Sunday, 30 December 2018

आठ योगी महापुरुष जो आज भी जीवित हैं

ये हैं वो आठ योगी महापुरुष जो आज भी जीवित  और अमर माने जाते हैं।
अश्वस्थामा, राजा बलि, व्यास मुनि, हनुमान, बिभीषण, कृपाचार्य, परसुराम भगवान, मार्कण्डेय ऋषि ये जीवित है ।
१. महावीर हनुमान – अंजनी पुत्र हनुमान जी को अजर और अमर रहने के वरदान मिला है तथा इन की मौजूदगी रामायण और महाभारत दोनों जगह पर पाई गई है.रामायण में हनुमान जी ने प्रभु राम की सीता माता को रावण के कैद से छुड़वाने में मदद की थी और महाभारत में उन्होंने भीम के घमंड को तोडा था. सीता माता ने हनुमान को अशोक वाटिका में राम का संदेश सुनाने पर वरदान दिया था की वे सदेव अजर-अमर रहेंगे. अजर-अमर का अर्थ है की उनकी कभी मृत्यु नही होगी और नही वे कभी बूढ़े होंगे. माना जाता है की हनुमान जी इस धरती पर आज भी विचरण करते है।

२. अश्वत्थामा – अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचर्य के पुत्र है तथा उनके मष्तक में अमरमणि विध्यमान है. अश्वत्थामा ने सोते हुए पांडवो के पुत्रो की हत्या करी थी जिस कारण भगवान कृष्ण ने उन्हें कालांतर तक अपने पापो के प्रायश्चित के लिए इस धरती में ही भटकने का श्राप दिया था. हरियाणा के करुक्षेत्र और अन्य तीर्थ में उनके दिखाई दिए जाने के दावे किये जाते है तथा मध्यप्रदेश के बुराहनपुर में उनके दिखाई दिए जाने की घटना प्रचलित है।

३. ऋषि मार्कण्डेय – ऋषि मार्कण्डेय भगवान शिव के परम भक्त है. उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपश्या द्वारा महामृत्युंजय तप को सिद्ध कर मृत्यु पर विजयी पा ली और चिरंजीवी हो गए।

४. भगवान परशुराम - परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं। परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि और माता का नाम रेणुका था. परशुराम का पहले नाम राम था परन्तु इस शिव के परम भक्त थे. उनकी कठोर तपश्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें एक फरसा दिया जिस कारण उनका नाम परशुराम पड़ा।

५. कृपाचार्य - कृपाचार्य शरद्वान गौतम के पुत्र हैं। वन में शिकार खेलते हुए शांतनु को दो शिशु मिले जिनका नाम उन्होंने कृपि और कृप रखा तथा उनका पालन पोषण किया. कृपाचार्य कौरवो के कुलगुरु तथा अश्वत्थामा के मामा हैं, उन्होंने महाभारत के युद्ध में कौरवो को साथ दिया।

६. विभीषण – विभीषण ने भगवान राम की महिमा जान कर युद्ध में अपने भाई रावण का साथ छोड़ प्रभु राम का साथ दिया. राम ने विभीषण को अजर-अमर रहने का वरदान दिया था।

७. वेद व्यास – ऋषि व्यास ने महाभारत जैसे प्रसिद्ध काव्य की रचना की है. उनके द्वारा समस्त वेदो एवं पुराणो की रचना हुई. वेद व्यास, ऋषि पाराशर और सत्यवती के पुत्र है. ऋषि वेदव्यास भी अष्टचिरंजीवियो में सम्लित है।

८. राजा बलि – राजा बलि को महादानी के रूप में जाना जाता है. उन्होंने भगवान विष्णु के वामन अवतार को अपना सब कुछ दान कर दिया अतः भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल का राजा बनाया और अमरता का वरदान दिया. राजा बलि प्रह्लाद के वंशज है।
                           

Monday, 24 December 2018

संतोष की प्रवृति


                 संतोष की प्रवृति

एक युवती एक संत के पास अपनी जिज्ञासा लेकर पहुंची वह बोली- "महाराज! मैं विवाह करना चाहती हूँ मैंने अनेक युवको को देख भी लिया है , परन्तु अभी  तक कोई सबसे योग्य युवक नहीं मिला! "संत बोले-बेटी! तुम पहले फूलो के बगीचे मे से सबसे सुन्दर गुलाब का फूल तोड़कर लाओ,  लेकिन शर्त यह है की एक बार आगे  बढ़ने के बाद पीछे नहीं मुड़ना!" थोड़ी देर बाद युवती खाली हाथ लोटी ! संत ने पूंछा- बेटी तुम्हे कोई सुन्दर फूल नहीं मिला..??" वह युवती बोली- "महाराज मैं अच्छे-से-अच्छे फूल की चाहत मे आगे बढती गई   मार्ग  मैं अनेक सुन्दर फूल दिखे, परन्तु मैं इस चाहत में आगे बढती गई की आगे और भी सुन्दर फूल होंगें! दुर्भाग्यवश अंत में फिर मुरझाये फूल मिले!" संत बोले- बेटी! जीवन भी इसी प्रकार है ! सबसे योग्य की तलाश में भटकते रहोगे तो जो संभव है, उससे भी हाथ धो बैठोगे! इसलिए जो प्राप्त हो सकता है, उसी में संतोष करने की प्रवृति पैदा करो! यही संभव समाधान है"!!

Sunday, 23 December 2018

साईनाथ आरती 2

आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ।
चरणों के तेरे हम पुजारी साईँ बाबा ॥
विद्या बल बुद्धि, बन्धु माता पिता हो l
तन मन धन प्राण, तुम ही सखा हो ll
हे जगदाता अवतारे, साईँ बाबा ।
आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ॥
ब्रह्म के सगुण अवतार तुम स्वामी l
ज्ञानी दयावान प्रभु अंतरयामी ll
सुन लो विनती हमारी साईँ बाबा ।
आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ॥
आदि हो अनंत त्रिगुणात्मक मूर्ति l
सिंधु करुणा के हो उद्धारक मूर्ति ll
शिरडी के संत चमत्कारी साईँ बाबा ।
आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ॥
भक्तों की खातिर, जनम लिये तुम l
प्रेम ज्ञान सत्य स्नेह, मरम दिये तुम ll
दुखिया जनों के हितकारी साईँ बाबा ।
आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ॥

Saturday, 22 December 2018

साईं बाबा आरती 1

आरती श्री साईं गुरुवर की |
परमानन्द सदा सुरवर की ||
जा की कृपा विपुल सुखकारी |
दुःख, शोक, संकट, भयहारी ||
शिरडी में अवतार रचाया |
चमत्कार से तत्व दिखाया ||
कितने भक्त चरण पर आये |
वे सुख शान्ति चिरंतन पाये ||
भाव धरै जो मन में जैसा |
पावत अनुभव वो ही वैसा ||
गुरु की उदी लगावे तन को |
समाधान लाभत उस मन को ||
साईं नाम सदा जो गावे |
सो फल जग में शाश्वत पावे ||
गुरुवासर करि पूजा - सेवा |
उस पर कृपा करत गुरुदेवा ||
राम, कृष्ण, हनुमान रूप में |
दे दर्शन, जानत जो मन में ||
विविध धर्म के सेवक आते |
दर्शन कर इच्छित फल पाते ||
जै बोलो साईं बाबा की |
जो बोलो अवधूत गुरु की ||
`साईंदास` आरती को गावे |
घर में बसि सुख, मंगल पावे ||

Friday, 21 December 2018

शिरडी साईं बाबा की आरती

ॐ जय साईं हरे, बाबा शिरडी साईं हरे।
भक्तजनों के कारण, उनके कष्ट निवारण॥
शिरडी में अवतरे, ॐ जय साईं हरे॥ ॐ जय...॥

दुखियन के सब कष्टन काजे, शिरडी में प्रभु आप विराजे।
फूलों की गल माला राजे, कफनी, शैला सुन्दर साजे॥
कारज सब के करें, ॐ जय साईं हरे ॥ ॐ जय...॥

काकड़ आरत भक्तन गावें, गुरु शयन को चावड़ी जावें।
सब रोगों को उदी भगावे, गुरु फकीरा हमको भावे॥
भक्तन भक्ति करें, ॐ जय साईं हरे ॥ ॐ जय...॥

हिन्दु मुस्लिम सिक्ख इसाईं, बौद्ध जैन सब भाई भाई।
रक्षा करते बाबा साईं, शरण गहे जब द्वारिकामाई॥
अविरल धूनि जरे, ॐ जय साईं हरे ॥ ॐ जय...॥

भक्तों में प्रिय शामा भावे, हेमडजी से चरित लिखावे। 
गुरुवार की संध्या आवे, शिव, साईं के दोहे गावे॥
अंखियन प्रेम झरे, ॐ जय साईं हरे ॥ ॐ जय...॥

ॐ जय साईं हरे, बाबा शिरडी साईं हरे। 
शिरडी साईं हरे, बाबा ॐ जय साईं हरे॥

Thursday, 20 December 2018

मां शैलपुत्री की आरती

आरती देवी शैलपुत्री जी की
शैलपुत्री मां बैल असवार।
करें देवता जय जयकार।
शिव शंकर की प्रिय भवानी।
तेरी महिमा किसी ने ना जानी।
पार्वती तू उमा कहलावे।
जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू।
दया करे धनवान करे तू।
सोमवार को शिव संग प्यारी।
आरती तेरी जिसने उतारी।
उसकी सगरी आस पुजा दो।
सगरे दुख तकलीफ मिला दो।
घी का सुंदर दीप जला के।
गोला गरी का भोग लगा के।
श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं।
प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।
जय गिरिराज किशोरी अंबे।
शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।
मनोकामना पूर्ण कर दो।
भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।

Wednesday, 19 December 2018

मां शाकंभरी देवी चालीसा

दोहा
दाहिने भीमा ब्रामरी अपनी छवि दिखाए। 
बाईं ओर सतची नेत्रों को चैन दीवलए। 
भूर देव महारानी के सेवक पहरेदार। 
मां शकुंभारी देवी की जाग मई जे जे कार।।
चौपाई
जे जे श्री शकुंभारी माता। हर कोई तुमको सिष नवता।।
गणपति सदा पास मई रहते। विघन ओर बढ़ा हर लेते।।
हनुमान पास बलसाली। अगया टुंरी कभी ना ताली।।
मुनि वियास ने कही कहानी। देवी भागवत कथा बखनी।।
छवि आपकी बड़ी निराली। बढ़ा अपने पर ले डाली।।
अखियो मई आ जाता पानी। एसी किरपा करी भवानी।।
रुरू डेतिए ने धीयां लगाया। वार मई सुंदर पुत्रा था पाया।।
दुर्गम नाम पड़ा था उसका। अच्छा कर्म नहीं था जिसका।।
बचपन से था वो अभिमानी। करता रहता था मनमानी।।
योवां की जब पाई अवस्था। सारी तोड़ी धर्म वेवस्था।।
सोचा एक दिन वेद छुपा लूं। हर ब्रममद को दास बना लूं।।
देवी-देवता घबरागे। मेरी सरण मई ही आएगे।।
विष्णु शिव को छोड़ा उसने। ब्रह्माजी को धीयया उसने।।
भोजन छोड़ा फल ना खाया। वायु पीकेर आनंद पाया।।
जब ब्रहाम्मा का दर्शन पाया। संत भाव हो वचन सुनाया।।
चारो वेद भक्ति मई चाहू। महिमा मई जिनकी फेलौ।।
ब्ड ब्रहाम्मा वार दे डाला। चारों वेद को उसने संभाला।।
पाई उसने अमर निसनी। हुआ प्रसन्न पाकर अभिमानी।।
जैसे ही वार पाकर आया। अपना असली रूप दिखाया।।
धर्म धूवजा को लगा मिटाने। अपनी शक्ति लगा बड़ाने।।
बिना वेद ऋषि मुनि थे डोले। पृथ्वी खाने लगी हिचकोले।।
अंबार ने बरसाए शोले। सब त्राहि-त्राहि थे बोले।।
सागर नदी का सूखा पानी। कला दल-दल कहे कहानी।।
पत्ते बी झड़कर गिरते थे। पासु ओर पाक्सी मरते थे।।
सूरज पतन जलती जाए। पीने का जल कोई ना पाए।।
चंदा ने सीतलता छोड़ी। समाए ने भी मर्यादा तोड़ी।।
सभी डिसाए थे मतियाली। बिखर गई पूज की तली।।
बिना वेद सब ब्रहाम्मद रोए। दुर्बल निर्धन दुख मई खोए।।
बिना ग्रंथ के कैसे पूजन। तड़प रहा था सबका ही मान।।
दुखी देवता धीयां लगाया। विनती सुन प्रगती महामाया।।
मा ने अधभूत दर्श दिखाया। सब नेत्रों से जल बरसाया।।
हर अंग से झरना बहाया। सतची सूभ नाम धराया।।
एक हाथ मई अन्न भरा था। फल भी दूजे हाथ धारा था।।
तीसरे हाथ मई तीर धार लिया। चोथे हाथ मई धनुष कर लिया।।
दुर्गम रक्चाश को फिर मारा। इस भूमि का भार उतरा।।
नदियों को कर दिया समंदर। लगे फूल-फल बाग के अंदर।।
हारे-भरे खेत लहराई। वेद ससत्रा सारे लोटाय।।
मंदिरो मई गूंजी सांख वाडी। हर्षित हुए मुनि जान पड़ी।।
अन्न-धन साक को देने वाली। सकंभारी देवी बलसाली।।
नो दिन खड़ी रही महारानी। सहारनपुर जंगल मई निसनी।।

श्री शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती

हरि ॐ श्री शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो
ऐसी अद्भुत रूप हृदय धर लीजो
शताक्षी दयालु की आरती कीजो
तुम परिपूर्ण आदि भवानी मां, सब घट तुम आप बखानी मां
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो

तुम्हीं हो शाकुम्भर, तुम ही हो सताक्षी मां
शिवमूर्ति माया प्रकाशी मां,
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो

नित जो नर-नारी अम्बे आरती गावे मां
इच्छा पूर्ण कीजो, शाकुम्भर दर्शन पावे मां
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो

जो नर आरती पढ़े पढ़ावे मां, जो नर आरती सुनावे मां
बस बैकुंठ शाकुम्भर दर्शन पावे
शाकुम्भरी अंबाजी की आरती कीजो।

Tuesday, 18 December 2018

श्री हरसुब्रह्म चालीसा

दोहा:-
बाबा हरसू ब्रह्म के, चरणों का करि ध्यान।
चालीसा प्रस्तुत करूँ, पावन यश गुण गान।।

चालीसा
हरसू ब्रह्म रूप अवतारी।
जेहि पूजत नित नर अरु नारी।।
शिव - अनवद्य अनामय रूपा।
जन - मंगल हित शिला स्वरूपा।।
विश्व - कष्ट - तम - नाशक जोई।
ब्रह्म धाम मँह राजत सोइ।।
निर्गुण निराकार जग व्यापी।
प्रकट भये बन - ब्रह्म प्रतापी।।
अनुभव गम्य प्रकाश स्वरूपा।
सोई शिव प्रकट ब्रह्म के रूपा।।
जगत - प्राण जग जीवन दाता।
हरसू ब्रह्म हुए विख्याता।।
पालन हरण सृजन कर जोई।
ब्रह्म रूप धरि प्रकटेउ सोई।।
मन बच अगम अगोचर स्वामी।
हरसू ब्रह्म सोई अंतरयामी।।
भव जन्मा त्यागा सब भव रस।
शित निर्लेप अमान एक रस।।
चैनपुर   सुखधाम  मनोहर।
जहाँ विराजत ब्रह्म निरन्तर।।
ब्रह्म तेज वर्धित तव क्षण क्षण।
प्रमुदित होत निरन्तर जन मन।।
द्विज द्रोही नृप को तुम नासा।
आज मिटावत जन मन त्रासा।।
दे सन्तान सृजन तुम करते।
कष्ट मिटाकर जन भय हरते।।
सब भक्तन के पालक तुम हो।
दनुज वृति कुल घालक तुम हो।।
कुष्ट रोग से पीड़ित होई।
आवे सभय शरण तकि सोई।।
भक्षण करे भभूत तुम्हारा।
चरण गहे नित बारहिं बारा।।
परम रूप सुन्दर सोई पावै।
जीवन भर तव यश नित गावै।।
पागल बन विचार जो खोवै।
देखत कबहुँ हँसे फिर रोवै।।
तुम्हरे निकट आव जब सोई।
भूत - पिशाच ग्रस्त उर होई।।
तुम्हरे धाम आई सुख माने।
करत विनय तुमको पहिचाने।।
तव दुर्धष तेज के आगे।
भूत पिशाच विकल होई भागे।।
नाम जपत तव ध्यान लगावत।
भूत पिशाच निकट नहीं आवत।।
भांति - भांति के कष्ट अपारा।
करि उपचार मनुज जब हारा।।
हरसू ब्रह्म के धाम पधारे।
श्रमित - भ्रमित जन - मन से हारे।।
तव चरणन परि पूजा करई।
नियत काल तक व्रत अनुसरई।।
श्रद्धा अरु विश्वास बटोरी।
बांधे तुमहि प्रेम की डोरी।।
कृपा करहु तेहि पर करुणाकर।
कष्ट मिटे लौटे प्रमुदित घर।।
वर्ष - वर्ष तव दर्शन करहीं।
भक्ति भाव श्रद्धा उर भरहीं।।
तुम व्यापक सबके उर अंतर।
जानहु भाव कुभाव निरन्तर।।
मिटे कष्ट नर अति सुख पावे।
जब तुमको उर - मध्य बिठावे।।
करत ध्यान अभ्यास निरन्तर।
तब होइहहिं प्रकाश उर अंतर।।
देखहहिं शुद्ध स्वरूप तुम्हारा।
अनुभव गम्य विवेक सहारा।।
सदा एक रस जीवन भोगी।
ब्रह्म रूप तब होइहहिं योगी।।
यज्ञ स्थल तब धाम शुभ्रतर।
हवन यज्ञ जहँ होत निरंतर।।
सिद्धासन बैठे योगी जन।
ध्यान मग्न अविचल अन्तर्मन।।
अनुभव करहिं प्रकाश तुम्हारा।
होकर द्वैत भाव से न्यारा।।
पाठ करत बहुधा सकाम नर।
पूर्ण होत अभिलाषा - शीघ्रतर।।
नर - नारी गण युग कर जोरे।
विनवत चरण परत प्रभु तोरे।।
भूत पिशाच प्रकट होई बोले।
गुप्त रहस्य शीघ्र ही खोले।।
ब्रह्म तेज तव सहा न जाई।
छोड़ देह तब चले पराई।।

