ष्मण एवम् सीता' मैया चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे,
राह बहुत पथरीली और कंटीली थी !
की यकायक श्री राम के चरणों मे कांटा चुभ गया !

श्रीराम रूष्ट या क्रोधित नहीं हुए, बल्कि हाथ जोड़कर धरती माता से अनुरोध करने लगे !
बोले- "माँ, मेरी एक विनम्र प्रार्थना है आपसे, क्या आप स्वीकार करेंगी ?"

धरती बोली- "प्रभु प्रार्थना नहीं, आज्ञा दीजिए !"

प्रभु बोले, "माँ, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज मे इस पथ से गुज़रे, तो आप *नरम* हो जाना !
कुछ पल के लिए अपने आँचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना !
मुझे कांटा चुभा सो चुभा, पर मेरे भरत के पाँव मे *आघात* मत करना"

श्री राम को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई !
पूछा- "भगवन, धृष्टता क्षमा हो ! पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है ?
जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गए, तो क्या कुमार भरत सहन नही कर पाँएगें ?
फिर उनको लेकर आपके चित मे ऐसी व्याकुलता क्यों ?"

श्री राम बोले- "नही...नही माते, आप मेरे कहने का अभिप्राय नही समझीं ! भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पाँव को नही, उसके हृदय को विदीर्ण कर देगा !"

"हृदय विदीर्ण !! ऐसा क्यों प्रभु ?",
धरती माँ जिज्ञासा भरे स्वर में बोलीं !

"अपनी पीड़ा से नहीं माँ, बल्कि यह सोचकर कि...इसी कंटीली राह से मेरे भैया राम गुज़रे होंगे और ये शूल उनके पगों मे भी चुभे होंगे !
मैया, मेरा भरत कल्पना मे भी मेरी पीड़ा सहन नहीं कर सकता, इसलिए उसकी उपस्थिति मे आप कमल पंखुड़ियों सी कोमल बन जाना..!!"

अर्थात
रिश्ते अंदरूनी एहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं ।
जहाँ गहरी आत्मीयता नही, वो रिश्ता शायद नही परंतु दिखावा हो सकता है ।

इसीलिए कहा गया है कि...
रिश्ते खून से नहीं, परिवार से नही,
मित्रता से नही, व्यवहार से नही,
बल्कि...
सिर्फ और सिर्फ आत्मीय "एहसास" से ही बनते और निर्वहन किए जाते हैं।
जहाँ एहसास ही नहीं,
आत्मीयता ही नहीं ..
वहाँ अपनापन कहाँ से आएगा l
         
      जय श्री राम

अपने व्यक्तित्व का कद ऊँचा करो


           
 स्वामी रामतीर्थ लाहौर के एक कॉलेज में गनिताचार्य थे। एक दिन उन्होंने श्यामपट पर एक सीधी लकीर खींची। फिर अपने छात्रों को कहा कि-- 'इस लकीर को बिना मिटाए, जरा छोटा तो करके दिखाओ।'
छात्र इस अटपटी पहेली में उलझ गए। अंततः स्वामी जी ने ही समधंस्वरूप उस लकीर के साथ एक उससे भी लम्बी लकीर खींच दी। फिर मुस्कुरा कर बोले, 'क्यों पहली लकीर खुद-व-खुद हो गई न छोटी! यही गणित सूत्र अपने व्यवहारिक जीवन मे भी घटा कर देखो। किसी को नुकशान पहुँचाकर या अपमानित करके छोटा करने का प्रयास मत करो। स्वयं अपने व्यक्तित्व का कद ऊँचा करो। अपने आप आसपास का सब कुछ और हर कोई बौना हो जाएगा।'

Wednesday, 29 August 2018

प्रारब्ध सभी को भोगना पड़ता है।


 जगन्नाथ दास महाराज
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एक संत थे जिनका नाम था जगन्नाथ दास महाराज।
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वे भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते थे। वे जब वृद्ध हुए तो थोड़े बीमार पड़ने लगे।
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उनके मकान की ऊपरी मंजिल पर वे स्वयं और नीचे उनके शिष्य रहते थे।
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चलने फिरने में कठिनाई होती थी, रात को एक-दो बार बाबा को दस्त लग जाती थी, इसलिए "खट-खट" की आवाज करते तो कोई शिष्य आ जाता और उनका हाथ पकड़कर उन्हें शौचालय ले जाता।
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बाबा की सेवा करने वाले वे शिष्य जवान लड़के थे।
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एक रात बाबा ने खट-खटाया तो कोई आया नही। बाबा बोले- अरे, कोई आया नही ! बुढापा आ गया, प्रभु !
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इतने में एक युवक आया और बोला- बाबा ! मैं आपकी सहायता करता हूं
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बाबा का हाथ पकड़कर वह उन्हें शौचालय मै ले गया। फिर हाथ-पैर धुलाकर बिस्तर पर लेटा दिया।
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जगन्नाथ दास जी सोचने लगे - यह कैसा सेवक है कि इतनी जल्दी आ गया !
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और इसके चेहरे पर ये कैसा अद्भुत तेज है.. ऐसी अस्वस्थता में भी इसके स्पर्श से अच्छा लग रहा है, आनंद ही आनंद आ रहा है
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जाते-जाते वह युवक पुनः लौटकर आ गया और बोला.. बाबा ! जब भी तुम ऐसे 'खट-खट' करोगे न, तो मैं आ जाया करूंगा।
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तुम केवल विचार भी करोगे कि 'वह आ जाए' तो मैं आ जाया करूँगा
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बाबा: बेटा तुम्हे कैसे पता चलेगा ?
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युवक: मुझे पता चल जाता है
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बाबा: अच्छा ! रात को सोता नही क्या ?
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युवक: हां, कभी सोता हूं, झपकी ले लेता हूं। मैं तो सदा सेवा में रहता हूं
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जब भी बाबा जगन्नाथ महाराज रात को 'खट-खट' करते तो वह युवक झट आ जाता और बाबा की सेवा करता।
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ऐसा करते करते कई दिन बीत गए। जगन्नाथ दास जी सोचते की.. यह लड़का सेवा करने तुरंत कैसे आ जाता है ?
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एक दिन उन्होंने उस युवक का हाथ पकड़ कर पूछा की - बेटा ! तेरा घर किधर है ?
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युवक: यही पास में ही है। वैसे तो सब जगह है
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बाबा: अरे ! ये तू क्या बोलता है, सब जगह तेरा घर है ?
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बाबा की सुंदर समझ जगी।
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उनको संदेह होने लगा कि 'कहीं ये मेरे भगवान् जगन्नाथ तो नहीं,
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जो किसी का बेटा नहीं लेकिन सबका बेटा बनने को तैयार है, बाप बनने को तैयार है, गुरु बनने को तैयार है, सखा बनने को तैयार है...
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बाबा ने कसकर युवक का हाथ पकड़ा और पूछा.. सच बताओ, तुम कौन हो ?
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युवक: बाबा ! छोडिये, अभी मुझे कई जगह जाना है
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बाबा: अरे ! कई जगह जाना है तो चले जाना, लेकिन तुम कौन हो यह तो बताओ ?
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युवक: अच्छा बताता हूं
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देखते-देखते भगवान् जगन्नाथ का दिव्य विग्रह प्रकट हो गया।
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देवाधिदेव ! सर्वलोकैकनाथ !
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सभी लोकों के एकमात्र स्वामी ! आप मेरे लिए इतना कष्ट सहते थे,
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रात्रि को आना, शौचालय ले जाना, हाथ-पैर धुलाना.. प्रभु ! जब मेरा इतना ख्याल रख रहे थे तो मेरा रोग क्यों नही मिटा दिया ?
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तब मंद मुस्कुराते हुए भगवान् जगन्नाथ बोले
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महाराज ! तीन प्रकार के प्रारब्ध होते है: मंद, तीव्र और तर-तीव्र।
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मंद प्रारब्ध तो सत्कर्म से, दान-पुण्य से भक्ति से मिट जाता है।
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तीव्र प्रारब्ध अपने पुरुषार्थ और भगवान् के, संत महापुरुषों के आशीर्वाद से मिट जाता है।
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परन्तु तर - तीव्र प्रारब्ध तो मुझे भी भोगना पड़ता है।
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रामावतार मै मैंने बाली को छुपकर बाण से मारा था तो कृष्णावतार में उसने व्याध बनकर मेरे पैर में बाण मारा।
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तर-तीव्र प्रारब्ध सभी को भोगना पड़ता है।
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आपका रोग मिटाकर प्रारब्ध दबा दूँ, फिर क्या पता उसे भोगने के लिए आपको दूसरा जन्म लेना पड़े और तब कैसी स्थिति हो जाय ?
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इससे तो अच्छा है कि आप अपना प्रारब्ध अभी भोग लें.. और मुझे आपकी सेवा करने में किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता-
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भक्त तो मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन का दास
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प्रभु ! प्रभु ! प्रभु ! हे देव हे देव.. कहते हुए जगन्नाथ दास महाराज भगवान के चरणों में गिर पड़े और भगवन्माधुर्य में भगवत्शांति में खो गए.. भगवान अंतर्धान हो गए।
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मित्रों चाहे कितना ही दुख मिले भगवान को कोसने की बजाय नित्य भगवान का दर्शन, नाम-स्मरण और भजन करते चले जाइये..

श्री हरी आप सबका मंगल करें।

विश्वास करो


       विश्वास करो कि तुम जगत में महान कार्य के लिये आये हो, तुम्हारे भीतर महान आत्मा का निवास है। विश्वास करो कि तुम शरीर नहीं आत्मा हो, तुम मृत्यु नहीं अमर हो, इसलिए तुम्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता, कोई तुम्हें विचलित नहीं कर सकता।

विश्वास करो कि तुम अकेले नहीं हो। जंगल, नदी, पर्वत और एकान्त में भी तुम अकेले नहीं हो, तुम्हारे साथ सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक परमात्मा है। जब तुम सोते हो और गाढ़ निद्रा में होते को तब भी परम प्रभु तुम्हारे अंग संग होता है। तुम्हारा वह अनन्त पिता तुम्हें जीवन दे रहा है, वह तुम्हें महान और चिरायु बनाना चाहता है इसलिए किसी भी दशा में अपने आपको अकेला और असहाय न मानो, भला जब अमरत्व सहायों का भी सहाय राजाओं का भी राजा परम प्रभु तुम्हारे साथ हैं तब तुम अपने आपको निराश्रित और असहाय क्यों समझते हो। क्या हुआ यदि तुम्हारा विनाश करने के लिए सब साँसारिक शक्तियाँ एकत्र हैं। यदि परमपिता तुम्हारी रक्षा कर रहा है तो विश्वास करो कोई तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। विश्वास करो, तुम्हारा पिता तुम्हें प्यार करता है। वह तुम्हें अपने पास बुला रहा है। परन्तु तुम अपने पिता के पास न जाकर बाहर की ओर बढ़े जा रहे हो। जरा रुको, अनन्त प्रेम की प्राप्ति तुम्हें परम पिता के पास होगी।

विश्वास करो। ईश्वर तुम से बहुत उपयोगी कार्य लेना चाहता है। तुम ईश्वर का निमित्त बन कर प्रभु को आत्म समर्पण कर दो, समर्पण करने से तुम्हें बड़ी शक्ति मिलेगी।

आत्म-समर्पण का अर्थ यह नहीं कि तुम आत्मविश्वास खो बैठो। जब तुमने परम आत्मा को आत्मसमर्पण किया है। तब तुम में पूर्ण आत्म-विश्वास जागृत होना चाहिए। उस दशा में तुम महान बन गये हो, तुम्हें भय नहीं रहा ऐसा सोचो तुम महान से मिलकर महान बन गये यह विश्वास करो। विश्वास करो, तुम बलवान हो। निर्बलता पाप है। तुम अपने मन में से निर्बलता को सदा के लिये भगा दो। आत्मा और परमात्मा दोनों बल हैं। तुम्हारी निर्बल मनोवृत्ति मानसिक है। मन भी प्राकृतिक है तुम तो प्रकृति से परे हो। इसलिए मन में कभी निर्बलता को न आने दो।

विश्वास करो, तुम पवित्र और शुद्ध हो। अशुद्धता और अपवित्रता को तुम जब चाहो झाड़ सकते हो, इस लिए यदि तुम से कभी भूल भी हो गई है तो उससे अधिक चिन्तित न बनो। आगे से उस बुराई को कभी न करने के दृढ़ संकल्प के साथ बढ़ो। बढ़ते ही चलो तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। आज तक बढ़ने वाले को कोई नहीं रोक पाया। यदि तुम यह सोचो कि कोई तुम्हारा विरोध न करे तभी तुम कर सकोगे तो यह भी कभी न होगा। बहुधा तुम जीवन संघर्ष को ही विरोध मान लेते हो। विरोध के बिना तुम बढ़ने का विचार न करो। तुम विश्वास करो कि तुम सब बाधाओं पर विजयी हो सकोगे, उठो और आगे बढ़ो।

-कर्मयोग से

अखण्ड  ज्योति .

