शरीर के तीन पापः
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम्।।
'पराये हक का लेना, अवैधानिक हिंसा करना, पर-स्त्री का संग करना – ये तीन शारीरिक पाप कहे जाते हैं।'
लोभकृत पापः आपके पास जो भी चीज है, वह आपके हक की होनी चाहिए। पिता-पितामह की तरफ से वसीयत के रूप में मिली हो, अपने परिश्रम से न्यायपूर्वक प्राप्त की हो, खरीदी हो, किसी ने दी हो अथवा किसी राज्य पर विजय हासिल कर प्राप्त की हो तो भी ठीक है। किंतु किसी की वस्तु को उसकी अनुमति अथवा जानकारी के बिना ले लेना यह शारीरिक पाप है। जो वस्तु आपके हक की नहीं है, जो आपको दी भी नहीं गयी है ऐसी दूसरे की वस्तु को हड़प लेना यह लोभकृत पाप है।
क्रोधकृत पापः हिंसा चैवाविधानतः। जो धर्मानुसार एवं संविधानुसार नहीं है ऐसे कृत्य का आचरण यह शारीरिक पाप है। जिससे अपनी और अपने पड़ोसी की, दोनों की लौकिक, पारलौकिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हो, उसमें रूकावट न आये ऐसा कर्म धर्म है और ऐसे धर्म को भंग करना यह पाप है।
हिंसा दो प्रकार की होती हैः कानूनी और गैर-कानूनी। जब जल्लाद किसी को फाँसी पर लटकाता है, सैनिक आक्रमणकारी शत्रुदेश के सैनिक पर बंदूक चलाता है तो यह कानूनी हिंसा अपराध नहीं मानी जाती, वरन् उसके लिए वेतन दिया जाता है। हमारे शास्त्रीय संविधान के विरुद्ध जो हिंसा है वह हमारे जीवन में नहीं होनी चाहिए। मानवता को सुदृढ़ बनाने कि लिए, सुरक्षित रखने के लिए और गौरवान्वित करने के लिए हमारे जीवन से, वाणी से, सकल्प से किसी को कष्ट न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। हम जो करें, जो कुछ बोलें, जो कुछ लें, जो कुछ भोगें, उससे अन्य को तकलीफ न हो इसका यथासंभव ध्यान रखना चाहिए। यह मानवता का भूषण है।
कामकृत पापः पर-स्त्री के साथ संबंध यह कामकृत पाप है।
न ही दृशं अनावेश्यं लोके किंचन विद्यते।
पर स्त्री के साथ संबंध से बढ़कर शरीर को रोग देने वाला, मृत्यु देने वाला, आयुष्य घटाने वाला अन्य कोई दोष नहीं है। मानव की मर्यादा का यह उल्लंघन है। यह मर्यादा मानव की खास-विशेषता है। पशु, पक्षी, देवता अथवा दैत्यों में यह मर्यादा नहीं होती।
जैसे लोभ एक विकार है, क्रोध एक विकार है, वैसे ही काम भी एक विकार है। यह परंपरा से आता है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के मन में भी यह था। इस प्राकृतिक प्रवाह को मर्यादित करने का उपाय अन्य किसी योनि में नहीं है। मनुष्य जीवन में ही उपाय है कि विवाह संस्कार के द्वारा माता-पिता, सास-ससुर एवं अग्नि को साक्षी बनाकर विवाह का संबंध जोड़ा जाता है। उस विवाह के बाद ही पति-पत्नी यज्ञ के अधिकारी होते हैं। 'पत्नी' शब्द का भी इसी अर्थ में उपयोग किया जाता है – 'त्युनो यज्ञसंयोग।' यज्ञ में, धर्मकार्य में जो सहधर्मिणी हो, सहभागिनी हो वह है पत्नी। यह पवित्र विवाह संस्कार धर्म की दृष्टि से मानव को सर्वोत्कृष्ट, संयमी एवं मर्यादित बनाता है। जिससे मानवता की सुरक्षा होती है उस आचार, विचार, विधि, संस्कार एवं मर्यादा का पालन मानव को अवश्य करना चाहिए। मर्यादा अर्थात् क्या ? 'मर्यि' अर्थात् मानव जिसे धर्मानुसार, ईश्वरीय संविधान के अनुसार आत्म-दृष्टि से, मानवता की दृष्टि से अपने जीवन में स्वीकार करे। जिसमें कोई मर्यादा नहीं है वह मर्यादाहीन जीवन मनुष्य जीवन नहीं, पशु जीवन कहलाता है।
यहाँ हमने मानवता को दूषित करने वाली चीजों की मीमांसा की। उनसे सावधानीपूर्वक बचना चाहिए। अब मनुष्यता को उज्जवल करने वाली बातों के विषय में विचार करेंगे। इन बातों को, मानवता की इन विशेषताओं को समझे। धर्म को कहीं से उधार नहीं लेना है अपितु वह हमारे ही अंदर स्थित है, उसे प्रगट करना पड़ता है। हीरे में चमक बाहर से नहीं भरनी पड़ती, किंतु हीरे को घिसकर उसके भीतर की चमक को प्रगट करना पड़ता है।
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।
परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम्।।
'पराये हक का लेना, अवैधानिक हिंसा करना, पर-स्त्री का संग करना – ये तीन शारीरिक पाप कहे जाते हैं।'
लोभकृत पापः आपके पास जो भी चीज है, वह आपके हक की होनी चाहिए। पिता-पितामह की तरफ से वसीयत के रूप में मिली हो, अपने परिश्रम से न्यायपूर्वक प्राप्त की हो, खरीदी हो, किसी ने दी हो अथवा किसी राज्य पर विजय हासिल कर प्राप्त की हो तो भी ठीक है। किंतु किसी की वस्तु को उसकी अनुमति अथवा जानकारी के बिना ले लेना यह शारीरिक पाप है। जो वस्तु आपके हक की नहीं है, जो आपको दी भी नहीं गयी है ऐसी दूसरे की वस्तु को हड़प लेना यह लोभकृत पाप है।
क्रोधकृत पापः हिंसा चैवाविधानतः। जो धर्मानुसार एवं संविधानुसार नहीं है ऐसे कृत्य का आचरण यह शारीरिक पाप है। जिससे अपनी और अपने पड़ोसी की, दोनों की लौकिक, पारलौकिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हो, उसमें रूकावट न आये ऐसा कर्म धर्म है और ऐसे धर्म को भंग करना यह पाप है।
हिंसा दो प्रकार की होती हैः कानूनी और गैर-कानूनी। जब जल्लाद किसी को फाँसी पर लटकाता है, सैनिक आक्रमणकारी शत्रुदेश के सैनिक पर बंदूक चलाता है तो यह कानूनी हिंसा अपराध नहीं मानी जाती, वरन् उसके लिए वेतन दिया जाता है। हमारे शास्त्रीय संविधान के विरुद्ध जो हिंसा है वह हमारे जीवन में नहीं होनी चाहिए। मानवता को सुदृढ़ बनाने कि लिए, सुरक्षित रखने के लिए और गौरवान्वित करने के लिए हमारे जीवन से, वाणी से, सकल्प से किसी को कष्ट न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। हम जो करें, जो कुछ बोलें, जो कुछ लें, जो कुछ भोगें, उससे अन्य को तकलीफ न हो इसका यथासंभव ध्यान रखना चाहिए। यह मानवता का भूषण है।
कामकृत पापः पर-स्त्री के साथ संबंध यह कामकृत पाप है।
न ही दृशं अनावेश्यं लोके किंचन विद्यते।
पर स्त्री के साथ संबंध से बढ़कर शरीर को रोग देने वाला, मृत्यु देने वाला, आयुष्य घटाने वाला अन्य कोई दोष नहीं है। मानव की मर्यादा का यह उल्लंघन है। यह मर्यादा मानव की खास-विशेषता है। पशु, पक्षी, देवता अथवा दैत्यों में यह मर्यादा नहीं होती।
जैसे लोभ एक विकार है, क्रोध एक विकार है, वैसे ही काम भी एक विकार है। यह परंपरा से आता है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के मन में भी यह था। इस प्राकृतिक प्रवाह को मर्यादित करने का उपाय अन्य किसी योनि में नहीं है। मनुष्य जीवन में ही उपाय है कि विवाह संस्कार के द्वारा माता-पिता, सास-ससुर एवं अग्नि को साक्षी बनाकर विवाह का संबंध जोड़ा जाता है। उस विवाह के बाद ही पति-पत्नी यज्ञ के अधिकारी होते हैं। 'पत्नी' शब्द का भी इसी अर्थ में उपयोग किया जाता है – 'त्युनो यज्ञसंयोग।' यज्ञ में, धर्मकार्य में जो सहधर्मिणी हो, सहभागिनी हो वह है पत्नी। यह पवित्र विवाह संस्कार धर्म की दृष्टि से मानव को सर्वोत्कृष्ट, संयमी एवं मर्यादित बनाता है। जिससे मानवता की सुरक्षा होती है उस आचार, विचार, विधि, संस्कार एवं मर्यादा का पालन मानव को अवश्य करना चाहिए। मर्यादा अर्थात् क्या ? 'मर्यि' अर्थात् मानव जिसे धर्मानुसार, ईश्वरीय संविधान के अनुसार आत्म-दृष्टि से, मानवता की दृष्टि से अपने जीवन में स्वीकार करे। जिसमें कोई मर्यादा नहीं है वह मर्यादाहीन जीवन मनुष्य जीवन नहीं, पशु जीवन कहलाता है।
यहाँ हमने मानवता को दूषित करने वाली चीजों की मीमांसा की। उनसे सावधानीपूर्वक बचना चाहिए। अब मनुष्यता को उज्जवल करने वाली बातों के विषय में विचार करेंगे। इन बातों को, मानवता की इन विशेषताओं को समझे। धर्म को कहीं से उधार नहीं लेना है अपितु वह हमारे ही अंदर स्थित है, उसे प्रगट करना पड़ता है। हीरे में चमक बाहर से नहीं भरनी पड़ती, किंतु हीरे को घिसकर उसके भीतर की चमक को प्रगट करना पड़ता है।
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