दोहा:-
पूर्ण काम हरसू सदा, पूरण कर सब काम।
परम तेजमय बसहु तुम, भक्तन के उर धाम।।

लक्ष्य और उद्देश्य



रेगिस्तान में कई ऊंट अपने मालिक के साथ जा रहे थे अंधेरा होता देख मालिक एक सराय में रुकने का आदेश दे दिया।
निन्यानवे ऊंटों को जमीन में खूंटियां गाड़कर उन्हें रस्सियों से बांध दिया मगर एक ऊंट के लिए खूंटी और रस्सी कम पड़ गई सराय में खोजबीन की, पर व्यवस्था हो नहीं पाई।
तब सराय के मालिक ने सलाह दी कि तुम खूंटी गाड़ने जैसी चोट करो और ऊंट को रस्सी से बांधने का अहसास करवाओ।
यह बात सुनकर मालिक हैरानी में पड़ गया पर दूसरा कोई रास्ता नहीं था इसलिए उसने वैसा ही किया झूठी खूंटी गाड़ी गई  चोटें की गईं ऊंट ने चोटें सुनीं और समझ लिया कि बंध चुका है वह बैठा और सो गया।
सुबह निन्यानबे ऊंटों की खूटियां उखाड़ीं और रस्सियां खोलीं सभी ऊंट उठकर चल पड़े पर एक ऊंट बैठा रहा मालिक को आश्चर्य हुआ अरे यह तो बंधा भी नहीं है फिर भी उठ नहीं रहा है।
सराय के मालिक ने समझाया तुम्हारे लिए वहां खूंटी का बंधन नहीं है मगर ऊंट के लिए है जैसे रात में व्यवस्था की वैसे ही अभी खूंटी उखाड़ने और बंधी रस्सी खोलने का अहसास करवाओ मालिक ने खूंटी उखाड़ दी जो थी ही नहीं अभिनय किया और रस्सी खोल दी जिसका कोई अस्तित्व नहीं था इसके बाद ऊंट उठकर चल पड़ा।
न केवल ऊंट बल्कि मनुष्य भी ऐसी ही(धर्म,रीति रिवाज) खूंटियों से और रस्सियों से बंधे होते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता मनुष्य बंधता है अपने ही गलत दृष्टिकोण से मिथ्या सोच से विपरीत मान्यताओं की पकड़ से ऐसा व्यक्ति सच को झूठ और झूठ को सच मानता है वह दोहरा जीवन जीता है। उसके आदर्श और आचरण में लंबी दूरी होती है इसलिए जरूरी है कि मनुष्य का मन जब भी जागे लक्ष्य का निर्धारण सबसे पहले करे बिना उद्देश्य मीलों तक चलना सिर्फ थकान भटकाव और नैराश्य देगा मंज़िल नहीं।"

Monday, 17 December 2018

आशावादी आस्तिक

विचार मंथन
आशावादी आस्तिक
आशावाद आस्तिकता है। सिर्फ नास्तिक ही निराशावादी हो सकता है। आशावादी ईश्वर का डर मानता है, विनयपूर्वक अपना अन्तर नाद सुनता है, उसके अनुसार बरतता है और मानता है कि ‘ईश्वर जो करता है वह अच्छे के लिये ही करता है।’
निराशावादी कहता है ‘मैं करता हूँ।’ अगर सफलता न मिले तो अपने को बचाकर दूसरे लोगों के मत्थे दोष मढ़ता है, भ्रमवश कहता है कि “किसे पता ईश्वर है या नहीं’, और खुद अपने को भला तथा दुनिया को बुरा मानकर कहता है कि ‘मेरी किसी ने कद्र नहीं की’ ऐसा व्यक्ति एक प्रकार का आत्मघात कर लेता है और मुर्दे की तरह जीवन बिताता है।

Sunday, 16 December 2018

भगवान ही आपकी बात को सुनता है

मीरा जी जब भगवान कृष्ण के लिए गाती थी तो भगवान बड़े ध्यान से सुनते थे।
सूरदास जी जब पद गाते थे तब भी भगवान सुनते थे।
और कहाँ तक कहूँ कबीर जी ने तो यहाँ तक कह दिया:- चींटी के पग नूपुर बाजे वह भी साहब सुनता है।
एक चींटी कितनी छोटी होती है अगर उसके पैरों में भी घुंघरू बाँध दे तो उसकी आवाज को भी भगवान सुनते है।
यदि आपको लगता है की आपकी पुकार भगवान नहीं सुन रहे तो ये आपका वहम है या फिर आपने भगवान के स्वभाव को नहीं जाना।
कभी प्रेम से उनको पुकारो तो सही, कभी उनकी याद में आंसू गिराओ तो सही।
मैं तो यहाँ तक कह सकता हूँ की केवल भगवान ही है जो आपकी बात को सुनता है।
एक छोटी सी कथा संत बताते है:-
एक भगवान जी के भक्त हुए थे, उन्होंने 20 साल तक लगातार भगवत गीता जी का पाठ किया।
अंत में भगवान ने उनकी परिक्षा लेते हुऐ कहा:- अरे भक्त! तू सोचता है की मैं तेरे गीता के पाठ से खुश हूँ, तो ये तेरा वहम है।
मैं तेरे पाठ से बिलकुल भी प्रसन्न नही हुआ।
जैसे ही भक्त ने सुना तो वो नाचने लगा, और झूमने लगा।
भगवान ने बोला:- अरे! मैंने कहा की मैं तेरे पाठ करने से खुश नही हूँ और तू नाच रहा है।
वो भक्त बोला:- भगवान जी आप खुश हो या नहीं हो ये बात मैं नही जानता।
लेकिन मैं तो इसलिए खुश हूँ की आपने मेरा पाठ कम से कम सुना तो सही, इसलिए मैं नाच रहा हूँ।
ये होता है भाव....
थोड़ा सोचिये जब द्रौपती जी ने भगवान कृष्ण को पुकारा तो क्या भगवान ने नहीं सुना?
भगवान ने सुना भी और लाज भी बचाई।
जब गजेन्द्र हाथी ने ग्राह से बचने के लिए भगवान को पुकारा तो क्या भगवान ने नहीं सुना?
बिल्कुल सुना और भगवान अपना भोजन छोड़कर आये।
कबीरदास जी, तुलसीदास जी, सूरदास जी, हरिदास जी, मीरा बाई जी, सेठजी, भाई पोद्दार जी, राधाबाबा जी, श्री रामसुखदास जी और न जाने कितने संत हुए जो भगवान से बात करते थे और भगवान भी उनकी सुनते थे।
इसलिए जब भी भगवान को याद करो उनका नाम जप करो तो ये मत सोचना की भगवान आपकी पुकार सुनते होंगे या नहीं?
कोई संदेह मत करना, बस ह्रदय से उनको पुकारना, तुम्हे खुद लगेगा की हाँ, भगवान आपकी पुकार को सुन रहे है !

Saturday, 15 December 2018

आनंद पर शर्त

आनंद पर शर्त

एक दिन एक उदास पति-पत्नी संत फरीद के पास पहुंचे। उन्होंने विनय के स्वर में कहा,’बाबा, दुनिया के कोने-कोने से लोग आपके पास आते हैं, वे आपसे खुशियां लेकर लौटते हैं। आप किसी को भी निराश नहीं करते। मेरे जीवन में भी बहुत दुख हैं। मुझे उनसे मुक्त कीजिए।’ फरीद ने देखा, सोचा और झटके से झोपड़े के सामने वाले खंभे के पास जा पहुंचे। फिर खंभे को दोनों हाथों से पकड़कर ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाने लगे। शोर सुनकर सारा गांव इकट्ठा हो गया। लोगों ने पूछा कि क्या हुआ तो बाबा ने कहा-‘इस खंभे ने मुझे पकड़ लिया है, छोड़ नहीं रहा है।’ लोग हैरानी से देखने लगे।

एक बुजुर्ग ने हिम्मत कर कहा- ‘बाबा, सारी दुनिया आपसे समझ लेने आती है और आप हैं कि खुद ऐसी नासमझी कर रहे हैं। खंभे ने कहां, आपने खंभे को पकड़ रखा है।’ फरीद खंभे को छोड़ते हुए बोले, ‘यही बात तो तुम सब को समझाना चाहता हूं कि दुख ने तुम्हें नहीं, तुमने ही दुखों को पकड़ रखा है। तुम छोड़ दो तो ये अपने आप छूट जाएंगे।’

 उनकी इस बात पर गंभीरता से सोचें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि हमारे दुख-तकलीफ इसलिए हैं क्योंकि हमने वैसी सोच बना रखी है। ऐसा न हुआ तो क्या होगा और वैसा न हुआ तो क्या हो सकता है। सब दुख हमारी नासमझी और गलत सोच के कारण मौजूद हैं। इसलिए सिर्फ अपनी सोच बदल दीजिए, सारे दुख उसी वक्त खत्म हो जाएंगे। ऐसा नहीं है कि जितने संबुद्ध हुए हैं, उनके जीवन में सब कुछ अच्छा-अच्छा हुआ हो, लेकिन वे 24 घंटे मस्ती में रहते थे। कबीर आज कपड़ा बुन कर बेचते, तब कल उनके खाने का जुगाड़ होता था। लेकिन वह कहते थे कि आनंद झरता रहता है नानक आनंदित होकर एकतारे की तान पर गीत गाते चलते थे। एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सुख और दुख सिर्फ आदतें हैं। दुखी रहने की आदत तो हमने डाल रखी है । सुखी रहने की आदत भी डाल सकते हैं।

एक प्रयोग कीजिए और तुरंत उसका परिणाम भी देख लीजिए। सुबह सोकर उठते ही खुद को आनंद के भाव से भर लीजिए। इसे स्वभाव बनाइए और आदत में शामिल कर लीजिए। यह गलत सोच है कि इतना धन, पद या प्रतिष्ठा मिल जाए तो आनंदित हो जाएंगे। दरअसल, यह एक शर्त है। जिसने भी अपने आनंद पर शर्त लगाई वह आज तक आनंदित नहीं हो सका। अगर आपने बेशर्त आनंदित जीवन जीने का अभ्यास शुरू कर दिया तो ब्रहमांड की सारी शक्तियां आपकी ओर आकर्षित होने लगेंगी।

 क्राइस्ट ने अद्भुत कहा है, ‘पहले तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश करो यानी तुम पहले आनंदित हो जाओ, बाकी सभी चीजें तुम्हें अपने आप मिलती चली जाएंगी।

Friday, 14 December 2018

किसी के फेंके हुए मैले शब्दों को अपने मन में धारण न करें

एक गांव में एक बहुत समझदार और संस्कारी औरत रहती थी। एक बार वह अपने बेटे के साथ सुबह-सुबह कहीं जा रही थी तभी एक पागल औरत उन दोनों मां-बेटे के रास्ते में आ गई और उस लड़के की मां को बहुत बुरा-भला कहने लगी। इस पागल औरत ने लड़के की मां को बहुत सारे अपशब्द कहे लेकिन फिर भी उस औरत की बातों का मां पर कोई असर नहीं हुआ और वह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गई।
जब उस पागल औरत ने देखा कि इस औरत पर तो उसकी बातों का कोई असर ही नहीं हो रहा है, तो वह और भी गुस्सा हो गई और उसने सोचा कि मैं और ज्यादा बुरा बोलती हूं। अब वो पागल औरत उस लड़के की मां, उसके पति और परिवार के लिए भला-बुरा कहने लगी। लड़के की मां फिर भी बिना कुछ बोले आगे बढ़ते रही। काफी देर भला-बुरा कहने के बाद भी जब सामने से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो पागल औरत थककर लड़के की मां के रास्ते से हट गई और दूसरे रास्ते पर चली गई।
उस औरत के जाते ही बेटे ने अपनी मां से पूछा कि मां उस औरत ने आपको इतना बुरा-भला कहा, पिताजी और घर के अन्य लोगों तक के लिए बुरी बातें कही, आपने उस दुष्ट की बातों का कोई जवाब क्यों नहीं दिया? वो औरत कुछ भी जो मन में आया बोलती रही और आप मुस्कुराती रही, क्या आपको उसकी बातों से जरा भी कष्ट नहीं हुआ?
उस समय मां ने बेटे को कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप घर चलने को कहा। जब दोनों अपने घर के अंदर पहुच गए तब मां ने कहा कि तुम यहा बैठो, मैं आती हूं। कुछ देर बाद मां अपने कमरे से कुछ मैले कपड़े लाई और बेटे को बोली कि यह लो, तुम अपने कपड़े उतारकर ये कपड़े पहन लो। इस पर बेटे ने कहा कि ये कपड़े तो बहुत ही गंदे हो रहे हैं और इनमें से तो तेज दुर्गंध आ रही है। बेटे ने उन मैले कपड़ों को हाथ में लेते ही उन्हें दूर फेंक दिया।
अब मां ने बेटे को समझाया कि जब कोई तुमसे बिना मतलब उलझता है और भला-बुरा कहता है, तब उसके मैले शब्दों का असर क्या तुम्हें अपने साफ-सुथरे मन पर होने देना चाहिए? ऐसे समय में गुस्सा होकर अपना साफ-सुथरा मन क्यों खराब करना?
किसी के फेंके हुए मैले अपशब्द हमें अपने मन में धारण करके अपना मन नहीं खराब करना चाहिए और न ही ऐसी किसी बात पर प्रतिक्रिया देकर अपना समय ही नष्ट करना चाहिए। जिस तरह तुम अपने साफ-सुथरे कपड़ों की जगह ये मैले कपड़े धारण नहीं कर सकते, उसी तरह मैं भी उस औरत के फेंके हुए मैले शब्दों को अपने साफ मन में कैसे धारण करती? यही वजह थी कि मुझे उसकी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा।

Thursday, 13 December 2018

अच्छे लोगो के साथ बुरा क्यो होता है

अच्छे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने दिया इसका उत्तर, जाने।
अच्छे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, यह सवाल कई लोगो के मन मे आता होगा। मैंने तो किसी का बुरा नही किया, फिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ। मैं तो सदैव ही धर्म और नीति के मार्ग का पालन करता हूँ, फर मेरे साथ हमेशा बुरा क्यो होता है। ऐसे कई विचार अधिकांश लोगों के मन मे आते होंगे। ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने दिए हैं। एक बार अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि हे वासुदेव! अच्छे और सच्चे बुरे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, इस पर भगवान श्री कृष्ण ने एक कहानी सुनाई। इस कहानी में हर मनुष्य के सवालों का जवाब वर्णित है।
श्री कृष्ण कहते हैं, कि एक नगर में दो पुरूष रहते थे। पहला व्यापारी जो बहुत ही अच्छा इंसान था, धर्म और नीति का पालन करता था, भगवान की भक्ति करता था और मन्दिर जाता था। वह सभी तरह के गलत कामो से दूर रहता था। वहीं दूसरा व्यक्ति जो कि दुष्ट प्रवत्ति का था, वो हमेशा ही अनीति और अधर्म के काम करता था। वो रोज़ मन्दिर से पैसे और चप्पल चुराता था, झूठ बोलता था और नशा करता था। एक दिन उस नगर में तेज बारिश हो रही थी और मन्दिर में कोई नही था, यह देखकर उस नीच व्यक्ति ने मन्दिर के सारे पैसे चुरा लिए और पुजारी की नज़रों से बचकर वहाँ से भाग निकला, थोड़ी देर बाद जब वो व्यापारी दर्शन करने के उद्देश्य से मन्दिर गया तो उस पर चोरी करने का इल्ज़ाम लग गया। वहाँ मौजूद सभी लोग उसे भला – बुरा कहने लगे, उसका खूब अपमान हुआ। जैसे – तैसे कर के वह व्यक्ति मन्दिर से बाहर निकला और बाहर आते ही एक गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी। वो व्यापारी बुरी तरह से चोटिल हो गया।
इस वक्त उस दुष्ट को एक नोटो से भरी पोटली हाथ लगी, इतना सारा धन देखकर वह दुष्ट खुशी से पागल हो गया और बोला कि आज तो मज़ा ही आ गया। पहले मन्दिर से इतना धन मिला और फिर ये नोटों से भरी पोटली। दुष्ट की यह बात सुनकर वह व्यापारी दंग रह गया। उसने घर जाते ही घर मे मौजूद भगवान की सारी तस्वीरे निकाल दी और भगवान से नाराज़ होकर जीवन बिताने लगा। सालो बाद जब उन दोनों की मृत्यु हो गयी और दोनों यमराज के सामने गए तो उस व्यापारी ने नाराज़ स्वर में यमराज से प्रश्न किया कि मैं तो सदैव ही अच्छे कर्म करता था, जिसके बदले मुझे अपमान और दर्द मिला और इस अधर्म करने वाले दुष्ट को नोटो से भरी पोटली…आखिर क्यों? व्यापारी के सवाल पर यमराज बोले जिस दिन तुम्हारे साथ दुर्घटना घटी थी, वो तुम्हारी ज़िन्दगी का आखिरी दिन था, लेकिन तुम्हारे अच्छे कर्मों की वजह से तुम्हारी मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गयी। वही इस दुष्ट को जीवन मे राजयुग मिलने की सम्भावनाएं थी, लेकिन इसके बुरे कर्मो के चलते वो राजयोग एक छोटे से धन की पोटली में बदल गया।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि भगवान हमे किस रूप में दे रहे हैं, ये समझ पाना बेहद कठिन होता है। अगर आप अच्छे कर्म कर रहे हैं और बुरे कर्मो से दूर हैं, तो भगवान निश्चित ही अपनी कृपा आप पर बनाए रखेंगे।
जीवन मे आने वाले दुखों और परेशानियों से कभी ये न समझे कि भगवान हमारे साथ नही है, हो सकता है आपके साथ और भी बुरा होने का योग हो, लेकिन आपके कर्मों की वजह से आप उनसे बचे हुए हो।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई इस रोचक कहानी में मनुष्यों के अधिकांश सवालों के उत्तर मौजूद हैं।

Wednesday, 12 December 2018

अपेक्षा ही दुःख का कारण

अपेक्षा ही दुःख का कारण..