सदा ध्यान रहे


🕉 यदि लौकिक आसक्तियों और स्वार्थमयी इच्छाओ से आप अपने आप को आज़ाद कर ले तो फिर सत्य पाने की बात ही क्या, आप स्वयं इसी क्षण सत्य है।

🕉 दृश्यों में प्रीती न करना ही वैराग्य है ।

🕉 परमार्थ तत्व के विषय में तीन पक्ष है ।
1. मुझसे भिन्न कुछ भी नही है।
2. सब मै ही हूँ।
3. सब वासुदेव ही है।
विचार से देखा जाये तो तीनो एक ही है

🕉 सदा ध्यान रहे
🕉 1. संसार को दुःख रूप समझना ।
🕉  2. उसे स्वप्न समझना।
🕉  3. उसे भगवान की माया समझना।
🕉  4. उसे आत्मा की तरंग समझना ।

ज्ञान की धारणा



      स्वप्न दृष्टा तुम्ही हो और यह संसार तुम्हारा ही स्वप्न है। जिस समय तुम इस ज्ञान को अपनी हृदय में स्थिर कर लोगे उसी समय मुक्त हो जाओगे।

     साधू को फलाहारी, लवण त्यागी, दुग्धाहारी, या मौनी हो कर नही रहना चाहिए। । इससे व्यर्थ अभिमान होता है।

  1. संसार मिथ्या है , यह मन्द ज्ञान की धारणा है।
  2. संसार स्वप्नवत् है यह मध्यम ज्ञान की धारणा है।
  3. संसार का अत्यंताभाव है अर्थात संसार कभी हुआ ही नही। यह उत्तम ज्ञानी की धारणा है।

विचार मंथन/ Vichar Manthan

 विचार मंथन

      जिस का चित विषय शून्य है और हृदय शांत है, उसका सारा संसार मित्र हो जाता है और मुक्ति भी उसकी मुट्टी में आ जाती है।

     जो जो पदार्थ दृश्य होते है सो मिथ्या है जैसे शक्ति विषय हुआ रूप दृश्य होने से मिथ्या ही है।

      स्वप्न के पदार्थ स्वप्न मे सच्चे प्रतीत होते है। स्वप्न के दौरान कोई जानना चाहे कि स्वप्न के पदार्थ सच्चे है या मिथ्या तो कोई नही जान सकता। जब आदमी जागता है तब जानता हे कि चारपाई पर पड़ा हूँ और मेंरे भीतर स्वप्न हुआ है। ये सब पदार्थ देश काल क्रिया मिथ्या है। इसी प्रकार तत्व ज्ञानी पुरुष जो अज्ञान रूपी निद्रा से ज्ञान रूपी जाग्रत अवस्था को प्राप्त हुआ है वह ज्ञान के लक्ष्य से कहता है कि एक ब्रह्म के सिवाए और कुछ नही है।

Sunday, 26 August 2018

अपनी उत्तम कल्पनाओं को चरितार्थ कीजिए

    अपनी उत्तम  कल्पनाओं को  चरितार्थ  कीजिए

    जिधर दृष्टि डालिये, प्रत्येक में कल्पना का ही निवास मिलेगा। इसलिए कल्पना करना व्यर्थ नहीं है, बल्कि कल्पना करना जीवन की निशानी है, बशर्ते कि तुम्हारी कल्पनाओं में तुम्हारे जीवन का प्राण भरा हो। निष्प्राण कल्पना जीवनी शक्ति को बढ़ाती नहीं, बल्कि नष्ट कर देती है, मनुष्य को निष्प्राण बना देती है। इसलिए हमें सजीव कल्पना-सप्राण कल्पना करना आना चाहिए।

‘मनुष्य’ नाम की इस बड़ी भारी मशीनरी में चारों ओर प्राण ही प्राण भरा हुआ है। चारों ओर जीवन ही जीवन लहरें ले रहा है और वही तो कल्पना के रूप में बाहर निकल कर अपने अनेक रूप, आकृति, प्रकृति बनाना चाहता है। वह अपने जीवन को, अपनी सत्ता को, अपनी चेतना को चारों ओर बखेर देना चाहता है, इसीलिए तो कल्पना करता है। लेकिन उसकी सीमा कल्पना तक ही जब रह जाती है और अपनी आत्मा को, प्राण को उसमें नहीं रहने दे पाता तब वह निस्तेज हो जाता है। इसलिए तेजस्वी बनना हो तो जो कुछ तुम चाहते हो, जो भी तुमने अपने मन में सोच रखा है और जैसे भी तुमने अपने हवाई किले का ढांचा तैयार किया हो, उसे इस पृथ्वी पर उतार लाने के लिए दृढ़ संकल्प हो जाओ। जब तुम कल्पना कर सकते हो तो कौन सी शक्ति ऐसी है जो उसके पृथ्वी पर उतरने में बाधा डाले?

प्रभु की लीला प्रभु ही जाने

रक्षा बंधन पर विशेष..
 ।।   मैं आ गया मेरी बहन  ।।
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ब्रजमंडल क्षेत्र में एक जंगल के पास एक गाँव बसा था। जंगल के किनारे ही एक टूटी-फूटी झोपड़ी में एक सात वर्षीया बालिका अपनी बूढ़ी दादी के साथ रहा करती थी। जिसका नाम उसकी दादी ने बड़े प्रेम से चंदा रखा था।
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चंदा का उसकी दादी के अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं था, उसके माता पिता की मृत्यु एक महामारी में उस समय हो गई थी जब चंदा की आयु मात्र दो वर्ष ही थी, तब से उसकी दादी ने ही उसका पालन-पोषण किया था।
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उस बूढ़ी स्त्री के पास भी कमाई का कोई साधन नहीं था इसलिए वह जंगल जाती और लकड़िया बीन कर उनको बेचती और उससे जो भी आय होती उससे ही उनका गुजारा चलता था।
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क्योंकि घर में और कोई नहीं था इसलिए दादी चंदा को भी अपने साथ जंगल ले जाती थी। दोनों दादी-पोती दिन भर जंगल में भटकते और संध्या होने से पहले घर वापस लौट आते ... यही उनका प्रति दिन का नियम था।
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चंदा अपनी दादी के साथ बहुत प्रसन्न रहती थी, किन्तु उसको एक बात बहुत कचोटती थी कि उसका कोई भाई या बहन नहीं थे। गांव के बच्चे उसको इस बात के लिए बहुत चिढ़ाते थे तथा उसको अपने साथ भी नहीं खेलने देते थे, इससे वह बहुत दुःखी रहती थी।
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अनेक बार वह अपनी दादी से पूछती की उसका कोई भाई क्यों नहीं है। तब उसकी दादी उसको प्रेम से समझाती.. कौन कहता है कि तेरा कोई भाई नहीं है, वह है ना कृष्ण कन्हैया वही तेरा भाई है, यह कह कर दादी लड्डू गोपाल की और संकेत कर देती।
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चंदा की झोपडी में एक पुरानी किन्तु बहुत सुन्दर लड्डू गोपाल की प्रतीमा थी जो उसके दादा जी लाये थे। चंदा की दादी उनकी बड़े मन से सेवा किया करती थी। बहुत प्रेम से उनकी पूजा करती और उनको भोग लगाती।
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निर्धन स्त्री पकवान मिष्ठान कहाँ से लाये जो उनके खाने के लिए रुखा सूखा होता वही पहले भगवान को भोग लगाती फिर चंदा के साथ बैठ कर खुद खाती। चंदा के प्रश्न सुनकर वह उस लड्डू गोपाल की और ही संकेत कर देती।
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बालमन चंदा लड्डू गोपाल को ही अपना भाई मानने लगी। वह जब दुःखी होती तो लड्डू गोपाल के सम्मुख बैठ कर उनसे बात करने लगती और कहती की भाई तुम मेरे साथ खेलने क्यों नहीं आते, सब बच्चे मुझ को चिढ़ाते है...
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मेरा उपहास करते है, मुझको अपने साथ भी नहीं खिलाते, में अकेली रहती हूँ, तुम क्यों नहीं आते। क्या तुम मुझ से रूठ गए हो, जो एक बार भी घर नहीं आते, मैने तो तुम को कभी देखा भी नहीं।
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अपनी बाल कल्पनाओं में खोई चंदा लड्डू गोपाल से अपने मन का सारा दुःख कह देती। चंदा का प्रेम निश्च्छल था, वह अपने भाई को पुकारती थी। उसके प्रेम के आगे भगवान भी नतमस्तक हो जाते थे, किन्तु उन्होंने कभी कोई उत्तर नहीं दिया।
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एक दिन चंदा ने अपनी दादी से पूछा.. दादी मेरे भाई घर क्यों नहीं आते, वह कहाँ रहते हैं। तब दादी ने उसको टालने के उद्देश्य से कहा तेरा भाई जंगल में रहता है, एक दिन वह अवश्य आएगा।
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चंदा ने पूछा क्या उसको जंगल में डर नहीं लगता, वह जंगल में क्यों रहता है। तब दादी ने उत्तर दिया नहीं वह किसी से नहीं डरता, उसको गांव में अच्छा नहीं लगता इसलिए वह जंगल में रहता है।
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धीर-धीरे रक्षा बंधन का दिन निकट आने लगा, गाँव में सभी लड़कियों ने अपने भाइयों के लिए राखियां खरीदी, वह चंदा को चिढ़ाने लगी कि तेरा तो कोई भाई नहीं तू किसको राखी बंधेगी।
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अब चंदा का सब्र टूट गया वह घर आकर जोर जोर से रोने लगी, दादी के पूंछने पर उसने सारी बात बताई, तब उसकी दादी भी बहुत दुःखी हुई उसने चंदा को प्यार से समझाया कि मेरी बच्ची तू रो मत, तेरा भाई अवश्य आएगा,
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किन्तु चंदा का रोना नहीं रुका वह लड्डू गोपाल की प्रतिमा के पास जाकर उससे लिपट कर जोर-जोर से रोने लगी और बोली की भाई तुम आते क्यों नहीं, सब भाई अपनी बहन से राखी बंधवाते हैं, फिर तुम क्यों नहीं आते।
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उधर गोविन्द चंदा की समस्त चेष्टाओं के साक्षी बन रहे थे। रोते-रोते चंदा को याद आया कि दादी ने कहा था कि उसका भाई जंगल में रहता है, बस फिर क्या था वह दादी को बिना बताए नंगे पाँव ही जंगल की और दौड़ पड़ी, उसने मन में ठान लिया था कि वह आज अपने भाई को लेकर ही आएगी।
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जंगल की काँटों भरी राह पर वह मासूम दौड़ी जा रही थी, श्री गोविन्द उसके साक्षी बन रहे थे। तभी श्री हरी गोविन्द पीढ़ा से कराह उठे उनके पांव से रक्त बह निकला, आखिर हो भी क्यों ना श्री हरी का कोई भक्त पीढ़ा में हो और भगवान को पीड़ा ना हो यह कैसे संभव है, जंगल में नन्ही चंदा के पाँव में काँटा लगा तो भगवान भी पीढ़ा कराह उठे।
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उधर चंदा के पैर में भी रक्त बह निकला वह वही बैठ कर रोने लगी, तभी भगवान ने अपने पाँव में उस स्थान पर हाथ फैरा जहा कांटा लगा था, पलक झपकते है चंदा में पाँव से रक्त बहना बंद हो गया और दर्द भी ना रहा वह फिर से उठी और जंगल की और दौड़ चली।
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इस बार उसका पाँव काँटों से छलनी हो गया किन्तु वह नन्ही सी जान बिना चिंता किये दौड़ती रही उसको अपने भाई के पास जाना था अंततः एक स्थान पर थक कर रुक गई और रो-रो कर पुकारने लगी भाई तुम कहाँ हों, तुम आते क्यों नहीं।
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अब श्री गोविन्द के लिए एक पल भी रुकना कठिन था, वह तुरंत उठे और एक ग्यारहा -बारहा वर्ष के सुन्दर से बालक का रूप धारण किया तथा पहुँच गए चंदा के पास।
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उधर चंदा थक कर बैठ गई थी और सर झुका कर रोये जा रही थी तभी उसके सर पर किसी के हाथ का स्पर्श हुआ। और एक आवाज सुनाई दी, "में आ गया मेरी बहन, अब तू ना रो"
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चंदा ने सर उठा कर उस बालक को देखा और पूंछा क्या तुम मेरे भाई हो ? तब उत्तर मिला "हाँ चंदा, में ही तुम्हारा भाई हूँ" यह सुनते ही चंदा अपने भाई से लिपट गई और फूट फूट कर रोने लगी।
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तभी भक्त और भगवान के मध्य भाव और भक्ति का एक अनूठा दृश्य उत्त्पन्न हुआ , भगवान वही धरती पर बैठ गए उन्होंने नन्ही चंदा के कोमल पैरो को अपने हाथो में लिया और उसको प्रेम से देखा।
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वह छोटे-छोटे कोमल पांव पूर्ण रूप से काँटों से छलनी हो चुके थे उनमे से रक्त बह रहा था, यह देख कर भगवान की आँखों से आंसू बह निकले उन्होंने उन नन्हे पैरो को अपने माथे से लगाया और रो उठे,
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अद्भुद दृश्य, बहन भाई को पाने की प्रसन्नता में रो रही थी और भगवान अपने भक्त के कष्ट को देख कर रो रहे थे। श्री हरी ने अपने हाथो से चंदा के पैरो में चुभे एक एक कांटे को बड़े प्रेम से निकाला फिर उसके पैरो पर अपने हाथ का स्पर्श किया, पलभर में सभी कष्ट दूर हो गया।
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चंदा अपने भाई का हाथ पकड़ कर बोली भाई तुम घर चलो, कल रक्षा बंधन है, में भी रक्षा बंधन करुँगी। भगवान बोले अब तू घर जा दादी प्रतीक्षा कर रही होगी, में कल प्रातः घर अवश्य आऊंगा। ऐसा कहकर उसको विश्वाश दिलाया और जंगल के बाहर तक छोड़ने आए।
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अब चंदा बहुत प्रसन्न थी उसकी सारी चिंता मिट गई थी, घर पहुंची तो देखा कि दादी का रो रो कर बुरा हाल था चंदा को देखते ही उसको छाती से लगा लिया। चंदा बहुत पुलकित थी बोली दादी अब तू रो मत कल मेरा भाई आएगा, में भी रक्षा बंधन करुँगी।
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दादी ने अपने आंसू पोंछे उसने सोंचा कि जंगल में कोई बालक मिल गया होगा जिसको यह अपना भाई समझ रही है, चंदा ने दादी से जिद्द करी और एक सुन्दर सी राखी अपने भाई के लिए खरीदी।
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अगले दिन प्रातः ही वह नहा-धो कर अपने भाई की प्रतीक्षा में द्वार पर बैठ गई, उसको अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी थोड़ी देर में ही वह बालक सामने से आते दिखाई दिया, उसको देखते ही चंदा प्रसन्नता से चीख उठी " दादी भाई आ गया" और वह दौड़ कर अपने भाई के पास पहुँच गई, उसका हाथ पकड़ कर घर में ले आई।
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अपनी टूटी-फूटी चारपाई पर बैठाया बड़े प्रेम से भाई का तिलक किया आरती उतारी और रक्षा बंधन किया। सुन्दर राखी देख कर भाई बहुत प्रसन्न था, भाई के रूप में भगवान उसके प्रेम को देख कर विभोर हो उठे थे, अब बारी उनकी थी।
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भाई ने अपने साथ लाए झोले को खोला तो खुशिओं का अम्बार था, सुन्दर, कपडे, मिठाई, खिलोने, और भी बहुत कुछ। चंदा को मानो पंख लग गए थे। उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था।
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कुछ समय साथ रहने के बाद वह बालक बोला अब मुझको जंगल में वापस जाना है। चंदा उदास हो गई, तब वह बोला तू उदास ना हो, आज से प्रतिदिन में तुमसे मिलने अवश्य आऊंगा। अब वह प्रसन्न थी। बालक जंगल लौट गया।
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उधर दादी असमंजस में थी कौन है यह बालक, उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। किन्तु हरी के मन की हरी ही जाने।
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भाई के जाने के बाद जब चंदा घर में वापस लौटी तो एकदम ठिठक गई उसकी दृष्टि लड्डू गोपाल की प्रतीमा पर पड़ी तो उसने देखा कि उनके हाथ में वही राखी बंधी थी जो उसने अपने भाई के हाथ में बांधी थी।
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उसने दादी को तुरंत बुलाया यह देख कर दादी भी अचम्भित रह गई, किन्तु उसने बचपन से कृष्ण की भक्ति करी थी वह तुरंत जान गई कि वह बालक और कोई नहीं स्वयं श्री हरी ही थे, वह उनके चरणो में गिर पड़ी और बोली, है छलिया, जीवन भर तो छला जीवन का अंत आया तो अब भी छल कर चले गए।
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वह चंदा से बोली अरी वह बालक और कोई नहीं तेरा यही भाई था। यह सुन कर चंदा भगवान की प्रतीमा से लिपट कर रोने लगी रो रो कर बोली कहो ना भाई क्या वह तुम ही थे, में जानती हूँ वह तुम ही थे, फिर सामने क्यों नहीं आते, छुपते क्यों हो।
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दादी पोती का निर्मल प्रेम ऐसा था कि भगवान भी विवश हो गए। लीला धारी तुरंत ही विग्रह से प्रकट हो गए और बोले हां चंदा में ही तुम्हारा वह भाई हूँ, तुमने मुझको पुकारा तो मुझको आना पड़ा। और में कैसे नहीं आता, जो भी लोग ढोंग, दिखावा, पाखंड रचते है उनसे में बहुत दूर रहता हूँ, किन्तु जब मेरा कोई सच्चा भक्त प्रेम भक्ति से मुझको पुकारता है तो मुझको आना ही पड़ता है।
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भक्त और भगवान की प्रेममय लीला चल रही थी, और दादी वह तो भगवान में लीन हो चुकी थी रह गई, चंदा तो उस दिन के बाद से गाँव में उनको किसी ने नहीं देखा, कोई नहीं जान पाया की आखिर दादी-पोती कहा चले गए। प्रभु की लीला प्रभु ही जाने...

