Saturday, 8 December 2018

प्रेम मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है


एक बार संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थीं। पुस्तक में एक जगह लिखा था,
"शैतान से घृणा करो, प्रेम से नहीं।" राबिया ने वह लाइन काट दी।
कुछ दिन बाद उनसे मिलने एक संत आए। वह उस पुस्तक को पढ़ने लगे। उन्होंने कटा हुआ वाक्य देख कर सोचा कि किसी नासमझ ने उसे काटा होगा। उसे धर्म का ज्ञान नहीं होगा।
उन्होंने राबिया को वह पंक्ति दिखा कर कहा- "जिसने यह पंक्ति काटी है वह जरूर नास्तिक होगा।"
राबिया ने कहा- "इसे तो मैंने ही काटा है।"
संत ने अधीरता से कहा- "तुम इतनी महान संत होकर यह कैसे कह सकती हो कि शैतान से घृणा मत करो। शैतान तो इंसान का दुश्मन होता है।"
इस पर राबिया ने कहा- "पहले मैं भी यही सोचती थी कि शैतान से घृणा करो। लेकिन उस समय मैं प्रेम को समझ नहीं सकी थी। लेकिन जब से मैं प्रेम को समझी, तब से बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं कि घृणा किससे करूं। मेरी नजर में घृणा लायक कोई नहीं है।"
संत ने पूछा- "क्या तुम यह कहना चाहती हो कि जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें।"
राबिया बोली- "प्रेम किया नहीं जाता। प्रेम तो मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है। जो ईश्वर को भीतर जान लेने के पश्चात ही उसका स्फुरण होता है। प्रेम के अंकुरित होने पर मन के अंदर घृणा के लिए कोई जगह नहीं होगी।
हम सबकी एक ही तकलीफ है। हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता। यह कोई नहीं सोचता ,कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं है, यह देने की चीज है। हम प्रेम देते हैं। यदि शैतान से प्रेम करोगे तो वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।"
संत ने कहा- "अब समझा, राबिया! तुमने उस पंक्ति को काट कर ठीक ही किया है। दरअसल हमारे ही मन के अंदर प्रेम करने का अहंकार भरा है। इसलिए हम प्रेम नहीं करते, प्रेम करने का नाटक करते हैं। यही कारण है कि संसार में नफरत और द्वेष फैलता नजर आता है।"

प्रेम का पौधा अन्तर्घट(ह्रदय) में उगता है ,बाहरी जमीं पर नहीं और वह पूर्ण संत के सान्निध्य में पुष्पित एवं पल्लवित और खुशनुमा होता है!

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