किसी दिन एक मटका और गुलदस्ता साथ में खरीदा हों और घर में लाते ही 50 रूपये का मटका अगर फूट जाएं तो हमें इस बात का दुःख होता हैं

क्योंकि मटका इतनी जल्दी फूट जायेगा ऐसी हमें कल्पना भी नहीं थीं।

परंतु गुलदस्ते के फूल जो 200 रूपये के हैं, वो शाम तक मुर्झा जाएं.. तो भी हम दुःखी नहीं होते।
क्योंकि ऐसा होने वाला ही हैं..यह हमें पता ही था।

मटके की इतनी जल्दी फूटने की हमें अपेक्षा ही नहीं थीं..

तो फूटने पर दुःख का कारण बना।
परंतु​ फूलों से अपेक्षा नहीं थीं..
इसलिए​ वे दुःख का कारण नहीं बनें।

इसका मतलब साफ़ हैं कि जिसके लिए जितनी अपेक्षा ज़्यादा..उसकी तरफ़ से उतना दुःख ज़्यादा..
और जिसके लिए जितनी अपेक्षा कम, उसके लिए उतना ही दुःख भी कम ।

शरीर के तीन पाप

शरीर के तीन पापः

अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।

परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम्।।

'पराये हक का लेना, अवैधानिक हिंसा करना, पर-स्त्री का संग करना – ये तीन शारीरिक पाप कहे जाते हैं।'

लोभकृत पापः आपके पास जो भी चीज है, वह आपके हक की होनी चाहिए। पिता-पितामह की तरफ से वसीयत के रूप में मिली हो, अपने परिश्रम से न्यायपूर्वक प्राप्त की हो, खरीदी हो, किसी ने दी हो अथवा किसी राज्य पर विजय हासिल कर प्राप्त की हो तो भी ठीक है। किंतु किसी की वस्तु को उसकी अनुमति अथवा जानकारी के बिना ले लेना यह शारीरिक पाप है। जो वस्तु आपके हक की नहीं है, जो आपको दी भी नहीं गयी है ऐसी दूसरे की वस्तु को हड़प लेना यह लोभकृत पाप है।

क्रोधकृत पापः हिंसा चैवाविधानतः। जो धर्मानुसार एवं संविधानुसार नहीं है ऐसे कृत्य का आचरण यह शारीरिक पाप है। जिससे अपनी और अपने पड़ोसी की, दोनों की लौकिक, पारलौकिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हो, उसमें रूकावट न आये ऐसा कर्म धर्म है और ऐसे धर्म को भंग करना यह पाप है।

हिंसा दो प्रकार की होती हैः कानूनी और गैर-कानूनी। जब जल्लाद किसी को फाँसी पर लटकाता है, सैनिक आक्रमणकारी शत्रुदेश के सैनिक पर बंदूक चलाता है तो यह कानूनी हिंसा अपराध नहीं मानी जाती, वरन् उसके लिए वेतन दिया जाता है। हमारे शास्त्रीय संविधान के विरुद्ध जो हिंसा है वह हमारे जीवन में नहीं होनी चाहिए। मानवता को सुदृढ़ बनाने कि लिए, सुरक्षित रखने के लिए और गौरवान्वित करने के लिए हमारे जीवन से, वाणी से, सकल्प से किसी को कष्ट न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। हम जो करें, जो कुछ बोलें, जो कुछ लें, जो कुछ भोगें, उससे अन्य को तकलीफ न हो इसका यथासंभव ध्यान रखना चाहिए। यह मानवता का भूषण है।

कामकृत पापः पर-स्त्री के साथ संबंध यह कामकृत पाप है।

न ही दृशं अनावेश्यं लोके किंचन विद्यते।

पर स्त्री के साथ संबंध से बढ़कर शरीर को रोग देने वाला, मृत्यु देने वाला, आयुष्य घटाने वाला अन्य कोई दोष नहीं है। मानव की मर्यादा का यह उल्लंघन है। यह मर्यादा मानव की खास-विशेषता है। पशु, पक्षी, देवता अथवा दैत्यों में यह मर्यादा नहीं होती।

जैसे लोभ एक विकार है, क्रोध एक विकार है, वैसे ही काम भी एक विकार है। यह परंपरा से आता है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के मन में भी यह था। इस प्राकृतिक प्रवाह को मर्यादित करने का उपाय अन्य किसी योनि में नहीं है। मनुष्य जीवन में ही उपाय है कि विवाह संस्कार के द्वारा माता-पिता, सास-ससुर एवं अग्नि को साक्षी बनाकर विवाह का संबंध जोड़ा जाता है। उस विवाह के बाद ही पति-पत्नी यज्ञ के अधिकारी होते हैं। 'पत्नी' शब्द का भी इसी अर्थ में उपयोग किया जाता है – 'त्युनो यज्ञसंयोग।' यज्ञ में, धर्मकार्य में जो सहधर्मिणी हो, सहभागिनी हो वह है पत्नी। यह पवित्र विवाह संस्कार धर्म की दृष्टि से मानव को सर्वोत्कृष्ट, संयमी एवं मर्यादित बनाता है। जिससे मानवता की सुरक्षा होती है उस आचार, विचार, विधि, संस्कार एवं मर्यादा का पालन मानव को अवश्य करना चाहिए। मर्यादा अर्थात् क्या ? 'मर्यि' अर्थात् मानव जिसे धर्मानुसार, ईश्वरीय संविधान के अनुसार आत्म-दृष्टि से, मानवता की दृष्टि से अपने जीवन में स्वीकार करे। जिसमें कोई मर्यादा नहीं है वह मर्यादाहीन जीवन मनुष्य जीवन नहीं, पशु जीवन कहलाता है।

यहाँ हमने मानवता को दूषित करने वाली चीजों की मीमांसा की। उनसे सावधानीपूर्वक बचना चाहिए। अब मनुष्यता को उज्जवल करने वाली बातों के विषय में विचार करेंगे। इन बातों को, मानवता की इन विशेषताओं को समझे। धर्म को कहीं से उधार नहीं लेना है अपितु वह हमारे ही अंदर स्थित है, उसे प्रगट करना पड़ता है। हीरे में चमक बाहर से नहीं भरनी पड़ती, किंतु हीरे को घिसकर उसके भीतर की चमक को प्रगट करना पड़ता है।

Sunday, 9 December 2018

भगवान से रिश्ता हो

।। भगवान से रिश्ता हो ।।

एक बार ऐसा हुआ कि एक पंडित जी थे।
पंडित जी ने एक दुकानदार के पास पाँच सौ रुपये रख दिये,उन्होंने सोचा कि जब बच्ची की शादी होगी, तो पैसा ले लेंगे,थोड़े दिनों के बाद जब बच्ची सयानी हो गयी, तो पंडित जी उस दुकानदार के पास गये।
उसने नकार दिया कि आपने कब हमें पैसा दिया था। उसने पंडित जी से कहा कि क्या हमने कुछ लिखकर दिया है,पंडित जी इस हरकत से परेशान हो गये और चिन्ता में डूब गये।
थोड़े दिन के बाद उन्हें याद आया कि क्यों न राजा से इस बारे में शिकायत कर दें ताकि वे कुछ फैसला कर दें एवं मेरा पैसा कन्या के विवाह के लिए मिल जाये।
वे राजा के पास पहुँचे तथा अपनी फरियाद सुनाई।
राजा ने कहा-कल हमारी सवारी निकलेगी,तुम उस लालाजी की दुकान के पास खड़े रहना।
राजा की सवारी निकली। सभी लोगों ने फूलमालाएँ पहनायीं, किसी ने आरती उतारी।
पंडित जी लालाजी की दुकान के पास खड़े थे।
राजा ने कहा-गुरुजी आप यहाँ कैसे, आप तो हमारे गुरु हैं?
आइये इस बग्घी में बैठ जाइये,लालाजी यह सब देख रहे थे,उन्होंने आरती उतारी, सवारी आगे बढ़ गयी।
थोड़ी दूर चलने के बाद राजा ने पंडित जी को उतार दिया और कहा कि पंडित जी हमने आपका काम कर दिया।
अब आगे आपका भाग्य।
उधर लालाजी यह सब देखकर हैरान थे कि पंडित जी की तो राजा से अच्छी साँठ-गाँठ है।
कहीं वे हमारा कबाड़ा न करा दें।
लालाजी ने अपने मुनीम को पंडित जी को ढूँढ़कर लाने को कहा-पंडित जी एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ विचार कर रहे थे,मुनीम जी आदर के साथ उन्हें अपने साथ ले गये।
लालाजी ने प्रणाम किया और बोले-पंडित जी हमने काफी श्रम किया तथा पुराने खाते को देखा, तो पाया कि हमारे खाते में आपका पाँच सौ रुपये जमा है।
पंडित जी दस साल में ब्याज के बारह हजार रुपये हो गये,पंडित जी आपकी बेटी हमारी बेटी है।
अत: एक हजार रुपये आप हमारी तरफ से ले जाइये तथा उसे लड़की की शादी में लगा देना,इस प्रकार लालाजी ने पंडित जी को तेरह हजार रुपये देकर प्रेम के साथ विदा किया,जब.... मात्र एक राजा के साथ सम्बंध होने भर से विपदा दूर जो जाती है तो हम सब भी अगर इस दुनिया के राजा, दीनदयालु भगवान .से अगर अपना सम्बन्ध जोड़ लें...............तो आपकी कोई समस्या, कठिनाई या फिर आपके साथ अन्याय का .....कोई प्रश्न ही नही उत्पन्न होता।।

Saturday, 8 December 2018

हमारी भावनाऐं और हमारा विकाश

हमारी भावनाऐं और हमारा विकाश.

एक गरीब आदमी राह पर चलते भिखारियों को देखकर हमेंशा दु:खी होता और भगवान से प्रार्थना करता कि:- “हे भगवान! मुझे इस लायक तो बनाता कि मैं इन बेचारे भिखारियों को कम से कम 1 रूपया दे सकता।
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“भगवान ने उसकी सुन ली और उसे एक अच्छी कम्पनी में काम मिल गया।

अब उसे जब भी कोई भिखारी दिखाई देता, वह उन्हें 1 रूपया अवश्य देता, लेकिन वह 1 रूपया देकर सन्तुष्ट नहीं था।
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इसलिए वह जब भी भिखारियोंको 1 रूपए का दान देता, ईश्वर से प्रार्थना करता कि:- “हे भगवान! 1 रूपए में इन बेचारों का क्या होगा?
कम से कम मुझे ऐसा तो बनाता कि मैं इन बेचारे भिखारियों को 10 रूपया दे सकता। एक रूपए में आखिर होता भी क्या है"

संयोग से कुछ समय बाद उसी कम्पनी में उसकी तरक्की हो गई और वह उसी कम्पनी में मेनेजर बन गया, जिससे उसका स्तर ऊंचा हो गया। उसने अच्छी सी महंगी कार खरीद ली, बडा घर बनवा लिया।

फिर भी उसे जब भी कोई भिखारी दिखाई देता, वह अपनी अपनी कार रोककर उन्हें 100 रूपया दे देता, मगर फिर भी उसे खुशी नहीं थी।
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वह अब भी भगवान से प्रार्थना करता कि:“100 रूपए में इन बेचारों का क्या भला होता होगा?
काश मैं ऐसा बन पाता कि जो भी भिखारी मेरे सामने से गुजरता, वो भिखारी ही न रह जाता।“संयोग से नियति ने फिर उसका साथ दिया और वो कॉर्पोरेट जगत का चेयरमैन चुन लिया गया।
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अब उसके पास धन की कोई कमी नहीं थी। मंहगी कार, बंगला, प्रथम श्रेणी का रेल टिकट आदि उसके लिए अब पुरानी बातें हो चुकी थीं। अब वह हमेंशा अपने स्वयं के हवाई जहाज में ही सफर करता था और एक शहर से दूसरे शहर नहीं बल्कि एक देश से दूसरे देश में घूमता था।

लेकिन गरीब, निर्धनों के प्रति उसकी प्रार्थनाऐं अभी भी वैसी ही थीें, जैसी तब थीं, जब वह एक गरीब व्यक्ति था।
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इस लघु कथा का सार यह है कि आपकी नियति या आपका भाग्य अापकी भावनाओं पर ही निर्भर करता है।

आप जैसी भावनाऐं रखते हैं, वैसे ही बनते जाते हैं। इसलिए आप जैसा बनना चाहते हैं, वैसी ही भावनाऐं रखिये।

प्रेम मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है


एक बार संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थीं। पुस्तक में एक जगह लिखा था,
"शैतान से घृणा करो, प्रेम से नहीं।" राबिया ने वह लाइन काट दी।
कुछ दिन बाद उनसे मिलने एक संत आए। वह उस पुस्तक को पढ़ने लगे। उन्होंने कटा हुआ वाक्य देख कर सोचा कि किसी नासमझ ने उसे काटा होगा। उसे धर्म का ज्ञान नहीं होगा।
उन्होंने राबिया को वह पंक्ति दिखा कर कहा- "जिसने यह पंक्ति काटी है वह जरूर नास्तिक होगा।"
राबिया ने कहा- "इसे तो मैंने ही काटा है।"
संत ने अधीरता से कहा- "तुम इतनी महान संत होकर यह कैसे कह सकती हो कि शैतान से घृणा मत करो। शैतान तो इंसान का दुश्मन होता है।"
इस पर राबिया ने कहा- "पहले मैं भी यही सोचती थी कि शैतान से घृणा करो। लेकिन उस समय मैं प्रेम को समझ नहीं सकी थी। लेकिन जब से मैं प्रेम को समझी, तब से बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं कि घृणा किससे करूं। मेरी नजर में घृणा लायक कोई नहीं है।"
संत ने पूछा- "क्या तुम यह कहना चाहती हो कि जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें।"
राबिया बोली- "प्रेम किया नहीं जाता। प्रेम तो मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है। जो ईश्वर को भीतर जान लेने के पश्चात ही उसका स्फुरण होता है। प्रेम के अंकुरित होने पर मन के अंदर घृणा के लिए कोई जगह नहीं होगी।
हम सबकी एक ही तकलीफ है। हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता। यह कोई नहीं सोचता ,कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं है, यह देने की चीज है। हम प्रेम देते हैं। यदि शैतान से प्रेम करोगे तो वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।"
संत ने कहा- "अब समझा, राबिया! तुमने उस पंक्ति को काट कर ठीक ही किया है। दरअसल हमारे ही मन के अंदर प्रेम करने का अहंकार भरा है। इसलिए हम प्रेम नहीं करते, प्रेम करने का नाटक करते हैं। यही कारण है कि संसार में नफरत और द्वेष फैलता नजर आता है।"

प्रेम का पौधा अन्तर्घट(ह्रदय) में उगता है ,बाहरी जमीं पर नहीं और वह पूर्ण संत के सान्निध्य में पुष्पित एवं पल्लवित और खुशनुमा होता है!