 रक्षा बन्धन के पावन अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएं।
।। जय जय श्री राधे।।
 ।।जय जय श्री कृष्ण।।

हमारा पुरुषोत्तम भगवान से सीधा सम्बन्ध है

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

एक दिन सुबह पार्क में हरिनाम जप करते समय एक जानकार बूढ़े व्यक्ति ने व्यंगात्मक लहजे में कहा,"बेटा ये उम्र माला करने की नहीं मेहनत करके खाने कमाने और जिम्मेदारी उठाने की है। ये काम तो फिलहाल बुढ़ापे के लिए छोड़ दो।"
मैंने पूछा,"आप कितनी माला करते हैं ?"
वो सकपकाकर बोले,"मैं नहीं करता मैं तो अपने जीवन से संतुष्ट हूँ। "
मैंने कहा,"संतुष्ट तो गधा भी होता है जीवन से क्योंकि वो जानता ही नहीं की संतुष्टि का अर्थ क्या है। वो सोचता है की दिन भर मेहनत करके शाम को २ सूखी रोटी मिल जाना ही संतुष्टि है। उसको नहीं पता की अगर वो मालिक के चुंगल से निकल जाए तो सारे हरे भरे मैदान उसके लिए मुफ्त उपलब्ध हैं। इसलिए गधे सामान व्यक्ति ही बिना भक्ति के जीवन में संतुष्टि महसूस कर सकता है। क्योंकि उसको नहीं पता कि जन्म मृत्यु बुढ़ापे और बीमारियों से रहित इस भौतिक जीवन से परे एक नित्य शाश्वत जीवन भी है जहाँ हमारा परम पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण से सीधा सम्बन्ध है और वहां जन्म मृत्यु बुढ़ापा और बीमारियां भी नहीं होते।
वो जाने लगे तो मैंने पुकार कर कहा बाबा जी," बुढ़ापे तक जीवित रहेंगे इसका कोई गारंटी कार्ड तो है नहीं और जब जवानी में भगवान कृष्ण में मन नहीं लगाया तो बुढ़ापे में कैसे मन लगेगा ? और रही बात खाने कमाने की तो भक्त लोग कर्म से नहीं भागते वे तो उल्टा एक आम नागरिक से ज्यादा कर्मशील होते हैं क्योंकि वो सबसे बड़े समाज-सेवी होते हैं। वो खुद का जन्म भी सार्थक करते हैं और दूसरों का भी मार्ग दर्शन करते हैं। मैं कृष्ण का चिंतन करता हूँ और वो मेरे जीवन यापन का चिंतन करेंगे यह पूर्ण विश्वास है मुझे
जय हो प्रभुपाद

Saturday, 25 August 2018

श्वासकला का महत्व

श्वासकला का महत्व

श्वास के बिना जीवन सम्भव ही नहीं है। श्वास पर नियंत्रण करके मनुष्य अपनी आयु बढ़ा सकते हैं।

इज़राईल देश की बात हैः

एक ईसाई महिला पादरी के पास गयी। उसने कहाः

पादरी जी ! मैं मुसीबत में पड़ गयी हूँ। मैं अभी-अभी अखबार पढ़कर आपके पास आयी हूँ। मेरे पति को ईनाम में पाँच लाख डॉलर मिलने वाले हैं। उसने अपनी जिंदगी में कभी दस डॉलर भी साथ नहीं देखे हैं। वह यदि पाँच लाख डॉलर का ईनाम सुनेगा तो मर जायेगा। आप कृपा करिये।

पादरीः तुम फिकर मत करो। मैं तुम्हारे घर चलता हूँ। तुम्हारे पति नौकरी से कब लौटते हैं ?

महिलाः शाम को करीब 5.30 बजे।

पादरीः ठीक है, मैं 5.00 बजे तुम्हारे घर पहुँच जाऊँगा।

पादरी समय से उस महिला के घर पहुँच गया। उस महिला का पति आया। कुशलक्षेम पूछने के उपरांत पादरी ने कहाः

तुम्हें बधाई देने के लिए आया हूँ। तुम्हारी लाटरी लगी है।

पतिः कितने की लाटरी लगी है ?

पादरीः दस हजार डॉलर की।

पतिः अच्छा, दस हजार डॉलर ?

पादरी ने सोचा कि अब धीरे-धीरे अंक बढ़ाता जाऊँ। पादरी ने पुनः कहाः

नहीं, एक लाख डॉलर।

पतिः क्या सचमुच ?

पादरीः हाँ, सचमुच एक लाख डॉलर की लगी है।

पतिः यदि एक लाख डॉलर की लाटरी लगी है तो इसमें से पचास हजार डॉलर मैं आपको दे दूँगा।

पादरी को हुआ कि यह आधे डॉलर दान करने की बात कर रहा है तो क्यों न इसे असली रकम ही बता दूँ ? पादरी ने कहाः

नहीं, नहीं, वास्तव में तुम्हारी पाँच लाख डॉलर की लाटरी लगी है।

पतिः पाँ….च….ला…ख….डॉ….ल…..र….! इतना कहते ही उसका हार्टफेल हो गया।

संसार के विषयों में जीते-जीते हमारा अंतःकरण इतना दुर्बल हो जाता है कि हम न थोड़ा-सा दुःख झेल सकते हैं, न थोड़ा-सा सुख झेल सकते हैं। हर्ष से हृदय फैल जाता है और शोक से सिकुड़ जाता है। हृदय इतना आंदोलित हो जाता है कि जितना मानव को जीना चाहिए, उतना जी नहीं पाता और जल्दी मर जाता है, इसी को बोलते हैं-हार्टफेल।

तुम्हार हृदय जितना आंदोलित होता है उतनी तुम्हारी आयुष्य कम होती है। खरगोश और कबूतर एक मिनट में 38 श्वास खर्च करते हैं, वे अधिक से अधिक 8 साल जी सकते हैं। बंदर एक मिनट में 32 श्वास खर्च करता है, वह 10 वर्ष तक जी सकता है। कुत्ता एक मिनट में 29 श्वास खर्च करता है, वह भी 14 वर्ष तक जी सकता है। घोड़ा एक मिनट में 19 श्वास खर्च करता है, वह करीब 50 साल तक जी सकता है।

मनुष्य एक मिनट में 15 श्वास खर्च करे तो वह 100 साल तक जी सकता है। अगर आधि-व्याधि के कारण अधिक श्वास खर्च करता है तो उतनी जल्दी मरता है।

हाथी एक मिनट में 12 श्वास खर्च करता है, वह करीब 110 साल तक जीता है। सर्प एक मिनट में 8 श्वास खर्च करता है, वह 120 साल तक जी सकता है। कछुआ एक मिनट में केवल 5 श्वास खर्च करता है, वह 150 साल तक जी सकता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हम जितने श्वास कम खर्च करते हैं उतनी आयुष्य लम्बी होती है। आयुष्य वर्ष पर निर्धीरित नहीं होती है, श्वास पर निर्धारित होती है। तुम जितने भोग में, चिंता में या हर्ष में ज्यादा जीते हो तो उतनी तुम्हारे श्वास की गति विषम होती है और जितना तुम समता में जीते हो उतनी श्वास की गति सम होती है।

जब तुम क्रोध में होते हो तब श्वास की रिदम (तालबद्धता) एक प्रकार की होती है। जब तुम प्रेम में होते हो तब श्वास की रिदम दूसरे प्रकार की होती है। जब तुम राम में होते हो तो श्वास की रिदम शांत होती है और जब काम में होते हो तो श्वास की रिदम कुछ दूसरे प्रकार की होती है।

यदि तुम को श्वासकला आ जाय, प्राणायाम की विधि आ जाय तो काम, क्रोध, लोभ आदि के समय जो रिदम चलती है उसे तुम बदल सकते हो। काम के समय तुम राम में जा सकते हो क्रोध के समय तुम शांत हो सकते हो, ऐसी कुंजियाँ ऋषियों ने दे रखी हैं। जरूरत है, केवल उस कला को जानने की।

हम जो श्वास लेते हैं वह अलग-अलग काम करने के कारण पाँच प्रकार में बँट जाती हैः प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान। इनका कार्य है आपके श्वासोच्छवास को सुव्यवस्थित करना और शरीर के अंगों को सुचारूरूप से चलाना।