Sunday, 18 November 2018

सुनो नव-युगल

सुनो नव-युगल

राधिका और नवीन को आज तलाक के कागज मिल गए थे ।दोनो साथ ही कोर्ट से बाहर निकले। दोनो के परिजन साथ थे और उनके चेहरे पर विजय और सुकून के निशान साफ झलक रहे थे,चार साल की लंबी लड़ाई के बाद आज फैसला हो गया था।

दस साल हो गए थे शादी को मगर साथ में छः साल ही रह पाए थे क्योंकि चार साल तो तलाक की कार्यवाही में लग गए ।

राधिका के हाथ मे दहेज के समान की लिस्ट थी जो अभी नवीन के घर से लेना था और नवीन के हाथ मे गहनों की लिस्ट थी जो राधिका से लेने थे ।

साथ मे कोर्ट का यह आदेश भी था कि नवीन दस लाख रुपये की राशि एकमुश्त राधिका को चुकाएगा ।

राधिका और नवीन दोनो एक ही टेम्पो में बैठकर नवीन के घर पहूँचे,दहेज में दिए समान की निशानदेही राधिका को करनी थी ।

इसलिए चार वर्ष बाद ससुराल जा रही थी, आखरी बार बस उसके बाद कभी नही आना था उधर ।

सभी परिजन अपने अपने घर जा चुके थे,बस तीन प्राणी बचे थे, नवीन, राधिका और राधिका की माता जी ।

नवीन घर मे अकेला ही रहता था,मां-बाप और भाई आज भी गांव में ही रहते हैं।

राधिका और नवीन का इकलौता बेटा जो अभी सात वर्ष का है कोर्ट के फैसले के अनुसार बालिग होने तक वह राधिका के पास ही रहेगा,नवीन महीने में एक बार उससे मिल सकता है ।

घर मे प्रवेश करते ही पुरानी यादें ताज़ी हो गई,कितनी मेहनत से सजाया था इसको राधिका ने,एक एक चीज में उसकी जान बसी थी ।

सब कुछ उसकी आँखों के सामने बना था,एक एक ईंट से धीरे धीरे बनते घरोंदे को पूरा होते देखा था ।

उसने,सपनो का घर था उसका, कितनी शिद्दत से नवीन ने उसके सपने को पूरा किया था ।

नवीन थका हारा सा सोफे पर पसर गया, बोला "ले लो जो कुछ भी चाहिए मैं तुझे नही रोकूंगा"

राधिका ने अब गौर से नवीन को देखा,चार साल में कितना बदल गया है,बालों में सफेदी झांकने लगी है,शरीर पहले से आधा रह गया है,चार साल में चेहरे की रौनक गायब हो गई ।

वह स्टोर रूम की तरफ बढ़ी जहाँ उसके दहेज का अधिकतर समान पड़ा था,सामान ओल्ड फैशन का था इसलिए कबाड़ की तरह स्टोर रूम में डाल दिया था, मिला भी कितना था उसको दहेज, प्रेम विवाह था दोनो का,घर वाले तो मजबूरी में साथ हुए थे ।

प्रेम विवाह था तभी तो नजर लग गई किसी की। क्योंकि प्रेमी जोड़ी को हर कोई टूटता हुआ देखना चाहता है ।

बस एक बार पीकर बहक गया था नवीन, हाथ उठा बैठा था उस पर,बस वो गुस्से में मायके चली गई थी, फिर चला था लगाने सिखाने का दौर ।

इधर नवीन के भाई भाभी और उधर राधिका की माँ। नौबत कोर्ट तक जा पहुंची और तलाक हो गया ।

न राधिका लौटी और न नवीन लाने गया।

राधिका की माँ बोली "कहाँ है तेरा सामान ? इधर तो नही दिखता, बेच दिया होगा इस शराबी ने ?"

"चुप रहो माँ" राधिका को न जाने क्यों नवीन को उसके मुँह पर शराबी कहना अच्छा नही लगा ।

फिर स्टोर रूम में पड़े सामान को एक एक कर लिस्ट में मिलाया गया।

बाकी कमरों से भी लिस्ट का सामान उठा लिया गया ।

राधिका ने सिर्फ अपना सामान लिया नवीन के समान को छुवा भी नहीं।  फिर राधिका ने नवीन को गहनों से भरा बैग पकड़ा दिया।

नवीन ने बैग वापस राधिका को दे दिया " रखलो, मुझे नही चाहिए काम आएगें तेरे मुसीबत में "

गहनों की किम्मत 15 लाख से कम नही थी।

"क्यूँ, कोर्ट में तो तुम्हरा वकील कितनी दफा गहने-गहने चिल्ला रहा था"

"कोर्ट की बात कोर्ट में खत्म हो गई, राधिका, वहाँ तो मुझे भी दुनिया का सबसे बुरा जानवर और शराबी साबित किया गया है,सुनकर राधिका की माँ ने नाक भों चढ़ाई ।

"नहीं चाहिए वो दस लाख भी नहीं चाहिए"

"क्यूँ ?" कहकर नवीन सोफे से खड़ा हो गया ।

"बस यूँ ही" राधिका ने मुँह फेर लिया।

 "इतनी बड़ी जिंदगी पड़ी है कैसे काटोगी ? ले जाओ,काम आएगें"

इतना कह कर नवीन ने भी मुंह फेर लिया और दूसरे कमरे में चला गया, शायद आंखों में कुछ उमड़ा होगा जिसे छुपाना भी जरूरी था ।

राधिका की माता जी गाड़ी वाले को फोन करने में व्यस्त थी  ।

राधिका को मौका मिल गया,वो नवीन के पीछे उस कमरे में चली गई ।

वो रो रहा था,अजीब सा मुँह बना कर ।

जैसे भीतर के सैलाब को दबाने दबाने की जद्दोजहद कर रहा हो, राधिका ने उसे कभी रोते हुए नहीं देखा था, आज पहली बार देखा न जाने क्यों दिल को कुछ सुकून सा मिला,मग़र ज्यादा भावुक नही हुई ।

सधे अंदाज में बोली "इतनी फिक्र थी तो क्यों दिया तलाक ?"

"मैंने नही तलाक तुमने दिया"

"दस्तखत तो तुमने भी किए"

"माफी नही माँग सकते थे ?"

"मौका कब दिया तुम्हारे घर वालों ने। जब भी फोन किया काट दिया।"

"घर भी आ सकते थे"?

"हिम्मत नही थी?"

राधिका की माँ आ गई। वो उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले गई।

"अब क्यों मुँह लग रही है इसके ? अब तो रिश्ता भी खत्म हो गया"

माँ - बेटी बाहर बरामदे में सोफे पर बैठकर गाड़ी का इंतजार करने लगी,राधिका के भीतर भी कुछ टूट रहा था,दिल बैठा जा रहा था,वो सुन्न सी पड़ती जा रही थी,जिस सोफे पर बैठी थी उसे गौर से देखने लगी,कैसे कैसे बचत कर के उसने और नवीन ने वो सोफा खरीदा था। पूरे शहर में घूमी तब यह पसन्द आया था ।

फिर उसकी नजर सामने तुलसी के सूखे पौधे पर गई,कितनी शिद्दत से देखभाल किया करती थी,उसके साथ तुलसी भी घर छोड़ गई ।

घबराहट और बढ़ी तो वह फिर से उठ कर भीतर चली गई ,माँ ने पीछे से पुकारा मगर उसने अनसुना कर दिया, नवीन बेड पर उल्टे मुंह पड़ा था, एक बार तो उसे दया आई उस पर, मग़र  वह जानती थी कि अब तो सब कुछ खत्म हो चुका है इसलिए उसे भावुक नही होना है ।

उसने सरसरी नजर से कमरे को देखा। अस्त व्यस्त हो गया है पूरा कमरा,कहीं कहीं तो मकड़ी के जाले झूल रहे हैं।

कितनी नफरत थी उसे मकड़ी के जालों से ?

फिर उसकी नजर चारों और लगी उन फोटो पर गई जिनमे वो नवीन से लिपट कर मुस्करा रही थी।
   
कितने सुनहरे दिन थे वो !

इतने में माँ फिर आ गई। हाथ पकड़ कर फिर उसे बाहर ले गई।

बाहर गाड़ी आ गई थी, सामान गाड़ी में डाला जा रहा था,राधिका सुन्न सी बैठी थी, नवीन गाड़ी की आवाज सुनकर बाहर आ गया।

अचानक नवीन कान पकड़ कर घुटनो के बल बैठ गया।

बोला--" मत जाओ माफ कर दो"

शायद यही वो शब्द थे जिन्हें सुनने के लिए चार साल से तड़प रही थी। सब्र के सारे बांध एक साथ टूट गए। राधिका ने कोर्ट के फैसले का कागज निकाला और फाड़ दिया ।

और मां कुछ कहती उससे पहले ही लिपट गई नवीन से। साथ में दोनो बुरी तरह रोते जा रहे थे।
दूर खड़ी राधिका की माँ समझ गई कि कोर्ट का आदेश दिलों के सामने कागज से ज्यादा कुछ नहीं।
   
काश उनको पहले मिलने दिया होता ?

तो हे युगल दंपत्ति आपसे मेरी एक प्रार्थना है कि यदि आपस में कोई बात बिगड़ जाए तो एक को झुक कर माफी मांँग लेनी चाहिए ना कि इसे अपना ईगो बना लेवे ।

Friday, 16 November 2018

मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...


मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
मुझे हर उस बात पर प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए जो मुझे चिंतित करती है।

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
जिन्होंने मुझे चोट दी है मुझे उन्हें चोट नहीं देनी है।

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
शायद सबसे बड़ी समझदारी का लक्षण भिड़ जाने के बजाय अलग हट जाने में है

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
अपने साथ हुए प्रत्येक बुरे बर्ताव पर प्रतिक्रिया करने में आपकी जो ऊर्जा खर्च होती है वह आपको खाली कर देती है और आपको दूसरी अच्छी चीजों को देखने से रोकती है

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
मैं हर आदमी से वैसा व्यवहार नहीं पा सकूंगा जिसकी मैं अपेक्षा करता हूँ।

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
किसी का दिल जीतने के लिए बहुत कठोर प्रयास करना समय और ऊर्जा की बर्बादी है और यह आपको कुछ नहीं देता, केवल खालीपन से भर देता है।

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
जवाब नहीं देने का अर्थ यह कदापि नहीं कि यह सब मुझे स्वीकार्य है, बल्कि यह कि मैं इससे ऊपर उठ जाना बेहतर समझता हूँ।

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
कभी-कभी कुछ नहीं कहना सब कुछ बोल देता है।

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
किसी परेशान करने वाली बात पर प्रतिक्रिया देकर आप अपनी भावनाओं पर नियंत्रण की शक्ति किसी दूसरे को दे बैठते हैं।

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
मैं कोई प्रतिक्रिया दे दूँ तो भी कुछ बदलने वाला नहीं है। इससे लोग अचानक मुझे प्यार और सम्मान नहीं देने लगेंगे। यह उनकी सोच में कोई जादुई बदलाव नहीं ला पायेगा।

 मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ कि...
जिंदगी तब बेहतर हो जाती है जब आप इसे अपने आसपास की घटनाओं पर केंद्रित करने के बजाय उसपर केंद्रित कर देते हैं जो आपके अंतर्मन में घटित हो रहा है।

आप अपने आप पर और अपनी आंतरिक शांति के लिए काम करिए और आपको बोध होगा कि चिंतित करने वाली हर छोटी-छोटी बात पर प्रतिक्रिया 'नहीं' देना एक स्वस्थ और प्रसन्न जीवन का 'प्रथम अवयव' है।

Wednesday, 14 November 2018

प्रतिकूलतायें जीवन को प्रखर बनाती हैं

प्रतिकूलतायें जीवन को प्रखर बनाती हैं

आग के बिना न भोजन पकता है, न सर्दी दूर होती है और न ही धातुओं का गलाना- ढलाना सम्भव हो पाता है। आदर्शों की परिपक्वता के लिए यह आवश्यक है कि उनके प्रति निष्ठा की गहराई कठिनाइयों की कसौटी पर कमी और खरे- खोटे की यथार्थता समझी जा सके। बिना तपे सोने को प्रमाणिक कहाँ माना जाता है? उसका उपयुक्त मूल्य कहाँ मिलता है? यह तो प्रारंभिक कसौटी है।

कठिनाइयों के कारण उत्पन्न हुई असुविधाओं को सभी जानते हैं। इसलिए उनसे बचने का प्रयत्न भी करते हैं। इसी प्रयत्न के लिए मनुष्य को दूरदर्शिता अपनानी पड़ती है और उन उपायों को ढूँढना पड़ता है, जिनके सहारे विपत्ति से बचना सम्भव हो सके। यही है वह बुद्धिमानी जो मनुष्यों को यथार्थवादी और साहसी बनाती है। जिननेकठिनाईयों में प्रतिकूलता को बदलने के लिए पराक्रम नहीं किया, समझना चाहिए कि उन्हे सुदृढ़ व्यक्तित्व के निर्माण का अवसर नहीं मिला। कच्ची मिट्टी के बने बर्तन पानी की बूँद पड़ते ही गल जाते हैं। किन्तु जो देर तक आँवे की आग सहते हैं, उनकी स्थिरता, शोभा कहीं अधिक बढ़ जाती है।

तलवार पर धार रखने के लिए उसे घिसा जाता है। जमीन से सभी धातुऐँ कच्ची ही निकलती हैं। उनका परिशोधन भट्ठी के अतिरिक्त और किसी उपाय से सम्भव नहीं। मनुष्य कितना विवेकवान, सिद्धन्तवादी और चरित्रनिष्ठ है, इसकी परीक्षा विपत्तियों में से गुजरकर इस तप- तितीक्षा में पक कर ही हो पाती है।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य

महाभारत के युद्ध के बाद

महाभारत के युद्ध के बाद

18 दिन के युद्ध ने द्रोपदी की उम्र को 80 वर्ष जैसा कर दिया था शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी। उसकी आंखे मानो किसी खड्डे में धंस गई थी, उनके नीचे के काले घेरों ने उसके रक्ताभ कपोलों को भी अपनी सीमा में ले लिया था। श्याम वर्ण और अधिक काला हो गया था । युद्ध से पूर्व प्रतिशोध की ज्वाला ने जलाया था और युद्ध के उपरांत पश्चाताप की आग तपा रही थी । ना कुछ समझने की क्षमता बची थी ना सोचने की । कुरूक्षेत्र मेें चारों तरफ लाशों के ढेर थे । जिनके दाह संस्कार के लिए न लोग उपलब्ध थे न साधन । शहर में चारों तरफ विधवाओं का बाहुल्य था पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ता था अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे और उन सबकी वह महारानी द्रौपदी हस्तिनापुर केे महल मेंं निश्चेष्ट बैठी हुई शूूूून्य को ताक रही थी । तभी कृष्ण कक्ष में प्रवेश करते हैं !

महारानी द्रौपदी की जय हो ।
द्रौपदी कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती है कृष्ण उसके सर को सहलातेे रहते हैं और रोने देते हैं थोड़ी देर में उसे खुद से अलग करके समीप के पलंग पर बिठा देते हैं ।

द्रोपती :- यह क्या हो गया सखा ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।
कृष्ण :-नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती हमारे कर्मों को परिणामों में बदल देती है तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी और तुम सफल हुई द्रौपदी ! तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ । सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं सारे कौरव समाप्त हो गए तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !
द्रोपती:-सखा तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उन पर नमक छिड़कने के लिए !
कृष्ण :-नहीं द्रौपदी मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूं । हमारे कर्मों के परिणाम को हम दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं तो हमारे हाथ मेें कुछ नहीं रहता ।
द्रोपती :-तो क्या इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदाई हूं कृष्ण ?
कृष्ण:-नहीं द्रौपदी तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो ।
लेकिन तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी भी दूरदर्शिता रखती तो स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती।
द्रोपती :-मैं क्या कर सकती थी कृष्ण ?
कृष्ण:- जब तुम्हारा स्वयंबर हुआ तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का एक अवसर देती तो शायद परिणाम कुछ और होते !
       इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पांच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती तो भी परिणाम कुछ और होते ।
             और
उसके बाद तुमने अपने महल में  दुर्योधन को अपमानित किया वह नहीं करती तो तुम्हारा चीर हरण नहीं होता तब भी शायद परिस्थितियां कुछ और होती ।

हमारे शब्द भी हमारे कर्म होते हैं द्रोपदी और हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत जरूरी होता है अन्यथा उसके दुष्परिणाम सिर्फ स्वयं को ही नहीं अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।*

संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है
जिसका " जहर "उसके " दांतों " में नही," शब्दों " में है.

     इसलिए शब्दों का प्रयोग सोच समझकर करिये। ऐसे शब्द का प्रयोग करिये जिससे किसी की भावना को ठेस ना पहुंचे।

Tuesday, 13 November 2018

एक क्षण भी कुसंग न करें

एक क्षण भी कुसंग न करें


अच्छे व्यक्तियों का संग करके मानव अनेक सद्गुणों से युक्त होता है, जबकि दुर्व्यसनी एवं दुष्टों का संग करके वह कुमार्गी बन जाता है।


सत्पुरुषों या संतों अथवा परमात्मा के संग को सत्संग कहते है। संत-महात्मा तथा विद्वान हमेशा लोक-परलोक का कल्याण करनेवाली बातें बताकर लोगों को संस्कारित करते हैं, जबकि व्यसनी अपने पास आनेवाले को अपनी तरह के व्यसन में लगाकर उसका लोक-परलोक बिगाड़ देता है।


इसीलिए धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि भूलकर भी व्यसनी, निंदक, नास्तिक तथा कुमार्गी का एक क्षण का भी संग नहीं करना चाहिए।

Sunday, 11 November 2018

पाँच वस्तु ऐसी हे ,जो अपवित्र होते हुए भी पवित्र है

पाँच वस्तु ऐसी हे ,जो अपवित्र होते हुए भी पवित्र है....
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 उच्छिष्टं शिवनिर्माल्यं
        वमनं शवकर्पटम् ।
  काकविष्टा ते पञ्चैते
        पवित्राति मनोहरा॥

1. उच्छिष्ट —  गाय का दूध ।
       गाय का दूध पहले उसका बछड़ा पीकर उच्छिष्ट करता है।फिर भी वह पवित्र ओर शिव पर चढ़ता हे ।

2. शिव निर्माल्यं - गंगा का जल
      गंगा जी का अवतरण स्वर्ग से सीधा शिव जी के मस्तक पर हुआ ।  नियमानुसार शिव जी पर चढ़ायी हुई हर चीज़ निर्माल्य है पर गंगाजल पवित्र है।

3. वमनम्— उल्टी — शहद..
      मधुमख्खी जब फूलों का रस लेकर अपने छत्ते पर आती है , तब वो अपने मुख से उस रस  की शहद के रूप में उल्टी करती है  ,जो पवित्र कार्यों मे उपयोग किया जाता है।

4. शव कर्पटम्— रेशमी वस्त्र
      धार्मिक कार्यों को सम्पादित करने के लिये पवित्रता की आवश्यकता रहती है , रेशमी वस्त्र को पवित्र माना गया है , पर रेशम को बनाने के लिये रेशमी कीडे़ को उबलते पानी में डाला जाता है ओर उसकी मौत हो जाती है उसके बाद रेशम मिलता है तो हुआ शव कर्पट फिर भी पवित्र है ।

5. काक विष्टा— कौए का मल
   कौवा पीपल  पेड़ों के फल खाता है ओर उन पेड़ों के बीज अपनी विष्टा में इधर उधर छोड़ देता है जिसमें से पेड़ों की उत्पत्ति होती है ,आपने देखा होगा की कही भी पीपल के पेड़ उगते नही हे बल्कि पीपल काक विष्टा से उगता है ,फिर भी पवित्र है।

Wednesday, 7 November 2018

पिता स्वर्ग का दरवाजा है

• *पिता की सख्ती बर्दाश करो, ताकी काबील बन सको,*

• पिता की बातें गौर से सुनो, ताकी दुसरो की न सुननी पड़े,

• पिता के सामने ऊंचा मत बोलो वरना भगवान तुमको निचा कर देगा,

• पिता का सम्मान करो, ताकी तुम्हारी संतान तुम्हारा सम्मान करे,

• पिता की इज्जत करो, ताकी इससे फायदा उठा सको,

• पिता का हुक्म मानो, ताकी खुश हाल रह सको,

• पिता के सामने नजरे झुका कर रखो, ताकी भगवान तुमको दुनियां मे आगे करे,

• पिता एक किताब है जिसपर अनुभव लिखा जाता है,

• पिता के आंसु तुम्हारे सामने न गिरे, वरना भगवान तुम्हे दुनिया से गिरा देगा,

• पिता एक ऐसी हस्ती है ...!!!!

माँ का मुकाम तो बेशक़ अपनी जगह है ! पर पिता का भी कुछ कम नही, माँ के कदमों मे स्वर्ग है पर पिता स्वर्ग का दरवाजा है, अगर दरवाज़ा ना ख़ुला तो अंदर कैसे जाओगे ?

जो गरमी हो या सर्दी अपने बच्चों की रोज़ी रोटी की फ़िक्र में परेशान रहता है, ना कोइ पिता के जैसा प्यार दे सकता है ना कर सकता है, अपने बच्चों से !!

याद रख़े सुरज गरम ज़रूर होता है मगर डूब जाए तो अंधेरा छा जाता है,

सभी पिता को समर्पित

Wednesday, 31 October 2018

जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब किताब नही होता है

एक बार एक ग्वालन दूध बेच रही थी और सबको दूध नाप नाप कर दे रही थी । उसी समय एक नौजवान दूध लेने आया तो ग्वालन ने बिना नापे ही उस नौजवान का बरतन दूध से भर दिया।
वही थोड़ी दूर पर एक साधु हाथ में माला लेकर मनको को गिन गिन कर माल फेर था। तभी उसकी नजर ग्वालन पर पड़ी और उसने ये सब देखा और पास ही बैठे व्यक्ति से सारी बात बताकर इसका कारण पूछा ।
उस व्यक्ति ने बताया कि जिस नौजवान को उस ग्वालन ने बिना नाप के दूध दिया है वह उस नौजवान से प्रेम करती है इसलिए उसने उसे बिना नाप के दूध दे दिया ।
यह बात साधु के दिल को छू गयी और उसने सोचा कि एक दूध बेचने वाली ग्वालन जिससे प्रेम करती है तो उसका हिसाब नही रखती और मैं अपने जिस ईश्वर से प्रेम करता हुँ, उसके लिए सुबह से शाम तक मनके गिनगिन कर माला फेरता हुँ। मुझसे तो अच्छी यह ग्वालन ही है और उसने माला तोड़कर फेंक दी।
जीवन भी ऐसा ही है। जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब किताब नही होता है, और जहाँ हिसाब किताब होता है वहाँ प्रेम नही होता है, सिर्फ व्यापार होता ।
अतः प्रेम भलेही वो पत्नी से हो , भाई से हो , बहन से हो , रिश्तेदार से हो, पडोसी से हो , दोस्त से हो या फिर भगवान से । निस्वार्थ प्रेम कीजिये जहाँ कोई गिनती न हो , बस प्रेम हो।

Sunday, 28 October 2018

जीवन में अपना दृष्टिकोण बदलें

कृष्ण कहते हैं जो मनुष्य कर्म करते समय उसे मेरे अर्पण कर देते हैं फिर उसे कोई चिंता नही हो सकती।


         एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म (ईश्वर की खोज) में समय लगाए । राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर अपने गुरु को अपनी समस्याएँ बताते हुए कहा कि उसे राज्य का कोई योग्य वारिस नहीं मिल पाया है । राजा का बच्चा छोटा है, इसलिए वह राजा बनने के योग्य नहीं है । जब भी उसे कोई पात्र इंसान मिलेगा, जिसमें राज्य सँभालने के सारे गुण हों, तो वह राजपाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिए समर्पित कर देगा । गुरु ने कहा, "राज्य की बागड़ोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते ? क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है ?"
राजा ने कहा, "मेरे राज्य को आप से अच्छी तरह भला कौन सम्भाल सकता है ? लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागड़ोर आपके हाथों में सौंप देता हूँ ।"
गुरु ने पूछा, "अब तुम क्या करोगे ?"
राजा बोला, "मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूँगा, जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाए ।"
गुरु ने कहा, "मगर अब खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूँगा ।"
राजा बोला, "फिर ठीक है, "मैं कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा, उससे जो भी मिलेगा गुजारा कर लूँगा ।"
गुरु ने कहा, "अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहाँ एक नौकरी खाली है । क्या तुम मेरे यहाँ नौकरी करना चाहोगे ?"
राजा बोला, "कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूँ ।"
गुरु ने कहा, "मेरे यहाँ राजा की नौकरी खाली है । मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना ।"
एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था । अब तो दोनों ही काम हो रहे थे । जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य सँभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था । अब उसे कोई चिंता नहीं थी ।
इस कथा से ये समझ में आया की वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ ? कुछ भी तो नहीं ! राज्य वही, राजा वही, काम वही; बस दृष्टिकोण बदल गया । इसी तरह हम भी जीवन में अपना दृष्टिकोण बदलें । मालिक बनकर नहीं, बल्कि यह सोचकर सारे कार्य करें की, "मैं ईश्वर कि नौकरी कर रहा हूँ" अब ईश्वर ही जाने । और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें । ये सोचें कि मुझे तो जो जवाबदारी मेरे ठाकुर ने दी है वह पूरी लगन से करना है । फिर आप हर समस्या और परिस्थिति में खुशहाल रह पाएँगे ।। आपने देखा भी होगा की नौकरों को कोई चिंता नहीं होती मालिक का चाहे फायदा हो या नुकसान वो तो मस्त रहते हैं । क्योंकि चिन्ता तो मालिक को होती हैं तो हमें भी अपने मालिक(ठाकुरजी) पर छोड़ देना चाहिए ।

मुझे सुरक्षा मिलनी ही चाहिए

एक बन्दा इलेक्शन मे किस्मत आजमा रहा था, उसे सिर्फ तीन वोट मिले, अब उसने सरकार से जेड प्लस सुरक्षा की मांग की..

जिले के DM ने समझाते हुए कहा “आप को सिर्फ 3 वोट मिले है आप को जेड प्लस कैसे दे सकते है”

आदमी बोला:- “जिस शहर मे इतने लोग मेरे खिलाफ हो तो मुझे सुरक्षा मिलनी ही चाहिए।

Thursday, 25 October 2018

वो बड़ा कंजूस था साहब


         एक छोटी सी कहानी

एक नगर के बहुत बड़े सेठ का आज देंहात हो गया, उसका एक बेटा था, जो सोचने लगा, कौन आयेंगा मेरे पिताजी की मिट्टी में, जीवन भर तो इन्होनें कोई पुण्य, कोई दान धर्म नही किया बस पैंसे के पीछे भागते रहें, सब लोग कहते है ये तो कंजूसों के भी कंजूस थे, फिर कौन इनकी अंतिम यात्रा में शामिल होगा,,

खैर जैसा तैसा कर, रिश्तेदार, कुछ मित्र मिट्टी में शामिल हुये, पर वहाँ भी वही बात, सब एक दूसरे से कहने लगे बड़ा ही कंजूस शख्स था, कभी किसी की मदद नही की, हर वक्त बस पैंसा, पैंसा, यहाँ तक की घरवालों, रिश्तेदारों, तक को भी पैंसे का एक_एक हिसाब ले लेता था, कभी कालोनी के किसी भी कार्यकम्र में एक रूपयें नही दिया, हर वक्त बस ताने दियें, खुद से कर लिया करो, आज देखों दो चार लोग, बस इनकी मिट्टी पर आये हैं,

बहुत देर मिट्टी रोकने के बाद कंजूस सेठ के बेटे को किसी ने कहा, अब कोई नही आयेंगा, इन्हें कोई पसंद नही करता था, एक नम्बर के कंजूस थे, कौन आयेगा इनकी मिट्टी पर, अब श्मशान ले जाने की तैयारी करो, बेटे ने हामी भर दी, शरीर को लोग उठाने लगें,

पर एकाएक उनकी नजर सामने आती भीड़ पर पड़ी, कोई अंधा, कोई लगड़ा, हजारो की संख्या में महिलाए, बुजर्ग बच्चें, सामने नजर आने लगें, और उस कंजूस सेठ के शरीर के पास आकर फूट_फूट कर रोने लगे, ये कहकर मालिक अब हमारा क्या होगा, आप ही तो हमारे माई_बाप थे, कैसें होगा अब, सारे बच्चों ने उस कंजूस सेठ का पैर पकड़ लिया और बिलख_बिलख कर रोने लगे,,, सेठ के बेटे से रहा नही गया, उसने पूछ बैठा कौन है आप सब और क्यूं रो रहें हैं,

पास ही खड़े कंजूस सेठ के मुनीम ने कहा, ये है तुम्हारे पिता की कमाई, कंजूसीयत, ये लोग देख रहें हो,, कोई अंधा कोई अपहिज, लड़कीयाँ, महिलाए, बच्चें तुम्हारे पिता ने ये कमाया है सारी उम्र,,,
तुम जिसें कंजूस कहते हो ये रिश्तेदार, पड़ोसी मित्र जिसे महाकंजूस कहता हैं,,, इन झुग्गी झोपड़ी वालो से पूछो, की बताएंगे, ये कितने दानी थे,
कितने वृध्दाआश्रम, कितने स्कूल, कितनी लड़कियों की शादी, कितनो को भोजन कितनो को नया जीवन आपके इस कंजूस बाप ने दिया हैं, ये वो भीड़ है जो दिल से आयी हैं,, आपके रिश्तेदार पडोसी जैसे नही, जो रस्म पूरी   करने के लिए आये हैं,

फिर उसके बेटे ने पूछा पिताजी ने मुजे ये सब क्यू नही बताया, क्यूं हमें एक_एक पैंसे के लिए तरसतें रहे, क्यू, कालोनी के किसी भी कार्यकम्र में एक भी मदद नही की
मुनीम ने कहा, तुम्हारे पिताजी चाहते थे, तुम पैंसों की कीमत समझों, अपनी खुद की कमाई से सारा बोझ उठाओ, तभी तुम्हें लगें की हाँ पैसा कहा खर्च करना है और क्यूं,
फिर मुनीम ने कहा, ये कालोनी वाले ये मित्र, ये रिश्तेदार,
कभी स्वीमिंग पूल के लिए, कभी शराब, शबाब के लिए, कभी अपना नाम ऊंचा करने के लिए, कभी मंदिरों में अपना नाम लिखवाने के लिए, चंदा मांगते थे, पूछों इन सब से कभी वो आयें इनके पास की सेठ किसी गरीब, बच्ची की शादी, पढाई, भोजन अंधा की ऑख, अपहिजों की साईकिल, किसी गरीब की छत, इनके लिए कभी नही आये, ये तो आये बस खुद को दूसरो से ऊंचा दिखाने के लिए, मौज मस्ती में पैसा उड़ाने के लिए,,,

आज ये भीड़ है ना वो दिल से रो रही हैं, क्यूकि उन्होने वो इंसान खोया हैं, जो कई बार खुद भूखे रहकर, इन गरीबों को खाना खिलाया है, ना जाने कितनी सारी बेटियों की शादी करवाई, कितने बच्चों का भविष्य बनाया,
पर हाँ तुम्हारे कालोनी वालो की किसी भी फालतू फरमाईश में साथ नही दिया,,,

गर तुम समझते हो ये कंजूस हैं,,, तो सच हैं,,, इन्होने कभी किसी गरीब को छोटा महसूस नही होने दिया, उनकी इज्जत रखी, ये कंजूसीयत ही हैं,,,,
आज हजारों ऑखें रो रही हैं, इन चंद लोगो से तुम समझ रहें हो तुम्हारे पिता कंजूस है तो तुम अभागें हो,,,,

बेटे ने तुरंत अपने पिता के पैर पकड़ लिए,, और पहली बार दिल से रो कर कहने लगा, बाबूजी आप सच में बहुत कंजूस थे, आपने अपने सारे नेक काम कभी किसी से नही बाँटे आप बहुत कंजूस थे।

       किसी महान आदमी ने कहा हैं
       नेकी कर और दरिया में डाल .......

       नेक काम ऐसा होना चाहिए
       की एक हाथ से करें, तो दूसरे को पता ना चलें ......

Friday, 19 October 2018

मौन रहे


1 *मौन रहे*-- *जब तक आप के पास संपूर्ण तथा और प्रमाण न हो*

2 *मौन रहें*-- जब आप को लगता है कि *आप बिना चीखे कुछ बात नहीं बोल सकते*

3 *मौन रहें*-- अगर आप के *शब्दों से,वाणी से त्रुटि पूर्ण भावों का प्रचार प्रसार हो रहा हो*

4 *मौन रहें*-- अगर *आप आक्रोश के आवेग में आ रहे हो*

5 *मौन रहें*-- जब आप को लगता है कि *कोई महत्वपूर्ण दोस्ती आपके बोलने की वज़ह से टूट सकतीं हैं*

6 *मौन रहें*-- जब आप को लगता है कि *किसी व्यक्ति को आपके शब्द चुभेगे*

7 *मौन रहें-- अगर आप को लगे कि *मुझे ऐसा नहीं बोलना चाहिए था*

8 *मौन रहें*-- जब आप को *स्वयं के प्रति आत्म ग्लानि से भरे हुए हो।*

9 *मौन रहें*-- *जब श्रवण का समय हो*

10 *मौन रहें*-- तब जब आपको लगता है कि *निरर्थक शब्दों के उपयोग से रहना ही उचित है*

दृष्टिकोण


  ट्रेन में दो बच्चे यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे, कभी आपस में झगड़ जाते तो कभी किसी सीट पर कूदते। पास ही बैठा पिता किन्हीं विचारों में खोया था।बीच-बीच में जब बच्चे उसकी ओर देखते तो वह एक स्नेहिल मुस्कान बच्चों पर डालता और फिर बच्चे उसी प्रकार अपनी शरारतों में व्यस्त हो जाते और पिता फिर उन्हें निहारने लगता।

   ट्रेन के सहयात्री बच्चों की चंचलता से परेशान हो गए थे और पिता के रवैये से नाराज़। चूँकि रात्रि का समय था अतः सभी आराम करना चाहते थे।बच्चों की भागदौड़ को देखते हुए एक यात्री से रहा न गया और लगभग झल्लाते हुए बच्चों के पिता से बोल उठा-"कैसे पिता हैं आप? बच्चे इतनी शैतानियां कर रहे हैं और आप उन्हें रोकते- टोकते नहीं बल्कि मुस्कुराकर प्रोत्साहन दे रहे हैं।क्या आपका दायित्त्व नहीं कि आप इन्हें समझाएं???