प्राणवायु का स्थान अनहात केन्द्र है और उसका रंग पीला है। यह हृदय की धड़कनों को चलाने में सहायक होती है। अपानवायु का स्थान है मूलाधार केन्द्र और उसका रंग है नारंगी। यह शरीर का कचरा बाहर निकालने में सहायक होती है। बालक का जन्म भी अपानवायु के धक्के से होता है। उदानवायु का स्थान है विशुद्धाख्या केन्द्र और रंग है बैंगनी। उसमें आकर्षणशक्ति, अन्न जल आदि ग्रहण करने की शक्ति होती है। व्यानवायु का स्थान है स्वाधिष्ठान केन्द्र और उसका रंग है गुलाबी। यह शरीर में रक्त का संचार करता है और सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। समानवायु का स्थान मणिपुर केन्द्र है और उसका रंग सफेद है। यह सप्तधातुओं को ठीक रखता है और उन्हें परिपक्व करता है। इसीलिए जो रोगी होता है उसे मैं बताता हूँ कि सूर्य की किरणों में ऐसे बैठें कि किरणें नाभि पर पड़ें फिर श्वास लेकर भावना करें कि मैं निरोग हो रहा हूँ….। उसके बाद हरि ૐ…हरि ૐ…. का उच्चारण करें ताकि यह केन्द्र विकसित हो और सात रसों को ठीक से पचाये। इससे रोग के कीटाणु नष्ट होने में मदद मिलती है, नये कीटाणु नहीं बनते हैं और रोग मिट जाता है। इससे चमत्कारिक फायदा होता है।

सूर्य में जो सात रंग हैं वे ही रंग तुम्हारे केन्द्रों में काम करते हैं। जब तुम गहरे श्वास लेते हो तब बाकी के श्वास भी ठीक से काम करने की ऊर्जा पा लेते हैं। इससे स्वास्थ्य भी ठीक रहता है और मन भी ठीक रहता है।

कमजोर लोग या बूढ़े लोग बीमार पड़ते हैं तब चतुर व्यक्ति पूछता हैः आज कौन सी तिथि है ? अगर अमावस या पूनम निकट होती है तो वह कहता हैः अगर अमावस या पूनम निकाल ले तो बूढ़ा जी लेगा। क्योंकि एकम्, दूज, तीज को तुम्हारी प्राणशक्ति सूर्य की किरणों से और वातावरण से विशेष ऊर्जा ले आती है। ज्यो-ज्यों तिथियाँ आगे बढ़ती हैं त्यों-त्यों तुम्हारी प्राणशक्ति कम होती जाती है। श्मशान के रजिस्टर से भी पता चलता है कि बड़ी उम्र वाले उन्हीं दिनों में अधिक मरते हैं।

जिनकी उम्र ज्यादा हो, जिन्हें ऊर्जा ज्यादा न मिलती हो, वे लोग प्रातः पानी प्रयोग के साथ में यह प्रयोग करें- एक लहसुन के तीन टुकड़े कर दें। एक टुकड़े को कुचलकर एक गिलास पानी में डालकर पी लें, दूसरे टुकड़े को दूसरे गिलास पानी में एवं तीसरे टुकड़े को तीसरे गलास पानी में डाल कर पी लें। इससे कई बीमारियाँ मिटती हैं और ऊर्जा बनती है, किंतु लहसुन में एक घाटा है कि इसके सेवन से स्वभाव में क्रोध बढ़ जाता है। इसलिए औषधिरूप में अत्यंत कम मात्रा में सेवन करें।

कई बार श्वास की रिदम बदलने से भी लाभ होता है। चतुर माताएँ जानती हैं कि बच्चा जब रोता है और खिलौने अथवा मीठी गोली से भी चुप नहीं होता है तब माँ उसे खुली हवा में ले आती है और थोड़ा उछालती है, कुदवाती है, इससे बच्चे का रोना तुरन्त बन्द हो जाता है। इसका कारण क्या है कि बच्चे की श्वास की रिदम बदल जाती है, उसका मनोभाव बदल जाता है और वह सुखी हो जाता है।

तुम्हारे जीवन में भी कभी दुःख या अशांति आ जाय तब किसी जलाशय के पास चले जाओ, हाथ पैर और मुँह धो लो तथा पंजे के बल से थोड़ा कूद लो। इससे तुम्हारे प्राणों की रिदम बदलेगी और अशांत विचारों में परिवर्तन आ जायेगा। निराशा-हताशा भाग जायेगी। मन प्रसन्न होने लगेगा। एवं शांति बढ़ने लगेगी।

प्राण अगर तालबद्ध चलने लग जायें तो सूक्ष्म बनेंगे। श्वास अगर तालबद्ध होगा तो दोष  अपने-आप दूर हो जायेंगे। अशांति अपने आप दूर होने लगेगी।

इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है। योगियों का कहना है कि अगर प्राण पर पूरा प्रभुत्व आ जाय तो तुम चन्द्र और सूर्य को गेंद की तरह अपनी इच्छा के अनुसार चला सकते हो, नक्षत्रों को अपनी जगह से हिला सकते हो ! पूर्वकाल में सती शांडिली ने सूर्य की गति को रोक दिया था।

प्राण सूक्ष्म होते हैं, प्राणायाम के अभ्यास से। जिसने अभ्यास करके प्राणों पर नियंत्रण पाकर मन को जीत लिया है, उसने समझो सब कुछ जीत लिया है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद,

सबसे बड़ा रोग- क्या कहेंगे लोग

समस्या - बेटा, मेरी बहुएं मेरा कहना नहीं सुनती। सलवार सूट और जीन्स पहन के घूमती हैं। सर पर पल्ला/चुनरी नहीं रखती और मार्किट चली जाती हैं। मार्गदर्शन करो कि कैसे इन्हें वश में करूँ...

समाधान - आंटी जी चरण स्पर्श, पहले एक कहानी सुनते हैं फिर समस्या का समाधान सुनाते हैं।

एक अंधे दम्पत्ति को बड़ी परेशानी होती, जब अंधी खाना बनाती तो कुत्ता आकर खा जाता। रोटियां कम पड़ जाती। तब अंधे को एक समझदार व्यक्ति ने आइडिया दिया कि तुम डंडा लेकर दरवाजे पर थोड़ी थोड़ी देर में फटकते रहना, जब तक अंधी रोटी बनाये। अब कुत्ता तुम्हारे हाथ मे डंडा देखेगा और डंडे की खटखट सुनेगा तो स्वतः डर के भाग जाएगा रोटियां सुरक्षित रहेंगी। युक्ति काम कर गयी, अंधे दम्पत्ति खुश हो गए।

कुछ वर्षों बाद दोनों के घर मे सुंदर पुत्र हुआ, जिसके आंखे थी और स्वस्थ था। उसे पढ़ा लिखाकर बड़ा किया। उसकी शादी हुई और बहू आयी। बहु जैसे ही रोटियां बनाने लगी तो लड़के ने डंडा लेकर दरवाजे पर खटखट करने लगा। बहु ने पूँछा ये क्या कर रहे हो और क्यों? तो लड़के ने बताया ये हमारे घर की परम्परा है, मेरी माता जब भी रोटी बनाती तो पापा ऐसे ही करते थे। कुछ दिन बाद उनके घर मे एक गुणीजन आये, तो माज़रा देख समझ गए। बोले बेटा तुम्हारे माता-पिता अंधे थे, अक्षम थे तो उन्होंने ने डंडे की खटखट के सहारे रोटियां बचाई। लेकिन तुम और तुम्हारी पत्नी दोनों की आंखे है, तुम्हे इस खटखट की जरूरत नहीं। बेटे परम्पराओं के पालन में विवेक को महत्तव दो।

आंटीजी, इसी तरह हिंदू स्त्रियों में पर्दा प्रथा मुगल आततायियों के कारण आयी थी, क्योंकि वो सुंदर स्त्रियों को उठा ले जाते थे। इसलिए स्त्रियों को मुंह ढककर रखने की आवश्यकता पड़ती थी। सर पर हमेशा पल्लू होता था यदि घोड़े के पदचाप की आवाज़ आये तो मुंह पर पल्ला तुरन्त खींच सकें।

अब हम स्वतन्त्र देश के स्वतन्त्र नागरिक है, राजा का शासन और सामंतवाद खत्म हो गया है। अब स्त्रियों को सर पर अनावश्यक पल्ला और पर्दा प्रथा पालन की आवश्यकता नहीं है।

घर के बड़ो का सम्मान आंखों में होना चाहिए, बोलने में अदब होना चाहिए और व्यवहार में विनम्रता छोटो के अंदर होनी चाहिए।

सर पर पल्ला रखे और वृद्धावस्था में सास-ससुर को कष्ट दे तो क्या ऐसी बहु ठीक रहेगी?

आंटीजी पहले हम सब लकड़ियों से चूल्हे में खाना बनाते थे, लेकिन अब गैस में बनाते है। पहले बैलगाड़ी थी और अब लेटेस्ट डीज़ल/पेट्रोल गाड़िया है। टीवी/मोबाइल/लैपटॉप/AC इत्यादि नई टेक्नोलॉजी उपयोग जब बिना झिझक के कर रहे हैं, तो फिर बहुओं को पुराने जमाने के हिसाब से क्यों रखना चाहती है? नए परिधान यदि सभ्य है, सलवार कुर्ती, जीन्स कुर्ती तो उसमें किसी को समस्या नहीं होनी चाहिए। जब बेटियाँ उन्ही वस्त्रों में स्वीकार्य है तो फिर बहु के लिए समस्या क्यों?

आंटी जी, परिवर्तन संसार का नियम है। यदि आप अच्छे संस्कार घर में बनाये रखना चाहते हो तो उस सँस्कार के पीछे का लॉजिक प्यार से बहु- बेटी को समझाओ। उन्हें थोड़ी प्राइवेसी दो और खुले दिल से उनका पॉइंट ऑफ व्यू भी समझो।

बहु भी किसी की बेटी है, आपकी बेटी भी किसी की बहू है। अतः घर में सुख-शांति और आनन्दमय वातावरण के लिए जिस तरह आपने मोबाइल जैसी टेक्नोलॉजी को स्वीकार किया है वैसे ही बहु के नए परिधान को स्वीकार लीजिये। बहु को एक मां की नज़र से बेटी रूप में देखिए, और उससे मित्रवत रहिये।

सबसे बड़ा रोग- क्या कहेंगे लोग, इससे बचिए, क्योंकि जब आपको सेवा की जरूरत होगी तो लोग कभी उपलब्ध न होंगे। आपको बेटे-बहु ही चाहिए होंगे।

विचार मंथन/ Vichar Manthan

    विचार मंथन


         हम चाहें तो अपने आत्मविश्वास और मेहनत के बल पर अपना भाग्य खुद लिख सकते है और अगर हमको अपना भाग्य लिखना नहीं आता तो परिस्थितियां हमारा भाग्य लिख देंगी ।

       सपने वो नहीं है जो हम नींद में देखते है, सपने वो है जो हमको नींद नहीं आने देते।

      आप यह नहीं कह सकते कि आपके पास समय नहीं है क्योंकि आपको भी दिन में उतना ही समय (24 घंटे) मिलता है जितना समय महान एंव सफल लोगों को मिलता है ।

      मुसीबतों से भागना, नयी मुसीबतों को निमंत्रण देने के समान है । जीवन में समय-समय पर चुनौतियों एंव मुसीबतों का सामना करना पड़ता है एंव यही जीवन का सत्य है । एक शांत समुन्द्र में नाविक कभी भी कुशल नहीं बन पाता ।

      विश्वास में वो शक्ति है जिससे उजड़ी हुई दुनिया में प्रकाश लाया जा सकता है। विश्वास पत्थर को भगवान बना सकता है और अविश्वास भगवान के बनाए इन्सान को पत्थरदिल बना सकता है ।

Friday, 24 August 2018

जिन्दगी जीने की समस्या (अन्तिम भाग)

जिन्दगी जीने की समस्या (अन्तिम भाग)

   वचन का पालन, समय की पाबन्दी, नियमित दिनचर्या, शिष्टाचार, आहार विहार की नियमितता, सफाई व्यवस्था आदि कितनी ही बातें ऐसी है जो सामान्य प्रतीत होते हुए भी जीवन की सुव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। पाश्चात्य देशों में इन छोटी बातों पर बहुत ध्यान दिया जाता है, फलस्वरूप भौतिक उन्नति के रूप में उन्हें उसका लाभ भी प्रत्यक्ष मिल रहा है। स्वास्थ्य, समृद्धि और ज्ञान की दृष्टि से पाश्चात्य देशों ने जो उन्नति की है उसमें इन छोटी बातों का बड़ा योग है। इन बातों के साथ-साथ यदि आध्यात्मिक सद्गुणों का समन्वय भी हो जाय तो फिर सोना और सुगन्धि वाली कहावत ही चरितार्थ हो जाती है।

 ऊपर की पंक्तियों में जीवन विद्या के कुछ पहलुओं की थोड़ी चर्चा की गई है। ऐसे कितने ही कोणों से मिलकर एक सन्तुलित जीवन बनता है। यह सन्तुलित जीवन व्यक्ति को स्वस्थ विकास की ओर ले जाता है। और ऐसे ही सुविकसित व्यक्तियों का समाज किसी राष्ट्र को गौरवशाली बनाता है।

   आज चारों ओर अगणित कठिनाइयाँ, परेशानियाँ और उलझने दिखाई पड़ती है उनका कारण एक ही है- अनैतिक, असंस्कृत जीवन। समस्याओं को ऊपर-ऊपर से सुलझाने से काम न चलेगा वरन् भूल कारण का समाधान करना पड़ेगा मनुष्य के जीवन दिव्य देवालयों की तरह पवित्र, ऊँचे और शानदार हों तभी क्लेश और कलह से, शोक और संताप से, अभाव और आपत्ति से छुटकारा मिलेगा। व्यक्ति यदि भगवान के दिव्य वरदान मानव जीवन का समुचित लाभ उठाना चाहता हो तो उसे जिन्दगी जीने की समस्याओं पर विचार करना होगा और सुलझे हुए दृष्टिकोण से अपनी गति विधियों का निर्माण करना होगा।


✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति,

आज के विचार/ Thoughts Of The Day

जय श्री कृष्ण

 अधर्मेणैधते तावत्, ततो भद्राणि पश्यति
  तत: सपत्नाञ्जयति, समूलस्तु विनश्यति।

भावार्थ-अधार्मिक मनुष्य अधर्म द्वारा पहले बढ़ता है और अधर्म द्वारा कमाई शक्ति, धन, प्रसिद्धि, प्रतिस्ठा से अनेक प्रकार की भलाई करता है,फिर शत्रुओं को भी जीत लेता है, परन्तु बाद में घर- बार समेत पूर्णतः नष्ट हो जाता है।

विचार मंथन/ Vichar Manthan

विचार मंथन


        सफलता हमारा परिचय दुनिया को करवाती है और असफलता हमें दुनिया का परिचय करवाती है।

        महानता कभी न गिरने में नहीं बल्कि हर बार गिरकर उठ जाने में है।

अगर आप समय पर अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करते है तो आप एक और गलती कर बैठते है| आप अपनी गलतियों से तभी सीख सकते है जब आप अपनी गलतियों को स्वीकार करते है।

अगर आप उन बातों एंव परिस्थितियों की वजह से चिंतित हो जाते है, जो आपके नियंत्रण में नहीं तो इसका परिणाम समय की बर्बादी एंव भविष्य पछतावा है।

ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं| वो हमीं हैं जो अपनी आँखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अन्धकार है।

Thursday, 23 August 2018

प्रकृति के तीन कड़वे नियम/ three rules of nature

प्रकृति के तीन कड़वे नियम जो सत्य है

1-: प्रकृति  का पहला  नियम
यदि खेत में  बीज न डालें जाएं  तो कुदरत  उसे घास-फूस से  भर देती हैं...!!
ठीक  उसी  तरह से  दिमाग  में सकारात्मक विचार  न भरे  जाएँ  तो नकारात्मक  विचार  अपनी  जगह  बना ही लेती है...!!

2-: प्रकृति  का दूसरा  नियम
जिसके  पास  जो होता है...!!
  वह वही बांटता  है....!!
सुखी सुख बांटता है...
दुःखी दुःख बांटता है..
ज्ञानी ज्ञान बांटता है..
भ्रमित भ्रम बांटता है..
भयभीत भय बांटता हैं......!!


 3-: प्रकृति  का तिसरा नियम
आपको जीवन से जो कुछ भी मिलें उसे पचाना सीखो क्योंकि भोजन न पचने  पर रोग बढते है...!
पैसा न पचने पर दिखावा बढता है...!
बात  न पचने पर चुगली  बढती है...!
प्रशंसा  न पचने पर  अंहकार  बढता है....!
निंदा  न पचने पर  दुश्मनी  बढती है...!
राज न पचने पर  खतरा  बढता है...!
दुःख  न पचने पर  निराशा बढती है...!
और सुख न पचने पर  पाप बढता है...!


बात  कड़वी बहुत  है  पर सत्य  है

विचार मंथन/ Vichar Manthan

विचार मंथन

   मानसिक आलस्य बहुत खतरनाक होता है। शरीर द्वारा किसी काम को करने की असमर्थता व्यक्त करना, यह शारीरिक आलस्य है। मगर किसी काम को करने से पहले ही यह सोच लेना कि यह काम मेरे वश का नहीं है अथवा किसी काम को करने से पहले ही हार मानकर बैठ जाना, पीछे हट जाना यह मानसिक आलस्य है।
        इस मानसिक आलस्य के कारण बहुत लोग दुखी होते हैं, असफल होते हैं और इसी निराशा के कारण डिप्रेशन तक पहुँच जाते हैं। इस मानसिक आलस्य को दूर करने का उपाय है सदचिन्तन, सकारात्मक चिन्तन और अच्छे लोगों का संग।
         एक विचार आदमी के संसार को बदल देता है। यदि वह बिचार शुभ है तो वह ना केवल स्वयं की प्रगति का कारण बनता है अपितु दूसरे लोगों के जीवन को भी बदलने तक की सामर्थ्य रखने वाला होता है। अतः हमेशा अच्छा सोचो ताकि मानसिक आलस्य से बच सको।

धन्य है भारतवर्ष, जहाँ एेसे तपस्वी जन्म लेते हैं।

कथावाचक डोंगरेजी ने कहा--
पत्नी के अस्थि-विसर्जन के लिए कर्णफूल मंगलसूत्र बेच दें !

डोंगरेजी महाराज को भारत वर्ष में कथावाचक के रूपमें ख्याति अर्जित कर चुके हैं। डोंगरेजी महाराज कथा से ही करीब एक अरब रूपये दान कर चुके हैं, वही एकमात्र कथावाचक थे जो दान का रूपया आपने पास नही रखते थे और न ही लेते थे। जिस जगह कथा होती थी लाखों रूपये उसी नगर के किसी समाजिक कार्य के लिए दान कर दिया करते थे। अपने अन्तिम प्रवचन गोरखपुर में  कैंसर अस्पताल के लिये एक करोड़ रूपये उनके चौपाटी पर जमा हुए थे।
          उनकी पत्नी आबू में रहती थी, जब उनकी मृत्यु के पांचवें दिन उन्हैं खबर लगी तब वे अस्थियां लेकर गोदावरी में विसर्जित करने मुम्बई के सबसे बड़े धनाड्य आदमी रति भाई पटेल के साथ गये। नासिक में डोंगरेजी ने रतिभाई से कहा कि रति हमारे पास तो कुछ है ही नही, और इनका अस्थि विसर्जन करना है। कुछ तो लगेगा ही क्या करें ? फिर बोले - इसका मंगलसूत्र एवं कर्णफूल हैं, इन्हैं बेचकर जो रूपये मिले उन्हें अस्थि विसर्जन में लगा देते हैं।
          इस बात को अपने लोगों को बताते हुए कई बार रोते - रोते रति भाई ने कहा कि जिस समय यह सुना हम जीवित कैसे रह गये, बस हमारा हार्ट फैल नही हुआ। हम आपसे कह नही सकते, कि हमारा क्या हाल था। जिन महाराजश्री के इशारे पर लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं, वह महापुरूष कह रहे हैं कि पत्नी  के अस्थि विसर्जन के लिये पैसे नही हैं और हम खड़े - खड़े सुन रहे थे ? फूट - फूट कर रोने के अलावा एक भी शब्द मुहँ से नही निकल रहा था।
          धन्य है भारतवर्ष, जहाँ एेसे वैराग्यवान और तपस्वी जन्म लेते हैं।

जिन्दगी जीने की समस्या (भाग 4)

जिन्दगी जीने की समस्या (भाग 4)

      लोग धन कमाने में लगे है अपनी क्षमता के अनुरूप कमाते और खर्चते भी है। पर यह भूलते रहते है कि अन्य मूल्यवान वस्तुऐं, जो धन से भी अधिक उपयोगी है, उपार्जित की जा रही है या नहीं? स्वास्थ्य का मूल्य क्या धन से कम है? ज्ञान वृद्धि क्या व्यर्थ की चीज है? आमोद प्रमोद का क्या जीवन में कोई स्थान नहीं है? पूजा उपासना क्या निरुपयोगी ही है? स्त्री बच्चों को व्यक्तिगत दिलचस्पी से दूर रखकर क्या उन्हें रोटी कपड़ा देते रहना ही पर्याप्त है? जिस समाज में हम जन्मते और पलते है क्या उसके प्रति हमारे कोई कर्तव्य नहीं है?

      इन बातों पर यदि विचार किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि धन कमाने की तरह यह सब बातें भी उतनी ही आवश्यक है। केवल एक ही काम में सारा समय और मनोयोग खर्च कर देना उचित नहीं वरन् सर्वतोमुखी उत्कर्ष की आवश्यकता है। जिस प्रकार केवल घी खाने से ही स्वास्थ्य नहीं सध सकता, उसके लिए अन्न, शाक, लवण आदि से सम्मिश्रित सन्तुलित भोजन चाहिए इसी प्रकार हमारे उपार्जन भी सर्वतोमुखी-सन्तुलित होने चाहिए। जीवन विद्या का यह पहला पाठ है।

      कितने लोग है जिन्होंने यह पाठ पढ़ा है और व्यवहारिक जीवन में उतारा है? जो इस शिक्षा से विमुख रहे वे भले ही धन या जो अभीष्ट है वह एक वस्तु अधिक मात्रा में कमा लें पर इतने मात्र से उन्हें जीवन का सर्वतोमुखी आनन्द कदापि प्राप्त न हो सकेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति,

Wednesday, 22 August 2018

विचार मंथन/ Vichar Manthan


 विचार मंथन

आप अवचेतन मन में जो भी इच्छा करते है उसके परिणाम आप बाह्य जगत में महसूस करते है.”

“संसार को बदलने की आपकी क्षमता ही आपका अवचेतन मन है

आपकी समृद्धता आपके दोस्त आपकी सामाजिक स्थिति आपके अवचेतन मन का आपके विचारों से की गई प्रतिक्रिया का प्रतिबिम्ब है।”

आपके बुरे विचार, आपका गुस्सा, आपके डर, आपकी जलन ये सब आपके अवचेतन मन के लिए घाव की तरह है. आप इन सब के साथ पैदा नहीं हुए इसलिए अपनी जिंदगी को इनसे रहित बना के देखे आपके जीवन में एक अलग ही रोमांच होगा यकीन मानिये।”

“चेतन मन को हमेशा अच्छे परिणाम की उम्मीद में व्यस्त रखे और उन विचारों को बार बार अच्छे परिणाम की उम्मीद में। इसलिए हमेशा अच्छे परिणाम उम्मीद रखे क्यों की आपका अवचेतन मन हमेशा आपके चेतन मन के विचारों और कल्पनाओं का प्रयोग कर आपके लिए परिणाम तैयार करता है.

जिन्दगी जीने की समस्या (भाग 3)

जिन्दगी जीने की समस्या (भाग 3)

यह संसार एक कर्म भूमि है, व्यायामशाला है, विद्यालय है जिसमें प्रविष्ट होकर प्राणी अपनी आन्तरिक प्रतिभा को विकसित करता है और यह विकास ही अन्ततः आत्म कल्याण के रूप में परिणत हो जाता है। यह दुनियाँ भव बन्धन भी है, माया पाश भी है, नरक भी है, पर है उन्हीं के लिए जिनकी मनोभूमि अस्त-व्यस्त है जिनको जिन्दगी जीने की कला का ज्ञान नहीं है। सब के लिए यह दुनियाँ कुरूप नहीं है। दर्पण की तरह यह केवल उन्हें ही कुरूप दिखाई देती है जिनका अपना चेहरा बिगड़ा हुआ है।

महात्मा इमर्सन कहा करते थे, “मुझे नरक में भेज दो, मैं अपने लिए वही स्वर्ग बना लूँगा।” वे जानते थे कि दुनियाँ में चाहे कितनी ही बुराई और कमी क्यों न हो यदि मनुष्य स्वयं अपने आपको सुसंस्कृत बना ले तो उन बुराइयों की प्रतिक्रिया से बच सकता है। मोटर की कमानी-स्प्रिंग-बढ़िया हो तो सड़क के खड्डे उसको बहुत दचके नहीं देते। कमानी के आधार पर वह उन खड्डों की प्रतिक्रिया को पचा जाता है। सज्जनता में भी ऐसी ही विशेषता है, वह दुर्जनों को नंगे रूप में प्रकट होने का अवसर बहुत कम ही आने देती है। गीली लकड़ी को एक छोटा अंगारा जला नहीं पाता वरन् बुझ जाता है, दुष्टता भी सज्जनता के सामने जाकर हार जाती है।

फिर सज्जनता में एक दूसरा गुण भी तो है कि कोई परेशानी आ ही जाय तो उसे बिना सन्तुलन खोये, एक तुच्छ सी बात मानकर हँसते खेलते सहन कर लिया जाता है। इन विशेषताओं से जिसने अपने आपको अलंकृत कर लिया है उसका यह दावा करना उचित ही है कि “मुझे नरक में भेज दो मैं अपने लिए वही स्वर्ग बना लूँगा।” सज्जनता अपने प्रभाव से दुर्जनों पर भी सज्जनता की छाप छोड़ती ही है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति,

निराशा/ Nirasha

एक बार एक आदमी कुँए पर पानी पी रहा था, तो उसे पानी पिलाने वाली बहन ने मजाक में कह दिया कि तेरे पेट में छोटी-सी छिपकली चली गयी । असल में एक छोटा पत्ता था, जो कुँए के पास लगे पेड़ से गिरा था । उस आदमी के दिमाग में यह बात बैठ गयी कि मेरे पेट में छिपकली चली गयी, अब मै ठीक होने वाला नहीं हूँ ।
उस व्यक्ति के परिजनों ने बहुत ईलाज करवाया, किन्तु वह किसी से भी ठीक नहीं हुआ । तब एक बहुत अनुभवी बृद्ध वैद्य ने उस व्यक्ति का पूरा इतिहास सुना और सुनने के बाद उस आदमी को कहा बेटा तू ठीक हो जायेगा, क्योकि अब छिपकली के निकलने का समय आ गया ।
वैद्य ने उस पानी पिलाने वाली बहन को कहा कि उस आदमी को उसी कुँए पर लाकर पुनः पानी पिलाना । जैसे ही वह व्यक्ति अंजलि बना कर पानी पीने बैठा तो पीछे से किसी ने उसे जोर का थप्पड़ लगाया और कहा कि देखो वह छिपकली निकल गयी । कितनी बड़ी होकर निकली । अगले दिन से वह आदमी धीरे-धीरे ठीक होने लगा । महीने भर बाद वह आदमी एकदम ठीक हो गया । न किसी ने छिपकली पेट में जाते देखी, न बाहर आते । इंसान का मन ऐसा हैँ कि यदि कोई बात बैठ गयी तो वह असंभव को भी संभव बना लेता हैँ ।
एक बार किसी व्यक्ति को निराश कर दीजिये, फिर वह कुछ करने योग्य नहीं रह जायेगा । भय का भूत आप खुद जगाते हैँ, निराशा की राक्षसी को आप अपने अंदर खुद पैदा करते हैँ, चिंता की डायन कही और से नहीं आती, आपके अंदर से ही पैदा होती हैँ ।
इसलिये वेदों में एक स्थान पर आया हैँ कि मै इंद्र हूँ, राजा हूँ, किसी से हारने वाला नही हूँ । स्वयं को स्वामी मानकर चलो, यह मानकर चलो कि आप किसी से पराजित नहीं हो सकते- न अपनी समस्याओ से, न बीमारियों से, न कष्टों से और न ही निराशाओ से ।

Tuesday, 21 August 2018

आइए हम अदृश्य स्टिकर्स को सम्मान दें!