  उन सज्जन की शिकायत से अन्य यात्रियों ने राहत की साँस ली कि अब यह व्यक्ति लज्जित होगा और बच्चों को रोकेगा।परन्तु उस पिता ने कुछ क्षण रुक कर कहा कि-"कैसे समझाऊं बस यही सोच रहा हूं भाईसाहब"।

   यात्री बोला-"मैं कुछ समझ नहीं"
व्यक्ति बोला-"मेरी पत्नी अपने मायके गई थी वहाँ एक दुर्घटना के चलते कल उसकी मौत हो गई। मैं बच्चों को उनके अंतिम दर्शनों के लिए ले जा रहा हूँ।इसी उलझन में हूँ कि कैसे समझाऊं इन्हें कि अब ये अपनी मां को कभी देख नहीं पाएंगे।"

  उसकी यह बात सुनकर जैसे सभी लोगों को साँप सूंघ गया।बोलना तो दूर सोचने तक की सामर्थ्य जाती रही सभी की। बच्चे यथावत शैतानियां कर रहे थे। अभी भी वे कंपार्टमेंट में दौड़ ही लगा रहे थे। वह व्यक्ति फिर मौन हो गया। वातावरण में कोई परिवर्तन न हुआ पर वे बच्चे अब उन यात्रियों को शैतान,अशिष्ट नहीं लग रहे थे बल्कि ऐसे नन्हें कोमल पुष्प लग रहे थे जिन पर सभी अपनी ममता उड़ेलना चाह रहे थे। उनका पिता अब उन लोगों को लापरवाह इंसान नहीं वरन अपने जीवनसाथी के विछोह से दुखी दो बच्चों का अकेला पिता और माता भी दिखाई दे रहा था।

  कहने को तो यह कहानी है सत्य या असत्य। पर एक मूल बात यह अनुभूत हुई कि आखिर क्षण भर में ही इतना परिवर्तन सभी के व्यवहार में आ गया।क्योंकि उनकी दृष्टि में परिवर्तन आ चुका था।

  हम सभी इसलिए उलझनों में हैं क्योंकि हमने अपने धारणाओं रूपी उलझनों का संसार अपने इर्द- गिर्द स्वयं रच लिया है। मैं यह नहीं कहता मित्रों कि परेशानी या तकलीफ नहीं किसी को पर क्या निराशा या नकारात्मक विचारों से हम उन परिस्थितियों को बदल सकते हैं?नहीं।

  आवश्यकता है एक आशा,उत्साह से भरी सकारात्मक सोच की फिर परिवर्तन तत्क्षण आपके भीतर आपको अनुभव होगा।

Tuesday, 16 October 2018

त्याग का रहस्य


एक बार महर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन बन में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ा घनी छाया वाला सेमर का वृक्ष देखा और उसकी छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गये।
नारदजी को उसकी शीतल छाया में आराम करके बड़ा आनन्द हुआ, वे उसके वैभव की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे।

उन्होंने उससे पूछा कि.. “वृक्ष राज तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं?

सेमर के वृक्ष ने हंसते हुए ऋषि के प्रश्न का उत्तर दिया कि- “भगवान्! बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके। वह मुझे किसी प्रकार गिरा नहीं सकता।

नारदजी को लगा कि सेमर का वृक्ष अभिमान के नशे में ऐसे वचन बोल रहा है। उन्हें यह उचित प्रतीत न हुआ और झुँझलाते हुए सुरलोक को चले गये। सुरपुर में जाकर नारदजी ने पवन से कहा.. ‘अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प वचन बोलता हुआ आपकी निन्दा करता है, सो उसका अभिमान दूर करना चाहिए।
पवन को अपनी निन्दा करने वाले पर बहुत क्रोध आया और वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आँधी तूफान की तरह चल दिया।

सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी परोपकारी और ज्ञानी था, उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई। वृक्ष ने अपने बचने का उपाय तुरन्त ही कर लिया। उसने अपने सारे पत्ते झाड़ा डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया। पवन आया उसने बहुत प्रयत्न किया पर ढूँठ का कुछ भी बिगाड़ न सका। अन्ततः उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा।

कुछ दिन पश्चात् नारदजी उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए उसी बन में फिर पहुँचे, पर वहाँ उन्होंने देखा कि वृक्ष ज्यों का त्यों हरा भरा खड़ा है। नारदजी को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ।

उन्होंने सेमर से पूछा- “पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हुए हो, इसका क्या रहस्य है?

वृक्ष ने नारदजी को प्रणाम किया और नम्रता पूर्वक निवेदन किया- “ऋषिराज! मेरे पास इतना वैभव है पर मैं इसके मोह में बँधा हुआ नहीं हूँ। संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हुए हूँ, परन्तु जब जरूरत समझता हूँ इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूँठ बन जाता हूँ। मुझे वैभव का गर्व नहीं था वरन् अपने ठूँठ होने का अभिमान था इसीलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था। आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण मैं पवन की प्रचंड टक्कर सहता हुआ भी यथा पूर्व खड़ा हुआ हूँ।

नारदजी समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे तो वह एक प्रकार का साधु ही है। ऐसे जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।

जनजागृति के लिऐ अवश्य साझा करें...!!

Saturday, 13 October 2018

असली शिक्षा


एक बड़ी सी गाड़ी आकर बाजार में रूकी, कार में ही मोबाईल से बातें करते हुयें, महिला ने अपनी बच्ची से कहा, जा उस बुढिया से पूछ सब्जी कैंसे दी, बच्ची कार से उतरतें ही,
अरें बुढिया यें सब्जी कैंसे दी?
40 रूपयें किलों, बेबी जी.....

सब्जी लेते ही, उस बच्ची ने सौ रूपयें का नोट उस सब्जी वाली को फेंक कर दिया, और आकर कार पर बैठ गयी, कार जाने लगी तभी अचानक किसी ने कार के सीसे पर दस्तक दी,

एक छोटी सी बच्ची जो हाथ में 60 रूपयें कार में बैठी उस औरत को देते हुये, बोलती हैं आंटी जी यें आपके सब्जी के बचें 60 रूपयें हैं, आपकी बेटी भूल आयी हैं,
कार में बैठी औरत ने कहा तुम रख लों, उस बच्ची बड़ी ही मिठी और सभ्यता से कहा, नही आंटी जी हमारें जितने पैंसे बनते थें हमने ले लियें हमें, हम इसे नही रख सकतें

मैं आपकी आभारी हूं, आप हमारी दुकान पर आए, आशा करती हूं, की सब्जी आपको अच्छी लगें, जिससे आप हमारें ही दुकान पर हमेशा आए, उस लड़की ने हाथ जोड़े और अपनी दुकान लौट गयी.......

कार में बैठी महिला उस लड़की से बहुत प्रभावित हुई और कार से उतर कर फिर सब्जी की दुकान पर जाने लगी, जैसें ही वहाँ पास गयी, सब्जी वाली अपनी बच्ची को पूछते हुयें, तुमने तमीज से बात की ना, कोई शिकायत का मौका तो नही दिया ना??

बच्ची ने कहा, हाँ माँ मुजे आपकी सिखाई हर बात याद हैं, कभी किसी बड़े का अपमान मत करो, उनसे सभ्यता से बात करो, उनकी कद्र करो, क्यूकि बड़े_बुजर्ग बड़े ही होते हैं, मुजे आपकी सारी बात याद हैं, और मैं सदैव इन बातों का स्मरण रखूगी,

बच्ची ने फिर कहा, अच्छा माँ अब मैं स्कूल चलती हूं, शाम में स्कूल से छुट्टी होते ही, दुकान पर आ जाऊंगी.......

कार वाली महिला शर्म से पानी पानी थी, क्यूकि एक सब्जी वाली अपनी बेटी को, इंसानियत और बड़ों से बात करने शिष्टाचार करने का पाठ सीखा रही थी और वो अपने अपनी बेटी को छोटा_बड़ा ऊंच_नीच का मन में बीज बो रही थी.....!!

"गौर करना दोस्त,
बहुत अच्छा तो वो कहलाता हैं, बहुत अच्छा तो वो कहलाता हैं, जो आसमान पर भी रहता हैं, जमीं पर भी बहता चला जाता हैं"....!

"बस इंसानियत, भाईचारें, सभ्यता, आचरण, वाणी में मिठास, सब की इज्जत करने की सीख दीजिए अपने बच्चों को, क्यूकि अब बस यहीं पढ़ाई हैं जो आने वाले समय में बहुत ही जादा ही मुश्किल होगी, इसे पढ़ने इसे याद रखने इसे ग्रहण करने में, और जीवन को उपयोगी बनाने में..

Friday, 12 October 2018

कुछ कर्ज कभी नही उतारे जा सकते

विवाह के दो वर्ष हुए थे जब सुहानी गर्भवती होने पर अपने घर पंजाब जा रही थी ...पति शहर से बाहर थे ...

जिस रिश्ते के भाई को स्टेशन से ट्रेन मे बिठाने को कहा था वो लेट होती ट्रेन की वजह से रुकने में मूड में नहीं था इसीलिए समान सहित प्लेटफॉर्म पर बनी बेंच पर बिठा कर चला गया ....

गाड़ी को पांचवे प्लेटफार्म पर आना था ...

गर्भवती सुहानी को सातवाँ माह चल रहा था. सामान अधिक होने से एक कुली से बात कर ली....

 बेहद दुबला पतला बुजुर्ग...पेट पालने की विवशता उसकी आँखों में थी ...एक याचना के साथ  सामान उठाने को आतुर ....

 सुहानी ने उसे पंद्रह रुपये में तय कर लिया और टेक लगा कर बैठ गई.... तकरीबन डेढ़ घंटे बाद गाडी आने की घोषणा हुई ...लेकिन वो बुजुर्ग कुली कहीं नहीं दिखा ...

कोई दूसरा कुली भी खाली नज़र नही आ रहा था.....ट्रेन छूटने पर वापस घर जाना भी संभव नही था ...

रात के साढ़े बारह बज चुके थे ..सुहानी का मन घबराने लगा ...

तभी वो बुजुर्ग दूर से भाग कर आता हुआ दिखाई दिया .... बोला चिंता न करो बिटिया हम चढ़ा देंगे गाडी में ...भागने से उसकी साँस फूल रही थी ..उसने लपक कर सामान उठाया ...और आने का इशारा किया

सीढ़ी चढ़ कर पुल से पार जाना था कयोकि अचानक ट्रेन ने प्लेटफार्म चेंज करा था जो अब नौ नम्बर पर आ रही थी

वो साँस फूलने से धीरे धीरे चल रहा था और सुहानी भी तेज चलने हालत में न थी
 गाडी ने सीटी दे दी
भाग कर अपना स्लीपर कोच का डब्बा ढूंढा ....

डिब्बा प्लेटफार्म खत्म होने के बाद इंजिन के पास था। वहां प्लेटफार्म की लाईट भी नहीं थी और वहां से चढ़ना भी बहुत मुश्किल था ....

सुहानी पलटकर उसे आते हुए देख ट्रेन मे चढ़ गई...तुरंत ट्रेन रेंगने लगी ...कुली अभी दौड़ ही रहा था ...

हिम्मत करके उसने एक एक सामान रेलगाड़ी के पायदान के पास रख दिया ।

अब आगे बिलकुल अन्धेरा था ..

जब तक सुहानी ने हडबडाये कांपते हाथों से दस का और पांच का का नोट निकाला ...
तब तक कुली की हथेली दूर हो चुकी थी...

उसकी दौड़ने की रफ़्तार तेज हुई ..
मगर साथ ही ट्रेन की रफ़्तार भी ....

वो बेबसी से उसकी दूर होती खाली हथेली देखती रही ...

और फिर उसका हाथ जोड़ना नमस्ते
और आशीर्वाद की मुद्रा में ....
उसकी गरीबी ...
उसका पेट ....
उसकी मेहनत ...
उसका सहयोग ...
सब एक साथ सुहानी की आँखों में कौंध गए ..

उस घटना के बाद सुहानी डिलीवरी के बाद दुबारा स्टेशन पर उस बुजुर्ग कुली को खोजती रही मगर वो कभी दुबारा नही मिला ...

आज वो जगह जगह दान आदि करती है मगर आज तक कोई भी दान वो कर्जा नहीं उतार पाया उस रात उस बुजुर्ग की कर्मठ हथेली ने किया था ...

सच है कुछ कर्ज कभी नही उतारे जा सकते......

गया में पिंडदान

गया में पिंडदान
बिहार की राजधानी पटना से करीब 104 किलोमीटर की दूरी पर बसा है गया । धार्मिक दृष्टि से गया , हिन्दूओं के लिए आदरणीय है। हिन्दू , गया को मुक्तिक्षेत्र और मोक्ष प्राप्ति का स्थान मानते हैं।इसलिए हर दिन देश के अलग-अलग भागों से नहीं बल्कि विदेशों में भी बसने वाले हिन्दू आकर गया में आकर अपने परिवार के मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना से श्राद्ध , तर्पण और पिण्डदान करते दिख जाते हैं।

गया में हर व्यक्ति क्यों चाहता है पिंडदान करना ? गया तीर्थ के बारे में गरूड़ पुराण में कहा गया है कि गया श्राद्ध करने मात्र से पितर यानी परिवार में जिनकी मृत्यु हो चुकी है वह संसार सागर से मुक्त होकर भगवान विष्णु की कृपा से उत्तम लोक में
जाते हैं। वायु पुराण में बताया गया है कि मीन , मेष , कन्या एवं कुंभ राशि में जब सूर्य होता है उस समय गया में पिण्ड दान करना बहुत ही उत्तम फलदायी होता है। इसी तरह मकर संक्रांति और ग्रहण के समय जो श्राद्ध और पिण्डदान किया जाता है वह श्राद्ध करने वाले और मृत व्यक्ति दोनों के लिए ही कल्याणी और उत्तम लोकों में स्थान दिलाने वाला होता है।गया तीर्थ के बारे में गरूड़ पुराण यह भी कहता है कि यहाँ पिण्डदान करने मात्र से व्यक्ति की सात पीढ़ी और एक सौ कुल का उद्धार हो जाता है। *गया तीर्थ के महत्व को भगवान राम ने भी स्वीकार किया है।**गया , में देवी सीता का शाप है ( जब सीता ने किया पिण्डदान )*वाल्मिकी रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। वनवास के दौरान भगवान राम लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुँचे। वहाँ श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी। गया जी के आगे फल्गू नदी पर अकेली सीताजी असमंजस में पड गई। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष , केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे
दिया।थोडी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया। बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है , इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण मांगा । तब सीता जी ने कहा कि यह फल्गू नदी की रेत , केतकी के फूल , गाय और वटवृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं । इतने में फल्गू नदी , गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही। तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की।दशरथ जी ने सीताजी की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि ऐन वक्त पर सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया। इस पर राम आश्वस्त हुए लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीता जी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी - जा तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी , तुझमें पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी। और केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढ़ाया जाएगा। वटवृक्ष को सीता जी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी। यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है , केतकी के फूल को पूजा पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता है.                         

Monday, 8 October 2018

एक दिन बहू ने गलती से यज्ञवेदी में थूक दिया

एक दिन बहू ने गलती से यज्ञवेदी में थूक दिया!!!

सफाई कर रही थी. मुंह में सुपारी थी. पीक आया तो वेदी में. पर उसे आश्चर्य हुआ कि उतना थूक स्वर्ण में बदल गया है.

अब तो वह प्रतिदिन जान बूझकर वेदी में थूकने लगी. और उसके पास धीरे धीरे स्वर्ण बढ़ने लगा.
महिलाओं में बात तेजी से फैलती है. कई और महिलाएं भी अपने अपने घर में बनी यज्ञवेदी में थूक थूक कर सोना उत्पादन करने लगी.

धीरे धीरे पूरे गांव में यह सामान्य चलन हो गया.
सिवाय एक महिला के.. !