क्रोध आपका ऐसा हुनर है :-

जिसमें फँसते भी आप है,
उलझते भी आप है,
पछताते भी आप है,
और पिछड़ते भी आप है।

इस कहानी को ध्यान से पढ़े

एक अदृश्य स्टिकर
         
मेरे आगे वाली कार कछुए की तरह चल रही थी और मेरे बार-बार हॉर्न देने पर भी रास्ता नहीं दे रही थी। मैं अपना आपा खो कर चिल्लाने ही वाला था कि मैंने कार के पीछे लगा एक छोटा सा स्टिकर देखा जिस पर लिखा था _"शारीरिक विकलांग; कृपया धैर्य रखें"!_ और यह पढ़ते ही जैसे सब-कुछ बदल गया!!

                      मैं तुरंत ही शांत हो गया और कार को धीमा कर लिया। यहाँ तक की मैं उस कार और उसके ड्राईवर का विशेष खयाल रखते हुए चलने लगा कि कहीं उसे कोई तक़लीफ न हो। मैं ऑफिस कुछ मिनट देर से ज़रुर पहुँचा मगर मन में एक संतोष था।

                    इस घटना ने दिमाग को हिला दिया। क्या मुझे हर बार शांत करने और धैर्य रखने के लिए किसी स्टिकर की ही ज़रुरत पड़ेगी? हमें लोगों के साथ धैर्यपूर्वक व्यवहार करने के लिए हर बार किसी स्टिकर की ज़रुरत क्यों पड़ती है?

            क्या हम लोगों से धैर्यपूर्वक अच्छा व्यवहार सिर्फ तब ही करेंगे जब वे अपने माथे पर कुछ ऐसे स्टिकर्स चिपकाए घूम रहे होंगे कि "मेरी नौकरी छूट गई है", "मैं कैंसर से संघर्ष कर रहा हूँ", "मेरी शादी टूट गई है", "मैं भावनात्मक रुप से टूट गया हूँ", "मुझे प्यार में धोखा मिला है", "मेरे प्यारे दोस्त की अचानक ही मौत हो गई", "लगता है इस दुनिया को मेरी ज़रुरत ही नहीं", "मुझे व्यापार में बहुत घाटा हो गया है"......आदि!

                   दोस्तों,हर इंसान अपनी ज़िंदगी में कोई न कोई ऐसी जंग लड़ रहा है जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते। बस हम यही कर सकते हैं कि लोगों से धैर्य और प्रेम से बात करें।

आइए हम इन अदृश्य स्टिकर्स को सम्मान दें!

विचार मंथन/ Vichar Manthan

विचार मंथन

 ईश्वर जिस पर खुश होता है उसे नदी की सी दानशीलता , सूर्य सी उदारता ओर पृथ्वी की सी सहनशक्ति प्रदान करता है।

 मैं आत्मा का रूप हूं, मुझ में जन्म कहां और मरण कहाँ। इस का चिंतन भी हमारा कर्तव्य नही, इसी निश्चय का नाम मोक्ष है।

जैसे मृत शरीर को इच्छा या द्वेष नही होता, सुख दुख नही होता वैसे ही जीवित रहते हुए भी मृत समान जड़ भरत की भांति देहातीत रह सकता हैं वह वास्तव में संसार विजयी हुआ है और वास्तविक आनंद को जनता है ।

Monday, 20 August 2018

इच्छा भी सीमित होनी चाहिए/ Desire should also be limited

मेरे सामने ही एक पूरी फैमिली बैठी थी।
मम्मी, पापा, बेटा और बेटी।
हमारी टेबल उनकी टेबल के पास ही थी। हम अपनी बातें कर रहे थे, वो अपनी।

पापा खाने का ऑर्डर करने जा रहे थे। वो सभी से पूछ रहे थे कि कौन क्या खाएगा?

बेटी ने कहा बर्गर। मम्मी ने कहा डोसा। पापा खुद बिरयानी खाने के मूड में थे। पर बेटा तय नहीं कर पा रहा था। वो कभी कहता बर्गर, कभी कहता कि पनीर रोल खाना है।

पापा कह रहे थे कि तुम ठीक से तय करो कि क्या लोगे? अगर तुमने पनीर रोल मंगाया, तो फिर दीदी के बर्गर में हाथ नहीं लगाओगे। बस फाइनल तय करो कि तुम्हारा मन क्या खाने का है ?

हमारे खाने का ऑर्डर आ चुका था। पर मेरे बगल वाली फैमिली अभी उलझन में थी।
बेटे ने कहा कि वो तय नहीं कर पा रहा कि क्या खाए।
मां बोल रही थी कि तुम थोड़ा-थोड़ा सभी में से खा लेना। अपने लिए कोई एक चीज़ मंगा लो। पर बेटा दुविधा में था।
पापा समझा रहे थे कि इतना सोचने वाली क्या बात है ? कोई एक चीज़ मंगा लो। जो मन हो, वही ले लो।
पर लड़का सच में तय नहीं कर पा रहा था। वो बार-बार बोर्ड पर बर्गर की ओर देखता, फिर पनीर रोल की ओर।

मुझे लग रहा था कि उसके पापा ऐसा क्यों नहीं कह देते कि ठीक है, एक बर्गर ले लो और एक पनीर रोल भी।
उनके बीच चर्चा चल रही थी।
पापा बेटे को समझाने में लगे थे कि कोई एक चीज़ ही आएगी। मन को पक्का करो।
*आखिर में बेटे ने भी बर्गर ही कह दिया।*

जब उनका खाना चल रहा था, हमारा खाना पूरा हो चुका था। कुर्सी से उठते हुए अचानक मेरी नज़र लड़के के पापा से मिली।
उठते-उठते मैं उनके पास चला गया और हैलो करके अपना परिचय दिया।
बात से बात निकली। मैंने उनसे कहा कि मन में एक सवाल है, अगर आप कहें तो पूछूं।
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “पूछिए।”
"आपका बेटा तय नहीं कर पा रहा था कि वो क्या खाए। वो बर्गर और पनीर रोल में उलझा था। मैंने बहुत देर तक देखा कि आप न तो उस पर नाराज़ हुए, न आपने कोई जल्दी की। न आपने ये कहा कि आप दोनों चीज़ ले आते हैं। मैं होता तो कह देता कि दोनों चीज़ ले आता हूं, जो मन हो खा लेना। बाकी पैक करा कर ले जाता।"

उन्होंने कहा, “ये बच्चा है। इसे अभी निर्णय लेना सीखना होगा। दो चीज़ लाना बड़ी बात नहीं थी।
बड़ी बात है, इसे समझना होगा कि ज़िंदगी में दुविधा की गुंजाइश नहीं होती।
*फैसला लेना पड़ता है मन का क्या है, मन तो पता नहीं क्या-क्या करने को करता है। पर कहीं तो मन को रोकना ही होगा।*
 अभी नहीं सिखा पाया तो कभी ये कभी नहीं सीख पाएगा।
“इसे ये भी सिखाना है कि *जो चाहा, उसे संतोष से स्वीकार करो।*
इसीलिए मैं बार-बार कह रहा था कि अपनी इच्छा बताओ।
*इच्छा भी सीमित होनी चाहिए।*
“और एक बात, इसे समझाता हूं कि *जो एक चीज़ पर फोकस नहीं कर पाते, वो हर चीज़ के लिए मचलते हैं।*
*और सच ये है कि हर चीज़ न किसी को मिलती है, न मिलेगी।”*

विचार मंथन/ Vichar Manthan

सुप्रभातम्
 
विचार मंथन

नीति और सदाचरण की मर्यादाओं का उल्लंघन कर्तव्य धर्म की उपेक्षा, दूसरे के प्रति निष्ठुरता और दुष्टता का व्यवहार, इन्द्रियों का स्वेच्छाचार, मन की कुटिलता जिसने अपना ली, उसे नरक तक पहुँचने में कोई रुकावट नहीं रहती। वह फिसलता हुआ, उस स्थान तक पहुँचने और चिरकाल तक रहने में सफल हो सकता है-जिसे नरक कहा जाता है और जहाँ की असत्य मंत्रणाओं का वीभत्स वर्णन किया जा सकता है।

उसे देखना ही नहीं-अनुभव करना भी पूरी तरह अपने हाथ में है। इसके लिए केवल अपनी प्रवृत्तियों को पतनोन्मुख भर बनाना है।

आज के विचार/ Thoughts Of The Day






Sunday, 19 August 2018

ईमानदारी ही सबसे बड़ा धन है

 ईमानदारी ही सबसे बड़ा धन है

 मुरारी लाल अपने गाँव के सबसे बड़े चोरों में से एक था। मुरारी रोजाना जेब में चाकू डालकर रात को लोगों के घर में चोरी करने जाता। पेशे से चोर था लेकिन हर इंसान चाहता है कि उसका बेटा अच्छे स्कूल में पढाई करे तो यही सोचकर बेटे का एडमिशन एक अच्छे पब्लिक स्कूल में करा दिया था।

मुरारी का बेटा पढाई में बहुत होशियार था लेकिन पैसे के अभाव में 12 वीं कक्षा के बाद नहीं पढ़ पाया। अब कई जगह नौकरी के लिए भी अप्लाई किया लेकिन कोई उसे नौकरी पर नहीं रखता था।

 एक तो चोर का बेटा ऊपर से केवल 12 वीं पास तो कोई नौकरी पर नहीं रखता था। अब बेचारा बेरोजगार की तरह ही दिन रात घर पर ही पड़ा रहता। मुरारी को बेटे की चिंता हुई तो सोचा कि क्यों ना इसे भी अपना काम ही सिखाया जाये। जैसे मैंने चोरी कर करके अपना गुजारा किया वैसे ये भी कर लेगा।

   यही सोचकर मुरारी एक दिन बेटे को अपने साथ लेकर गया। रात का समय था दोनों चुपके चुपके एक इमारत में पहुंचे। इमारत में कई कमरे थे सभी कमरों में रौशनी थी देखकर लग रहा था कि किसी अमीर इंसान की हवेली है।

  मुरारी अपने बेटे से बोला – आज हम इस हवेली में चोरी करेंगे, मैंने यहाँ पहले भी कई बार चोरी की है और खूब माल भी मिलता है यहाँ। लेकिन बेटा लगातार हवेली के आगे लगी लाइट को ही देखे जा रहा था। मुरारी बोला – अब देर ना करो जल्दी अंदर चलो नहीं तो कोई देख लेगा। लेकिन बेटा अभी भी हवेली की रौशनी को निहार रहा था और वो करुण स्वर में बोला – पिताजी मैं चोरी नहीं कर सकता।

 मुरारी – तेरा दिमाग खराब है जल्दी अंदर चल

        बेटा – पिताजी, जिसके यहाँ से हमने कई बार चोरी की है देखिये आज भी उसकी हवेली में रौशनी है और हमारे घर में आज भी अंधकार है। मेहनत और ईमानदारी की कमाई से उनका घर आज भी रौशन है और हमारे घर में पहले भी अंधकार था और आज भी मैं भी ईमानदारी और मेहनत से कमाई करूँगा और उस कमाई के दीपक से मेरे घर में भी रौशनी होगी। मुझे ये जीवन में अंधकार भर देने वाला काम नहीं करना। मुरारी की आँखों से आंसू निकल रहे थे। उसके बेटे की पढाई आज सार्थक होती दिख रही थी।

         मित्रों। बेईमानी और चोरी से इंसान क्षण भर तो सुखी रह सकता है लेकिन उसके जीवन में हमेशां के लिए पाप और अंधकार भर जाता है। हमेशा अपने काम को मेहनत और ईमानदारी से करें। बेईमानी की कमाई से बने पकवान भी ईमानदारी की सुखी रोटी के आगे फीके हैं। कुछ ऐसा काम करें कि आप समाज में सर उठा के चल सकें।