उस महिला को भी अनेक दूसरी महिलाओं ने उकसाया..!समझाया..!
“अरी. तू क्यों नहीँ थूकती?”
“जी. ! बात यह है कि मै अपने पति की अनुमति बिना यह कार्य हरगिज नहीँ करूंगी. और वे. जहाँ तक मुझे ज्ञात है.. अनुमति नहीँ देंगे!”

किन्तु ग्रामीण महिलाओं ने ऐसा वातावरण बनाया.. कि आखिर उसने एक रात डरते डरते अपने ‎पति‬ को पूछ ही लिया.
“खबरदार जो ऐसा किया तो.. !! यज्ञवेदी क्या थूकने की चीज है??”

पति की गरजदार चेतावनी के आगे बेबस.. वह महिला चुप हो गई. पर जैसा वातावरण था. और जो चर्चाएं होती थी, उनसे वह साध्वी स्त्री बहुत व्यथित रहने लगी.

खास कर उसके सूने गले को लक्ष्य कर अन्य स्त्रियां अपने नए नए कण्ठ-हार दिखाती तो वह अन्तर्द्वन्द में घुलने लगी.

पति की व्यस्तता और स्त्रियों के उलाहने उसे धर्मसंकट में डाल देते.
“यह शायद मेरा दुर्भाग्य है.. अथवा कोई पूर्वजन्म का पाप.. कि एक सती स्त्री होते हुए भी मुझे एक रत्ती सोने के लिए भी तरसना पड़ता है.”

“शायद यह मेरे पति का कोई गलत निर्णय है.”
“ओह. इस धर्माचरण ने मुझे दिया ही क्या है?”
“जिस नियम के पालन से ‎दिल‬ कष्ट पाता रहे. उसका पालन क्यों करूँ?”

और हुआ यह कि वह बीमार रहने लगी. ‎पतिदेव‬ इस रोग को ताड़ गए. उन्होंने एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही सपरिवार ग्राम त्यागने का निश्चय किया.

गाड़ी में सारा सामान डालकर वे रवाना हो गए. सूर्योदय से पहले पहले ही वे बहुत दूर निकल जाना चाहते थे.

किन्तु..
अरे.. यह क्या..?????
ज्यों ही वे गांव की कांकड़(सीमा) से बाहर निकले.

पीछे भयानक विस्फोट हुआ.
पूरा गांव धू धू कर जल रहा था.
सज्जन दम्पत्ति अवाक् रह गए.
और उस स्त्री को अपने पति का महत्त्व समझ आ गया.

वास्तव में.. इतने दिन गांव बचा रहा. तो केवल इस कारण..उसका परिवार गांव की परिधि में था।

धर्माचरण करते रहे... कुछ पाने के लालच में इंसान बहुत कुछ खो बैठता है... इसलिए लालच से बचें..

त्रिदेवो की परीक्षा


शिव का क्रोध

महर्षि भृगु ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम ख्याति था जो दक्ष की पुत्री थी। महर्षि भृगु सप्तर्षिमंडल के एक ऋषि हैं। सावन और भाद्रपद में वे भगवान सूर्य के रथ पर सवार रहते हैं।

एक बार की बात है, सरस्वती नदी के तट पर ऋषि-मुनि एकत्रित होकर इस विषय पर चर्चा कर रहे थे कि ब्रह्माजी, शिवजी और श्रीविष्णु में सबसे बड़े और श्रेष्ठ कौन है? इसका कोई निष्कर्ष न निकलता देख उन्होंने त्रिदेवों की परीक्षा लेने का निश्चय किया और ब्रह्माजी के मानस पुत्र महर्षि भृगु को इस कार्य के लिए नियुक्त किया।

महर्षि भृगु सर्वप्रथम ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने न तो प्रणाम किया और न ही उनकी स्तुति की। यह देख ब्रह्माजी क्रोधित हो गए। क्रोध की अधिकता से उनका मुख लाल हो गया। आँखों में अंगारे दहकने लगे। लेकिन फिर यह सोचकर कि ये उनके पुत्र हैं, उन्होंने हृदय में उठे क्रोध के आवेग को विवेक-बुद्धि में दबा लिया।

वहाँ से महर्षि भृगु कैलाश गए। देवाधिदेव भगवान महादेव ने देखा कि भृगु आ रहे हैं तो वे प्रसन्न होकर अपने आसन से उठे और उनका आलिंगन करने के लिए भुजाएँ फैला दीं। किंतु उनकी परीक्षा लेने के लिए भृगु मुनि उनका आलिंगन अस्वीकार करते हुए बोले-“महादेव! आप सदा वेदों और धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। दुष्टों और पापियों को आप जो वरदान देते हैं, उनसे सृष्टि पर भयंकर संकट आ जाता है। इसलिए मैं आपका आलिंगन कदापि नहीं करूँगा।”

उनकी बात सुनकर भगवान शिव क्रोध से तिलमिला उठे। उन्होंने जैसे ही त्रिशूल उठा कर उन्हें मारना चाहा, वैसे ही भगवती सती ने बहुत अनुनय-विनय कर किसी प्रकार से उनका क्रोध शांत किया। इसके बाद भृगु मुनि वैकुण्ठ लोक गए। उस समय भगवान श्रीविष्णु देवी लक्ष्मी की गोद में सिर रखकर लेटे थे।

भृगु ने जाते ही उनके वक्ष पर एक तेज लात मारी। भक्त-वत्सल भगवान विष्णु शीघ्र ही अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम करके उनके चरण सहलाते हुए बोले-“भगवन! आपके पैर पर चोट तो नहीं लगी? कृपया इस आसन पर विश्राम कीजिए। भगवन! मुझे आपके शुभ आगमन का ज्ञान न था। इसलिए मैं आपका स्वागत नहीं कर सका। आपके चरणों का स्पर्श तीर्थों को पवित्र करने वाला है। आपके चरणों के स्पर्श से आज मैं धन्य हो गया।”

भगवान विष्णु का यह प्रेम-व्यवहार देखकर महर्षि भृगु की आँखों से आँसू बहने लगे। उसके बाद वे ऋषि-मुनियों के पास लौट आए और ब्रह्माजी, शिवजी और श्रीविष्णु के यहाँ के सभी अनुभव विस्तार से कह बताया। उनके अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनि बड़े हैरान हुए और उनके सभी संदेह दूर हो गए। तभी से वे भगवान विष्णु को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा-अर्चना करने लगे।

वास्तव में उन ऋषि-मुनियों ने अपने लिए नहीं, बल्कि मनुष्यों के संदेहों को मिटाने के लिए ही ऐसी लीला रची थी।

Sunday, 7 October 2018

चिड़िया का ज्ञान


राजा भानुप्रताप के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी, जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी, वहां रोज एक चिड़िया आती, मीठे अंगूर चुनकर खा जाती और अधपके व खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती, माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आयी, हताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताई, यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ, उसने सोचा इस चिड़िया को वह खुद पकड़ेगा और उसे सबक सिखाएगा, अगले दिन राजा वाटिका में छिपकर बैठ गया, जब चिड़िया आयी तो राजा ने उसे पकड़ लिया, वह चिड़िया की गर्दन मरोड़ने ही वाला था कि चिड़िया बोली-राजन, मैं आपको ज्ञान की चार महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी, राजा ने कहा जल्दी बता, चिड़िया बोली- *पहली बात ये की हाथ में आये शत्रु को कभी मत छोड़ो*, राजा ने कहा-दूसरी बात....? चिड़िया ने कहा- *किसी असम्भव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो,* तीसरी बात यह कि *बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो,* राजा ने कहा- अब चौथी बात भी जल्दी बतादो, इसपर चिड़िया बोली, चौथी बात बड़ी रहस्यमयी है, मेरी गर्दन थोड़ी ढ़ीली करें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है, कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी, चिड़िया की बात सुन राजा ने जैसे ही अपना हाथ ढीला किया, चिड़िया उड़कर एक डाल पर बैठ गई, राजा भौंचक्का सा उसे देख रहा था, चिड़िया बोली- हे राजन, *चौथी बात यह है कि ज्ञान की बात सुनने से कुछ लाभ नहीं होता उसपर अमल करने से होता है,* अगर आप मेरी पहली बात पर अमल किए होते तो आज मै आपके गिरफ्त मे होती। मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी मुझे पकड़ने के बाद आप मेरी अच्छी-अच्छी बातों के बहकावे में आ गए और मुझे ढीला छोड दिया, अब तो आप अपनी गलती पर बस पछता सकते हैं, इतना कहकर चिड़िया उड़ गई और राजा ठगे से खड़े रह गए।

Monday, 1 October 2018

इच्छाशक्ति


हिरण के दौड़ ने की गति लगभग 85 किमी प्रति घंटा की होती है जबकि शेर कि गति ज्यादा से ज्यादा 60 किमी प्रति घंटा है। गति में इतने अंतर होने के बावजूद भी अधिकतम अवसरों पर हिरण शेर का शिकार बन जाता है। जानते हैं क्यों?

क्योंकि जब भी शेर को देखकर जान बचाने के लिए हिरण भागता है तो उसे ये पक्का विश्वास हो जाता है कि शेर उसे अब हरगिज नहीं छोड़ेगा वह शेर के सामने कमजोर और असहाय है और उससे बच कर नहीं निकल सकता।

छुटकारा न पा सकने का ये डर उसे हर पल पीछे मुड़कर ये देखने के लिए विवश कर देता है कि अब उसके और शेर के बीच कितनी दूरी बची है। और डर की स्थिति में यही सोच हिरण की गति को प्रभावित करती है और इसी बीच में शेर नजदीक आकर उसे दबोचकर अपना निवाला बना लेता है।

अगर हिरण पीछे मुड़कर देखने की अपनी इस आदत पर काबू पा ले तो कभी भी शेर का शिकार नहीं बन पाएगा। और अगर हिरण को अपनी क्षमता पर विश्वास हो जाए कि उसकी शक्ति उसकी तेज़ गति में छुपी हुई है बिल्कुल ऐसे ही जैसे शेर की शक्ति उसकी पाचन और आत्मविश्वास में छुपी हुई है तो वह हमेशा शेर से बच जाएगा।

बस कुछ ऐसी ही हम इंसानों प्रकृति बन जाती है कि हम हर पल पीछे मुड़ मुड़कर अपने भूतकाल को तकते और कुरेदते रहते हैं। जो कुछ और नहीं बल्कि हमें डंसता रहता है, हमारी हिम्मतों को कमजोर करता रहता है और हमारे व्यवहार को नीरस बनाता रहता है। और कितने ही ऐसे पीछा करते हमारे वहम और डर हैं जो हमें नाकामियों का निवाला बनाते रहते हैं।

और कितनी ही हमारी ऐसी आंतरिक निराशाएं हैं जो हमसे जिंदा रहने का हौसला तक छीनती रहती हैं। हम कहीं खत्म न हो जाएं की सोच की वजह से अपने लक्ष्य को प्राप्त के योग्य नहीं बनते और न ही अपनी क्षमताओं पर कभी विश्वास कर पाते हैं।

प्रसन्नता का कारण



देवदास बड़ा हैरान था कि गुरु शृणोति, प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न कैसे रह लेते हैं। उसका अध्ययन करने के लिये वह कई दिन तक निरन्तर शृणोति के साथ बना रहा।

मध्याह्न का भोजन कर चुकने के पश्चात् मुनि शृणोति ने अपनी धर्मपत्नी शोभा से कहा- "घर में गुड़ हो तो एक डली देना। गुड़ में छार होता है उससे पेट साफ हो जाता है।"

शोभा ने इधर-उधर ढूँढ़ा, घर में गुड़ था नहीं सो लौटकर बताया- "गुड़ रहा नहीं, कहें तो मँगा दूँ।"
शृणोति ने मुस्कराते हुए कहा- "नहीं, नहीं, प्रिये! उसकी आवश्यकता नहीं। गुड़ तो गरम करता हैं?"

देवदास ने पूछा- "महात्मन् पहले तो आपने उसी गुड़ को उपयोगी ठहराया बाद में हानिकारक! आप भी दोहरी बातें करते हैं।”

शृणोति ने कहा- "वत्स यह विनोदप्रियता ही सदैव प्रसन्नता का रहस्य है और संसार में कुछ है नहीं। यहाँ न कुछ उपयोगी है न अनुपयोगी, मान्यताओं के अनुपम वस्तुओं की उपयोगिता-अनुपयोगिता बदलती रहती है।"

'अखण्ड ज्योति,जुलाई

Sunday, 30 September 2018

श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ बनकर, जो खिलाना है अभी खिला दे


आँखो में आंसू ला दिये इस कहानी ने .......

"अरे! भाई बुढापे का कोई ईलाज नहीं होता . अस्सी पार चुके हैं . अब बस सेवा कीजिये ." डाक्टर पिता जी को देखते हुए बोला।

"डाक्टर साहब ! कोई तो तरीका होगा . साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है ."

"शंकर बाबू ! मैं अपनी तरफ से दुआ ही कर सकता हूँ . बस आप इन्हें खुश रखिये . इस से बेहतर और कोई दवा नहीं है और इन्हें लिक्विड पिलाते रहिये जो इन्हें पसंद है ." डाक्टर अपना बैग सम्हालते हुए मुस्कुराया और बाहर निकल गया .

शंकर पिता को लेकर बहुत चिंतित था . उसे लगता ही नहीं था कि पिता के बिना भी कोई जीवन हो सकता है . माँ के जाने के बाद अब एकमात्र आशीर्वाद उन्ही का बचा था . उसे अपने बचपन और जवानी के सारे दिन याद आ रहे थे . कैसे पिता हर रोज कुछ न कुछ लेकर ही घर घुसते थे . बाहर हलकी-हलकी बारिश हो रही थी . ऐसा लगता था जैसे आसमान भी रो रहा हो . शंकर ने खुद को किसी तरह समेटा और पत्नी से बोला -

"सुशीला ! आज सबके लिए मूंग दाल के पकौड़े , हरी चटनी बनाओ . मैं बाहर से जलेबी लेकर आता हूँ ."

पत्नी ने दाल पहले ही भिगो रखी थी . वह भी अपने काम में लग गई . कुछ ही देर में रसोई से खुशबू आने लगी पकौड़ों की . शंकर भी जलेबियाँ ले आया था . वह जलेबी रसोई में रख पिता के पास बैठ गया . उनका हाथ अपने हाथ में लिया और उन्हें निहारते हुए बोला -

"बाबा ! आज आपकी पसंद की चीज लाया हूँ . थोड़ी जलेबी खायेंगे ."
पिता ने आँखे झपकाईं और हल्का सा मुस्कुरा दिए . वह अस्फुट आवाज में बोले -
"पकौड़े बन रहे हैं क्या ?"

"हाँ, बाबा ! आपकी पसंद की हर चीज अब मेरी भी पसंद है . अरे! सुषमा जरा पकौड़े और जलेबी तो लाओ।" शंकर ने आवाज लगाईं।
"लीजिये बाबू जी एक और" उसने पकौड़ा हाथ में देते हुए कहा।

"बस...अब पूरा हो गया। पेट भर गया, जरा सी जलेबी दे" पिता बोले।

शंकर ने जलेबी का एक टुकड़ा हाथ में लेकर मुँह में डाल दिया। पिता उसे प्यार से देखते रहे।

"शंकर ! सदा खुश रहो बेटा. मेरा दाना पानी अब पूरा हुआ", पिता बोले।

"बाबा ! आपको तो सेंचुरी लगानी है। आप मेरे तेंदुलकर हो," आँखों में आंसू बहने लगे थे।

वह मुस्कुराए और बोले- "तेरी माँ पेवेलियन में इंतज़ार कर रही है, अगला मैच खेलना है। तेरा पोता बनकर आऊंगा, तब खूब  खाऊंगा बेटा।"

पिता उसे देखते रहे। शंकर ने प्लेट उठाकर एक तरफ रख दी . मगर पिता उसे लगातार देखे जा रहे थे। आँख भी नहीं झपक रही थी। शंकर समझ गया कि यात्रा पूर्ण हुई।

तभी उसे ख्याल आया, पिता कहा करते थे -
"श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ बनकर, जो खिलाना है अभी खिला दे।"

माँ बाप का सम्मान करें और उन्हें जीते जी खुश रखें।

Saturday, 29 September 2018

व्यवहारिक जीवन का एक सुंदर समन्वय! A balanced science of living!