सयन विधान

सयन विधान

सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घंटे) के बाद ही शयन करना

सोने की मुद्राऐं:* 
           *उल्टा सोये भोगी,*
           *सीधा सोये योगी,*
           *दांऐं सोये रोगी,*
           *बाऐं सोये निरोगी।*

*शरीर विज्ञान के अनुसार चित सोने से रीढ़ की हड्डी को नुकसान और औधा या ऊल्टा सोने से आँखे बिगडती है।*

*सोते समय कितने गायत्री मंन्त्र /नवकार मंन्त्र गिने जाए :-*

*"सूतां सात, उठता आठ”सोते वक्त सात भय को दूर करने के लिए सात मंन्त्र गिनें और उठते वक्त आठ कर्मो को दूर करने के लिए आठ मंन्त्र गिनें।*

*"सात भय:-"*
*इहलोक,परलोक,आदान,*
*अकस्मात ,वेदना,मरण ,*
*अश्लोक (भय)*

*🌻दिशा घ्यान:-*

*दक्षिणदिशा (South) में पाँव रखकर कभी सोना नहीं चाहिए । यम और दुष्टदेवों का निवास है ।कान में हवा भरती है । मस्तिष्क  में रक्त का संचार कम को जाता है स्मृति- भ्रंश,व असंख्य बीमारियाँ होती है।*

*✌यह बात वैज्ञानिकों ने एवं वास्तुविदों ने भी जाहिर की है।*

*1:- पूर्व ( E ) दिशा में मस्तक रखकर सोने से विद्या की प्राप्ति होती है।*

*2:-दक्षिण ( S ) में मस्तक रखकर सोने से धनलाभ व आरोग्य लाभ होता है ।*

*3:-पश्चिम( W ) में मस्तक रखकर सोने से प्रबल चिंता होती है ।*

*4:-उत्तर ( N ) में मस्तक रखकर सोने से हानि मृत्यु कारक कष्ट  होता है ।*

*अन्य धर्गग्रंथों में शयनविधि में और भी बातें सावधानी के तौर पर बताई गई है ।*

*विशेष शयन की सावधानियाँ:-*

*1:-मस्तक और पाँव की तरफ दीपक रखना नहीं। दीपक बायीं या दायीं और कम से कम 5 हाथ दूर होना चाहिये।*

*2:-संध्याकाल में निद्रा नहीं लेनी चाहिए।*

*3:-शय्या पर बैठे-बैठे निद्रा नहीं लेनी चाहिए।*

*4:-द्वार के उंबरे/ देहरी/थलेटी/चौकट पर मस्तक रखकर नींद न लें।*

*5:-ह्रदय पर हाथ रखकर,छत के पाट या बीम के नीचें और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।*

*6:-सूर्यास्त के पहले सोना नहीं चाहिए।*

*7:-पाँव की और शय्या ऊँची हो तो अशुभ है।  केवल चिकित्स उपचार हेतु छूट हैं ।*

*8:- शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है।*

9:- सोते सोते पढना नहीं चाहिए।

10:- ललाट पर तिलक रखकर सोना अशुभ है। इसलिये सोते वक्त तिलक मिटाने का कहा जाता है।

जिन्दगी जीने की समस्या (भाग 2)

👉 *जिन्दगी जीने की समस्या (भाग 2)*

🔷 *प्राचीन काल में हमारे पूर्वज मनीषियों ने जीवन लक्ष्य की पूर्ति के महान विज्ञान का आविष्कार करते हुए इस बात पर बहुत जोर दिया था* कि व्यक्ति का लौकिक जीवन पूर्ण रीति से सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत हो। *आत्म कल्याण का मार्ग यही आरम्भ होता है।* यदि मनुष्य अपने सामान्य जीवन क्रम को सन्तोषजनक रीति से चला न सका तो *आध्यात्मिक जीवन में भी, परलोक में भी उसको सफलता अनिश्चित ही रहेगी।*

🔶 इस तथ्य को दृष्टि में रखते हुए *चार आश्रम की क्रमबद्ध व्यवस्था की गई थी।* आरंभिक जीवन में *शक्ति संचय,* मध्य जीवन में *कुटुम्ब और समाज की* प्रयोगशाला में अपने गुण कर्म स्वभाव का परिष्कार, ढलते जीवन में *लोकहित के लिए परमार्थ* की तैयारी और अन्त में जब सर्वतोमुखी *प्रतिभा एवं महानता विकसित हो जाय* तो उसका लाभ समस्त संसार को देने के लिए *विश्व आत्म परम आत्मा, समष्टि जगत् को आत्म समर्पण करना।* यही ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की प्रक्रिया है।

🔷 *लौकिक जीवन में अपनी प्रतिभा का परिचय दिये बिना ही लोग पारलौकिक जीवन की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहते है।* यह तो स्कूल का बहिष्कार करके सीधे एम. ए. की उत्तीर्ण का आग्रह करने जैसी बात हुई। *इस प्रकार व्यतिक्रम से ही आज लाखों साधु संन्यासी समाज के लिए भार बने हुए है।* वे लक्ष्य की प्राप्ति क्या करेंगे, शान्ति और संतोष तक से वंचित रहते है। *इधर की असफलता उन्हें उधर भी असफल ही रखती है।*

.... *क्रमशः जारी*
✍🏻 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
📖 *अखण्ड ज्योति,*

सुप्रभात/ Good Morning

दृढ संकल्प के साथ जागो, संतुष्टि के साथ सोने जाओ ये सोचना छोड़ो कि क्या गलत हो सकता है और ये सोचना शुरू करो कि क्या सही हो सकता है। हर सुबह इस ख़याल के साथ उठो कि कुछ अद्भुत होने वाला है।


सुप्रभात

Saturday, 18 August 2018

जिन्दगी जीने की समस्या/ Zindagi jeene ki samasya

👉 जिन्दगी जीने की समस्या (भाग १ )

🔶 *जिन्दगी जीना भी एक महत्वपूर्ण विद्या हैं। इसके अभाव में असंख्य लोग रोते-झींकते मौत के दिन तो पूरे कर लेते है* पर वह लाभ प्राप्त नहीं कर पाते जिसके लिए यह बहुमूल्य जीवन उपलब्ध हुआ है।

🔷 *अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में कीमती मोटर दे दी जाय तो उसकी दुर्गति ही होगी।* जिन्दगी एक मोटर है, उसे ठीक प्रकार चलाने के लिए उसका चलाना जानना आवश्यक है। *संसार में जितने भी महत्वपूर्ण कार्य है उन्हें आरम्भ करने से पूर्व तत्सम्बन्धी ट्रेनिंग लेनी पड़ती है।* कारखानों में, उद्योगों में, सरकारी नौकरियों में हर जगह ट्रेन्ड आदमियों की ही नियुक्ति होती है। *खेद है कि जिन्दगी जीने जैसे महान उत्तरदायित्व को हाथ में लेने वाले उस की ट्रेनिंग आवश्यक नहीं समझते।*

🔶 *हम सब किसी प्रकार जिन्दगी काटते तो है पर उसमें अव्यवस्था ही भरी होती है।* कहते है कि बेताल नाम का पिशाच अपने बालों को बुरी तरह बिखेरे रहता है जिससे उसकी भयंकरता और भी बढ़ जाती है। *बहुधा हमारा जीवन क्रम भी बेताल के बालों की तरह फूहड़पन के साथ अस्त-व्यस्त तथा बिखरा होता है।* फलस्वरूप न जीने वाले को आनन्द आता है और न उससे संबंधित लोगों को कोई प्रसन्नता होती है।


क्रमशः......
✍🏻 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
📖 *अखण्ड ज्योति,*

सुप्रभात/ Good Morning

बदलना' तय है !  हर चीज़ का.. इस संसार में...!

बस कर्म अच्छे करें..
किसी का जीवन बदलेगा
किसी का 'दिल' बदलेगा,
तो.. किसी के 'दिन' बदलेंगे ..! 

     सदा मुस्कुराते रहिये
    Good morning 

विचार मंथन/ Vichar Manthan

सुप्रभातम्
  
विचार मंथन

आत्म-निर्माण मानवी कर्तव्य है, पर देव भूमिका की प्राप्ति आत्म-विकास से ही सम्भव है। अपनी अहंता जब संकीर्णता के बंधन तोड़ती हुई विशाल और व्यापक बनती है, लोक-कल्याण ही आत्म-कल्याण लगता है, तब समझना चाहिए हम देव बनें। देवताओं के लिए ही स्वर्ग बना है। हमारा विकसित देवत्व निश्चित रूप से हमें वहाँ पहुँचा देगा, जिसे स्वर्ग कहा जाता है।

स्वर्ग ऊपर है, वहाँ पहुँचने के लिए ऊँचा उठना ही पड़ेगा। चरित्र, दृष्टिकोण और कर्म तीनों को ऊँचा उठाते हुए कोई भी व्यक्ति स्वर्ग के राज्य में सरलता पूर्वक प्रवेश कर सकता है।

मित्रता/ Friendship

मित्रता शुद्धतम प्रेम है।
ये प्रेम का सर्वोच्च रूप है
जहाँ कुछ भी नहीं माँगा जाता,
जहाँ कोई शर्त नहीं होती,
जहाँ बस देने में आनंद आता है।           
                                                                                        सुप्रभात

सुप्रभात/ Good Morning

आप अकेले बोल तो सकते है;
                   परन्तु...
       बातचीत नहीं कर सकते ।
  आप अकेले आनन्दित हो सकते है
                    परन्तु...
       उत्सव नहीं मना सकते।
   अकेले  आप मुस्करा तो सकते है
                    परन्तु...
      हर्षोल्लास नहीं मना सकते.
           हम सब एक दूसरे
           के बिना कुछ नहीं हैं;
    यही रिश्तों की खूबसूरती है।

  प्यारी-सी सुबह का प्यारा-सा प्रणाम
             सुप्रभात

Thursday, 16 August 2018

श्री साईं चालीसा/ Shri Sai Chalisa

श्री साँई के चरणों में, अपना शीश नवाऊं मैं
कैसे शिरडी साँई आए, सारा हाल सुनाऊ मैं
कौन है माता, पिता कौन है, यह न किसी ने भी जाना
कहां जन्म साँई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना

कोई कहे अयोध्या के, ये रामचन्द्र भगवान हैं
कोई कहता साँई बाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं
कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साँई
कोई कहता गोकुल-मोहन, देवकी नन्द्न हैं साँई

शंकर समझ भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साँई की करते
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साँई हैं सच्चे भगवान
बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवनदान

कई बरस पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात
किसी भाग्यशाली की शिरडी में, आई थी बारात
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुनदर
आया, आकर वहीं बद गया, पावन शिरडी किया नगर

कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा मांगी उसने दर-दर
और दिखाई ऎसी लीला, जग में जो हो गई अमर
जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान
घर-घर होने लगा नगर में, साँई बाबा का गुणगान

दिगदिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साँई जी का नाम
दीन मुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम
बाबा के चरणों जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते द:ख के बंधन

कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझ को संतान
एवं अस्तु तब कहकर साँई, देते थे उसको वरदान
स्वयं दु:खी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल
अंत:करन भी साँई का, सागर जैसा रहा विशाल

भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान
लगा मनाने साँईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो
झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो

कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया
दे दे मुझको पुत्र दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर
और किसी की आश न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर

अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष
अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर
कृपा रहे तुम पर उसकी, और तेरे उस बालक पर

अब तक नहीं किसी ने पाया, साँई की कृपा का पार
पुत्र रतन दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार
सांच को आंच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार

मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूंगा उसका दास
साँई जैसा प्रभु मिला है, इतनी की कम है क्या आद
मेरा भी दिन था इक ऎसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्ही सी लंगोटी

सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था
बिना भिखारी में दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था

ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साँई का था
जंजालों से मुक्त, मगर इस, जगती में वह मुझसा था
बाबा के दर्शन के खातिर, मिल दोनों ने किया विचार
साँई जैसे दयामूर्ति के दर्शन को हो गए तैयार

पावन शिरडी नगर में जाकर, देखी मतवाली मूर्ति
धन्य जन्म हो गया कि हमने, दु:ख सारा काफूर हो गया
संकट सारे मिटे और विपदाओं का अंत हो गया

मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से
प्रतिबिंबित हो उठे जगत में, हम साँई की आभा से
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में
इसका ही सम्बल ले, मैं हंसता जाऊंगा जीवन में

साँई की लीला का मेरे, मन पर ऎसा असर हुआ
”काशीराम” बाबा का भक्त, इस शिरडी में रहता था
मैं साँई का साँई मेरा, वह दुनिया से कहता था

सींकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में
झंकृत उसकी हृदतंत्री थी, साँई की झनकारों में
स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी आंचल में चांद सितारे
नहीं सूझता रहा हाथ, को हाथ तिमिर के मारे

वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से काशी
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी
घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी
मारो काटो लूटो इसको, ही ध्वनि पड़ी सुनाई

लूट पीटकर उसे वहां से, कुटिल गये चम्पत हो
आघातों से मर्माहत हो, उसने दी थी संज्ञा खो
बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में

अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साईं
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को पड़ी सुनाई
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो

उन्मादी से इधर-उधर तब, बाबा लेगे भटकने
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने
और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला
हुए सशंकित सभी वहां, लख तांडवनृत्य निराला

समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त पड़ा संकट में
क्षुभित खड़े थे सभी वहां, पर पड़े हुए विस्मय में
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है
उसकी ही पीड़ा से पीड़‍ित, उनकी अंत:स्थल है

इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहां आई
सन्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आंखें भर आई

शांत, धीर, गंभीर, सिंधु-सा, बाबा का अंत:स्थल
आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी

आज भक्त की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी
उसके ही दर्शन की खातिर थे, उमड़े नगर-निवासी
जब भी और जहां भी कोई, भक्त पड़े संकट में
उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में

युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी
आपद्‍ग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अंर्तयामी
भेदभाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई

भेद-भाव मंदिर-मिस्जद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला
राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला
घंटे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना

चमत्कार था कितना सुंदर, परिचय इस काया ने दी
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी
सब को स्नेह दिया साईं ने, सबको संतुल प्यार किया
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया

ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे
पर्वत जैसा दुख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे
साईं जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई

तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो
जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा
और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा

तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी
जंगल, जंगल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को
एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को

धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया
दुख में, सुख में प्रहर आठ हो, साईं का ही गुण गाया
गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े
साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सबके रहो अड़े

इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान
दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान
एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया

जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुख से मुक्ति

अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से
लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी

जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए
औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा

दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो
अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो
हैरानी बढ़ती जनता की, देख इसकी कारस्तानी
प्रमुदित वह भी मन ही मन था, देख लोगों की नादानी

खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ

मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को
पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को
महानाश के महागर्त में पहुंचा, दूं जीवन भर को

तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को
पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर

सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में
अंश ईश का साईं बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर

वही जीत लेता है जगत के, जन जन का अंत:स्थल
उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विहल
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है

पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के
ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर

नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साईं ने
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साईं ने
सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साईं
पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साईं

सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान
सौदा प्यार के भूखे साईं की, खातिर थे सभी समान
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे

कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, आनंदित वे हो जाते थे
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे

ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे
सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे
दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे

जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी
जो धारण करते मस्तक पर, दुख सारा हर लेती थी
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साईं के पाए
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए

काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साईं मिल जाता
वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता
गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर


।।इतिश्री साईं चालीसा समाप्त।।

Sunday, 12 August 2018

चचा वोट डालकर बाहर आए

चचा वोट डालकर बाहर आए
और पोलिंग एजेंट से पूछा: तेरी चाची वोट डाल गई क्या?

एजेंट ने लिस्ट चेक कर के कहा: जी चचा वह वोट डाल गई!!

चचा भरे गले से बोले:
जल्दी आता तो शायद मिल जाती,

पोलिंग एजेंट: क्यो चाचा आप साथ नही रहते?

चचा: बेटा उसे मरे हुए 15 साल हो गए हर बार वोट डालने आती है पर मिलती नही!

Saturday, 11 August 2018

गांव की गोरी

गांव की गोरी के साथ इश्क में बस एक ही परेशानी है कि…

अगर रोमांटिक होकर उसकी गोद में सर रखो, तो वो जुएँ देखने लगती है. !

गोस्वामी तुलसीदास के अनमोल वचन/ Goswami Tulsidas Ke Anmol Vachan

ईश्‍वर ने संसार को कर्म प्रधान बना रखा है, इसमें जो मनुष्‍य जैसा कर्म करता है उसको, वैसा ही फल प्राप्‍त होता है।


फल के आने से वृक्ष झुक जाते हैं, वर्षा के समय बादल झुक जाते हैं, संपत्ति के समय सज्जन भी नम्र होते हैं। परोपकारियों का स्वभाव ही ऐसा ही होता है।


जिस व्यक्ति की तृष्णा जितनी बड़ी होती है, वह उतना ही बड़ा दरिद्र होता है।


वृक्ष अपने सिर पर गर्मी सहता है, पर अपनी छाया में दूसरों का ताप दूर करता है


तप के बल से ब्रह्मा सृष्टि करते हैं। तप से संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है।


स्वप्न वही देखना चाहिए, जो पूरा हो सके।


पेट की आग (भूख) बड़वाग्नि से बड़ी होती है।

श्री ब्रह्मा चालीसा/ Shri Brahma Chalisa

।। दोहा ।।
जय ब्रह्मा जय स्वयम्भू, चतुरानन सुखमूल।
करहु कृपा निज दास पै, रहहु सदा अनुकूल।।
तुम सृजक ब्रह्माण्ड के, अज विधि घाता नाम।
विश्वविधाता कीजिये, जन पै कृपा ललाम।।

।। चौपाई ।।
जय जय कमलासान जगमूला, रहहू सदा जनपै अनुकूला।
रुप चतुर्भुज परम सुहावन, तुम्हें अहैं चतुर्दिक आनन।

रक्तवर्ण तव सुभग शरीरर, मस्तक जटाजुट गंभीरा।
ताके ऊपर मुकुट बिराजै, दाढ़ी श्वेत महाछवि छाजै।

श्वेतवस्त्र धारे तुम सुन्दर, है यज्ञोपवीत अति मनहर।
कानन कुण्डल सुभग बिराजहिं, गल मोतिन की माला राजहिं।

चारिहु वेद तुम्हीं प्रगटाये, दिव्य ज्ञान त्रिभुवनहिं सिखाये।
ब्रह्मलोक शुभ धाम तुम्हारा, अखिल भुवन महँ यश बिस्तारा।

अर्द्धागिनि तव है सावित्री, अपर नाम हिये गायत्री।
सरस्वती तब सुता मनोहर, वीणा वादिनि सब विधि मुन्दर।

कमलासन पर रहे बिराजे, तुम हरिभक्ति साज सब साजे।
क्षीर सिन्धु सोवत सुरभूपा, नाभि कमल भो प्रगट अनूपा।

तेहि पर तुम आसीन कृपाला, सदा करहु सन्तन प्रतिपाला।
एक बार की कथा प्रचारी, तुम कहँ मोह भयेउ मन भारी।

कमलासन लखि कीन्ह बिचारा, और न कोउ अहै संसारा।
तब तुम कमलनाल गहि लीन्हा, अन्त बिलोकन कर प्रण कीन्हा।




कोटिक वर्ष गये यहि भांती, भ्रमत भ्रमत बीते दिन राती।
पै तुम ताकर अन्त न पाये, ह्वै निराश अतिशय दुःखियाये।

पुनि बिचार मन महँ यह कीन्हा महापघ यह अति प्राचीन।
याको जन्म भयो को कारन, तबहीं मोहि करयो यह धारन।

अखिल भुवन महँ कहँ कोई नाहीं, सब कुछ अहै निहित मो माहीं।
यह निश्चय करि गरब बढ़ायो, निज कहँ ब्रह्म मानि सुखपाये।

गगन गिरा तब भई गंभीरा, ब्रह्मा वचन सुनहु धरि धीरा।
सकल सृष्टि कर स्वामी जोई, ब्रह्म अनादि अलख है सोई।

निज इच्छा इन सब निरमाये, ब्रह्मा विष्णु महेश बनाये।
सृष्टि लागि प्रगटे त्रयदेवा, सब जग इनकी करिहै सेवा।

महापघ जो तुम्हरो आसन, ता पै अहै विष्णु को शासन।
विष्णु नाभितें प्रगट्यो आई, तुम कहँ सत्य दीन्ह समुझाई।

भटहै जाई विष्णु हितमानी, यह कहि बन्द भई नभवानी।
ताहि श्रवण कहि अचरज माना, पुनि चतुरानन कीन्ह पयाना।

कमल नाल धरि नीचे आवा, तहां विष्णु के दर्शन पावा।
शयन करत देखे सुरभूपा, श्यायमवर्ण तनु परम अनूपा।

सोहत चतुर्भुजा अतिसुन्दर, क्रीटमुकट राजत मस्तक पर।
गल बैजन्ती माल बिराजै, कोटि सूर्य की शोभा लाजै।

शंख चक्र अरु गदा मनोहर, पघ नाग शय्या अति मनहर।
दिव्यरुप लखि कीन्ह प्रणामू, हर्षित भे श्रीपति सुख धामू।

बहु विधि विनय कीन्ह चतुरानन, तब लक्ष्मी पति कहेउ मुदित मन।
ब्रह्मा दूरि करहु अभिमाना, ब्रह्मारुप हम दोउ समाना।

तीजे श्री शिवशंकर आहीं, ब्रह्मरुप सब त्रिभुवन मांही।
तुम सों होई सृष्टि विस्तारा, हम पालन करिहैं संसारा।

शिव संहार करहिं सब केरा, हम तीनहुं कहँ काज धनेरा।
अगुणरुप श्री ब्रह्मा बखानहु, निराकार तिनकहँ तुम जानहु।

हम साकार रुप त्रयदेवा, करिहैं सदा ब्रह्म की सेवा।
यह सुनि ब्रह्मा परम सिहाये, परब्रह्म के यश अति गाये।

सो सब विदित वेद के नामा, मुक्ति रुप सो परम ललामा।
यहि विधि प्रभु भो जनम तुम्हारा, पुनि तुम प्रगट कीन्ह संसारा।

नाम पितामह सुन्दर पायेउ, जड़ चेतन सब कहँ निरमायेउ।
लीन्ह अनेक बार अवतारा, सुन्दर सुयश जगत विस्तारा।

देवदनुज सब तुम कहँ ध्यावहिं, मनवांछित तुम सन सब पावहिं।
जो कोउ ध्यान धरै नर नारी, ताकी आस पुजावहु सारी।

पुष्कर तीर्थ परम सुखदाई, तहँ तुम बसहु सदा सुरराई।
कुण्ड नहाइ करहि जो पूजन, ता कर दूर होई सब दूषण।

॥ इति श्री ब्रह्मा चालीसा ॥

Friday, 10 August 2018

महर्षि वेद व्यास के अनमोल वचन/ Maharshi Vedvyas Ke Anmol Vachan

1.  अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, विद्वान पुरुष उसके लिए शोक नहीं करता।
2.  जो सज्जनता का अतिक्रमण करता है उसकी आयु, संपत्ति, यश, धर्म, पुण्य, आशीष, श्रेय नष्ट हो जाते हैं।
3.  किसी के प्रति मन में क्रोध रखने की अपेक्षा उसे तत्काल प्रकट कर देना अधिक अच्छा है, जैसे पल में जल जाना देर तक सुलगने से अच्छा है।
4.  अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीर में ही स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है।
5.  दूसरों के लिए भी वही चाहो जो तुम अपने लिए चाहते हो।
6.  जो वेद और शास्त्र के ग्रंथों को याद रखने में तत्पर है किंतु उनके यथार्थ तत्व को नहीं समझता, उसका वह याद रखना व्यर्थ है।
7.  जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं, क्षमा करता है, वह अपनी और क्रोध करने वाले की महा संकट से रक्षा करता है। वह दोनों का रोग दूर करने वाला चिकित्सक है।

8.  जहां कृष्ण हैं, वहां धर्म है और जहां धर्म है, वहां जय है।
9.  जिसके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।
10.  अत्यंत लोभी का धन तथा अधिक आसक्ति रखने वाले का काम- ये दोनों ही धर्म को हानि पहुंचाते हैं।
11.  जिस मनुष्य की बुद्धि दुर्भावना से युक्त है तथा जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं रखा है, वह धर्म और अर्थ की बातों को सुनने की इच्छा होने पर भी उन्हें पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता।
12.  क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने योग्य हो जाता है।
13.  मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली-भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। 
14.  दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करना।

15.  जो केवल दया से प्रेरित होकर सेवा करते हैं, उन्हें नि:संशय सुख की प्राप्ति होती है।
16.  अधिक बलवान तो वे ही होते हैं जिनके पास बुद्धिबल होता है। जिनमें केवल शारीरिक बल होता है, वे वास्तविक बलवान नहीं होते।
17.  जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुन:-पुन: किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है।
18.  जो विपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय आने पर दुख भी सह लेता है, उसके शत्रु पराजित ही हैं।
19.  जो मनुष्य अपनी निंदा सह लेता है, उसने मानो सारे जगत पर विजय प्राप्त कर ली।
20.  संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ है, जो मनुष्य की आशाओं का पेट भर सके। पुरुष की आशा समुद्र के समान है, वह कभी भरती ही नहीं।
21.  माता के रहते मनुष्य को कभी चिंता नहीं होती, बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता। जो अपनी मां को पुकारता हुआ घर में प्रवेश करता है, वह निर्धन होता हुआ भी मानो अन्नपूर्णा के पास चला आता है। -वेदव्यास
22.  मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख भी मिट जाता है।

23.  आशा ही दुख की जननी है और निराशा ही परम सुख शांति देने वाली है।
24.  सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से आग जलती है, सत्य से वायु बहती है, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है। (महाभारत)
25.  जो मनुष्य नाश होने वाले सब प्राणियों में समभाव से रहने वाले अविनाशी परमेश्वर को देखता है, वही सत्य को देखता है।
26.  जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है, वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए।
27.  स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते हैं।
28.  मनुष्य जीवन की सफलता इसी में है कि वह उपकारी के उपकार को कभी न भूले। उसके उपकार से बढ़कर उसका उपकार कर दे।
29.  विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है।
30.  जैसे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर देव भी नष्ट हो जाता है।