सूंड एक हाथी का असाधारण अंग होता है। अतः हमारे लिए बहुत प्रकार से शिक्षाप्रद है। चालीस हजार से भी अधिक पेशियों से बनी यह अदभुत सूंड एक और तो मिट्टी में पड़ा घास का तिनका या सुई, दूसरी और लकड़ी के भारी- भारी लट्ठे तक उठा सकती हैं।
यह क्या दर्शाता है? व्यवहारिक जीवन का एक सुंदर समन्वय! A balanced science of living! हमारे जीवन में कभी हल्के- फुल्के, तो कभी समस्याओं से युक्त भारी क्षण आते हैं। श्री गणपति की सूंड सिखाती है- हर स्थिति को सहजता से शिरोधार्य करो। यही नहीं, इस संसार की छोटी से लेकर बड़ी तक, क्षुद्रतम से विराटतम तक- हर रचना या पहलू से नाता रखो। हेय समझकर किसी का तिरस्कार न करो, न जाने कब किसकी आवश्यकता पड जाए।यह व्यवसाय- सम्बन्धी सफलता का मंत्र है- A mantra of success for work management!
हाथी की सूंड एक और विशेष गुण होता है। वह अपनी इस लचीली सूंड को दाएँ- बाएँ लहरा कर दूर- दूर तक निरीक्षण कर लेता है। कैसे? मात्र सूँघकर!वह हवा में व्याप्त गंध को मात्र सूँघकर  अपने दूर स्थित मित्रो- शत्रुओ, भोजन या जल- स्रोतों का पता लगा लेता है। गंध ही क्यों, हाथी की सूंड में इतनी कमाल की ग्रहण- शक्ति होती है कि वह सूक्ष्मतम तरंगो तक को भांप लेती है। ऐसी तरंगे, जिन्हें पकडना हमारी और आपकी क्षमताओ से बहुत परे है। इस सत्य की खोजकर्ता Katy Payne अपनी पुस्तक -'Silent Thunder' में लिखती है कि हाथी अपने दूरवर्ती मित्र हाथी से बातचीत करने या सम्पर्क साधने के लिए बड़ी विचित्र क्रिया करते है। वे कम वृति (low frequency) वाली इंफ्रा- ध्वनि(infrasound), जिसे 'a sub-sonic rumbling '(एक सूक्ष्म कराहट) भी कहते है, पैदा करते है। यह ध्वनि तरंग रुप में हवा से नहीं, धरती के माध्यम से यात्रा करती है। हाथी अपनी सूंड धरती पर टिका कर इन सूक्ष्म तरंगो को पकडता और डी-कोड करता (समझता) है। इस तरह से वह अपने दूरवर्ती गज- झुंड या साथी से सम्पर्क में रहता है।
गज- सूंड का यह विशेष गुण श्री गणपति देव की मनोशक्तियो की और संकेत करता है। वैदिक मनोविज्ञान के अनुसार हमारे मन में अनेक सुप्त क्षमताएँ है। जैसे कि विचार संप्रेषण, अतीन्द्रिय श्रवण, दूरसंभाषण इत्यादि। आधुनिक मनोविज्ञान ने इन्हें  Telepathy, Clairaudience, Thought-transference  आदि शीर्षक देकर स्वीकारा है। इन मनोशक्तियो के माध्यम से एक व्यक्ति दूर बैठे व्यक्ति या समूह के साथ मनोभावो का आदान- प्रदान कर सकता है। सूक्ष्म विचार या भाव- तरंगो को प्रेषित और ग्रहण करने की सामर्थ्य रखता है। श्री गणपति में ये मन:शक्तियाँ पूरी तरह जागृत है। उनकी सूंड इसी बात का परिचय देती है।
आज का मानव भी आध्यात्मिक साधना- अभ्यास, वैदिक तप- पद्धतियों द्वारा इन्हें जागृत कर सकता है। परन्तु इनसे बढकर यह विशेष गुण हमें एक सामाजिक स्तर की प्रेरणा देता है। वास्तव में आज का मानव संवेदनहीन हो चुका है, इसलिए उसकी बुद्धि जड होती जा रही है और वह इन सूक्ष्म शक्तियों व अनुभूतियो से कोसो दूर हो रहा है। परन्तु आवश्यकता है,  मानव इकाइयों के बीच भी ऐसी ही हार्दिक संवेदना हो कि वे परस्पर एक- दूसरे की भाव- तरंगो को समझ पाएँ। बंधुत्व का ऐसा जोड बंधा हो कि एक ह्रदय दूसरे ह्रदय की सूक्ष्म बोली को सुन पाए। यदि श्री गणपति की सूंड से हम यह गुण ग्रहण कर ले, तो 'विश्व बंधुत्व'(Universal Brotherhood)  का आदर्श साकार होने में देर नहीं।
एक और विशेषता! श्री गजानन की यह सूंड सूंघती भी है तथा जल भी पीती है। अर्थात यह ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मेन्द्रिय भी है। अतः प्रतीक रुप में, यह ज्ञान और कर्म का समन्वय है। हमें विवेकजनित शिक्षा देती है कि हम ज्ञान से अभिभूत होकर कर्म करे-
'योगस्थ: कुरु कर्माणि '।
जीवन में ज्ञान और कर्म, दोनो का समन्वय करो। अपने व्यक्तित्व को दोनो के आधार पर संचालित करो।

मृत्यु कैसे होती है ?

मृत्यु कैसे होती है ?

मृत्यु का जब आक्रमण आरम्भ होता है तब पैरों की तरफ से प्राण ऊपर को खीचने लगते हैं, उस समय बड़ा कष्ट होता है। हृदय (दिल) की धड़कन बढ़ जाती है, चक्कर आने लगते हैं, साँस रुक--रुक कर चलती है। दम घुटने लगता है और प्राणी चिल्लाता  पुकारता है। यह क्रम कुछ देर तक चलता रहता है। और प्राण खींचकर झटका दे--देकर कमर तक का भाग त्याग देते हैं। वह भाग शून्य हो जाता है, निर्जीव मुर्दा जैसा हो जाता है जैसे लकवा मार गया हो उसमें कोई क्रिया (हरकत) नहीं होती तब लोग कहने लगते हैं कि इधर की नब्ज छूट गयी। इसी प्रकार प्राण खींचकर कण्ठ में रुक जाता है और कण्ठ से नीचे का भाग निर्जीव हो जाता है, न वो हिल सकता है, और न कुछ हरकत कर सकता है, साथ ही वाणी भी निर्जीव होकर बंद हो जाती है। और दम बुरी तरह घुटता है ! आँखों से आँसू निकलने लगते हैं पर वो बता नहीं सकता कि उसे कितना कष्ट है। पास के लोग सगे--सम्बन्धी पुत्र--पुत्री सब खड़े--खड़े देखते हैं और खुद भी रोते हैं पर समझ नहीं पाते कि क्या कष्ट है, यह दशा बहुत देर तक रहती है।

फिर भयानक शक्ल यमदूत की उसे दिखाई देती है। उनकी भयानक आकृति देखकर आँखे फिरने लगती हैं। वो बोलते हैं कि मकान खाली करो उनकी भयानक आवाज सुनकर सिर फटने लगता है मानो हजारों गोला बारुदों की आवाज आ रही हो  यह दशा बड़ी भयानक होती है और वही जान सकता है जिसपर बीतती है। तब यमदूत एक फन्दा फेंकते हैं और आत्मा को पकड़कर जोर का झटका देते हैं। उस समय आँखे उलट-- पुलट हो जाती हैं और उस कष्ट का वर्णन नहीं हो सकता। जैसा कि रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में श्रीमद्गोस्वामीतुलसीदासजी ने लिखा है---

जनमत मरत दुसह दुख होई।

अर्थात् जन्म और मृत्यु के समय अपार कष्ट होता है। ग्रामीण क्षेत्र के लोग कहते हैं मरते समय 100 बिच्छू एक साथ काट रहे हों उतना कष्ट मरनेवाले को होता है।

यमदूत उसके लिंग शरीर को शरीर से निकालकर प्राणों के साथ घसीटते हुए ले जाते हैं और धर्मराज की कचहरी में पेश कर देते हैं जहाँ कर्मानुसार दण्ड (सजा) सुनाया जाता है। यह है मृत्यु का दृश्य।

महात्मा इन दृश्यों को देखते रहते हैं और भूले जीवों को चेताते रहते हैं कि सुधर जाओ होश में आ जाओ वरन् एक दिन सबकी यही दशा होने वाली है। जीव के सच्चे रक्षक संत सत्गुरु होते हैं जो जीव को काल के दण्ड से बचा लेते हैं। शाकाहारी रह कर भगवान् का सत्गुरु का ध्यान करके इस कलियुग में बचा जा सकता है।

Tuesday, 25 September 2018

उत्सव रिश्तों के भीतर बसती इंसानियत का होता है

गणपति  विसर्जन

पापा के पाँव में चोट लगी थी, कुछ दिनों से वे वैसे ही लंगडाकर चल रहे थे।
मैं भी छोटा था और ऐन टाइम पर हमारे घर के गणेश विसर्जन के लिए किसी गाड़ी की व्यवस्था भी न हो सकी।
पापा ने अचानक ही पहली मंजिल पर रहने वाले जावेद भाई को आवाज लगा दी : " ओ जावेद भाई, गणेश विसर्जन के लिए तालाब तक चलते हो क्या ? "
मम्मी तुरंत विरोध स्वरूप बड़बड़ाने लगीं : " उनसे पूछने की क्या जरूरत है ? "

छुट्टी का दिन था और जावेद भाई घर पर ही थे। तुरंत दौड़े आए और बोले : " अरे, गणपती बप्पा को गाड़ी में क्या, आप हुक्म करो तो अपने कन्धे पर लेकर जा सकता हूँ। "
अपनी टेम्पो की चाबी वे साथ ले आए थे।
गणपती विसर्जन कर जब वापस आए तो पापा ने लाख कहा मगर जावेद भाई ने टेम्पो का भाड़ा नहीं लिया। लेकिन मम्मी ने बहुत आग्रह कर उन्हें घर में बने हुए पकवान और मोदक आदि खाने के लिए राजी कर लिया। जिसे जावेद भाई ने प्रेमपूर्वक स्वीकार किया, कुछ खाया कुछ घर ले गए।

तब से हर साल का नियम सा बन गया, गणपती हमारे घर बैठते और विसर्जन के दिन जावेद भाई अपना टेम्पो लिए तैयार रहते।

हमने चाल छोड़ दी, बस्ती बदल गई, हमारा घर बदल गया, जावेद भाई की भी गाड़ियाँ बदलीं मगर उन्होंने गणेश विसर्जन का सदा ही मान रखा। हम लोगों ने भी कभी किसी और को नहीं कहा।
जावेद भाई कहीं भी होते लेकिन विसर्जन के दिन समय से एक घंटे पहले अपनी गाड़ी सहित आरती के वक्त हाजिर हो जाते।
पापा, मम्मी को चिढ़ाने के लिए कहते : " तुम्हारे स्वादिष्ट मोदकों के लिए समय पर आ जाते हैं भाईजान। "
जावेद भाई कहते : " आपका बप्पा मुझे बरकत देता है भाभी जी, उनके विसर्जन के लिए मैं समय पर न आऊँ, ऐंसा कभी हो ही नहीं सकता। "

26 सालों तक ये सिलसिला अनवरत चला।
तीन साल पहले पापा का स्वर्गवास हो गया लेकिन जावेद भाई ने गणपती विसर्जन के समय की अपनी परंपरा जारी रखी।
अब बस यही होता था कि विसर्जन से आने के पश्चात जावेद भाई पकवानों का भोजन नहीं करते, बस मोदक लेकर चले जाया करते।
आज भी जावेद भाई से भाड़ा पूछने की मेरी मजाल नहीं होती थी।

इस साल मार्च के महीने में जावेद भाई का इंतकाल हो गया।

आज विसर्जन का दिन है, क्या करूँ कुछ सूझ नहीं रहा।
आज मेरे खुद के पास गाड़ी है लेकिन मन में कुछ खटकता सा है, इतने सालों में हमारे बप्पा बिना जावेद भाई की गाड़ी के कभी गए ही नहीं। ऐंसा लगता है कि, विसर्जन किया ही न जाए।

मम्मी ने पुकारा : " आओ बेटा, आरती कर लो। "
आरती के बाद अचानक एक अपरिचित को अपने घर के द्वार पर देखा।
सबको मोदक बाँटती मम्मी ने उसे भी प्रसाद स्वरूप मोदक दिया जिसे उसने बड़ी श्रद्धा से अपनी हथेली पर लिया।
फिर वो मम्मी से बड़े आदर से बोला : " गणपती बप्पा के विसर्जन के लिए गाड़ी लाया हूँ। मैं जावेद भाई का बड़ा बेटा हूँ। "
अब्बा ने कहा था कि, " कुछ भी हो जाए लेकिन आपके गणपती, विसर्जन के लिए हमारी ही गाड़ी में जाने चाहिए। परंपरा के साथ हमारा मान भी है बेटा। "
" इसीलिए आया हूँ। "

मम्मी की आँखे छलक उठीं। उन्होंने एक और मोदक उसके हाथ पर रखा जो कदाचित जावेद भाई के लिए था....

फाइनली एक बात तो तय है कि, देव, देवता या भगवान चाहे किसी भी धर्म के हों लेकिन उत्सव जो है वो, रिश्तों का होता है....रिश्तों के भीतर बसती इंसानियत का होता है....

बस इतना ही...!!

Monday, 24 September 2018

चिन्ता और चिन्तन


       मनुष्य जीवन जीने के दो रास्ते हैं चिन्ता और चिन्तन। यहाँ पर कुछ लोग चिन्ता में जीते हैं और कुछ चिन्तन में। चिन्ता में हजारों लोग जीते हैं और चिन्तन में दो-चार लोग ही जी पाते हैं। चिन्ता स्वयं में एक मुसीबत है और चिन्तन उसका समाधान। आसान से भी आसान कार्य को चिन्ता मुश्किल बना देती है और मुश्किल से मुश्किल कार्य को चिन्तन बड़ा आसान बना देता है।
       जीवन में हमें इसलिए पराजय नहीं मिलती कि कार्य बहुत बड़ा था अपितु हम इसलिए परास्त हो जाते हैं कि हमारे प्रयास बहुत छोटे थे। हमारी सोच जितनी छोटी होगी हमारी चिन्ता उतनी ही बड़ी और हमारी सोच जितनी बड़ी होगी, हमारे कार्य करने का स्तर भी उतना ही श्रेष्ठ होगा।
      किसी भी समस्या के आ जाने पर उसके समाधान के लिए विवेकपूर्ण निर्णय ही चिन्तन है। चिन्तनशील व्यक्ति के लिए कोई न कोई मार्ग अवश्य मिल भी जाता है। उसके पास विवेक है और वह समस्या के आगे से हटता नहीं अपितु डटता है। समस्या का डटकर मुकाबला करना आधी सफलता प्राप्त कर लेना है।

चिंतन से हटकट चिंतामणि तक यदि किसी व्यक्ति या वस्तु का चिंतन तो वह सहज ही प्राप्त हो जाता है।


  जय श्रीराधे कृष्णा

मैं तुम्हारे आने वाले संकट को रोक नहीं सकता बस आसान कर सकता हूँ


मैं तुम्हारे आने वाले संकट को रोक नहीं सकता
बस....
गौरी रोटी बनाते बनाते "प्रभु" नाम का जाप कर रही थी, अलग से पूजा का समय कहाँ निकाल पाती थी बेचारी, तो बस काम करते करते ही...।

एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ मे दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़ कर झांकी।

आठ साल का चुन्नू चित्त पड़ा था खून से लथपथ। मन हुआ दहाड़ मार कर रोये। परंतु घर मे उसके अलावा कोई था नही, रोकर भी किसे बुलाती, फिर चुन्नू को संभालना भी तो था।

दौड़ कर नीचे गई तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में माँ माँ की रट लगाए हुए है। अंदर की ममता ने आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया।

फिर 10 दिन पहले करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी कि चुन्नू को गोद मे उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी।

रास्ते भर भगवान को कोसती रही, जी भर कर, बड़बड़ाती रही, हे प्रभु क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को..।

खैर डॉक्टर मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया। चोटें गहरी नही थी, ऊपरी थीं तो कोई खास परेशानी नही हुई। रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे तब गौरी का मन बेचैन था।

भगवान से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता प्रभुसत्ता को चुनौती दे रही थी। उसके दिमाग मे दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी।

कैसे चुन्नू आंगन में गिरा की एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने चापाकल का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां चिंटू गिरा पड़ा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो..?

उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के चुन्नू को उठाया कैसे, कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी? फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू।

वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नही ले जा पाती। फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था।

उसका सर प्रभु चरणों मे श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी। मन ही मन प्रभु से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी।

टीवी पर प्रवचन आ रहा था; - प्रभु कहते हैं :-

"मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हे इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।"

Sunday, 23 September 2018

गणेश कौन हैं?


गणेश शब्द..
जो इंद्रिय गणों का ,
मन- बुद्धि गणों का स्वामी है ,
उस अंतर्यामी विभू का ही वाचक है। गणानां इति गणपतिः..
उस परब्रम्ह निराकार को समझाने के लिए भगवान ने कैसी लीला की!
गणेशजी के सूपडे जैसे कान -सूपडे में कंकड़ पत्थर निकल जाते है अनाज रह जाता है अर्थात सब सुनो लेकिन सार -सार  लो,
लंबी सूंड अर्थात कहाँ क्या हो रहा है सारी खबर हो,
छोटी आँखे -सूक्ष्म दृष्टि हो तोल मोल के निर्णय हो,
चूहे की सवारी-ये संकेत है अध्यात्मिक जगत में प्रवेश पाने का ।
अपनी सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करके तुरीयावस्था में पहुँचने का संकेत करनेवाले गणपतिजी गणों के नायक है |
ऐसे सूक्ष्म सन्देश देने वाले श्री गणेश जी के श्री चरणों मे कोटि कोटि नमन