भक्ति का भाव शरीर और मन-मस्तिष्क के कष्ट मिटा देता है। अधिकतर साधु-संत भक्ति के मार्ग से ही मोक्ष को पहुँचे हैं। भक्ति का मार्ग बहुत ही सरल जान पड़ता है, लेकिन यह सबसे कठिन है और सबसे सरल भी।
जब मनुष्य अपने सांसारिक स्वार्थ को छोड़कर भगवान को भजता है तब ही वह भक्ति योग का मार्गी कहलाता है। भक्त को साधक, उपासक, भजने वाला, व्रती, तपस्वी इत्यादि कहा जाता है।
भक्ति शब्द का अर्थ होता है, ‘भजना’ एवं 'भाव' सतत् रूप से सकारात्मक विचार और भाव से भगवान को याद करना और उनके प्रति समर्पण कर श्रद्धा और सबुरी का भाव रखना। भक्ति को वंदना, उपासना, पूजा, तपस्या, आराधना, जप, साधना, भजन, कीर्तन, होम आदि भी कहा जाता है, किंतु इसके समानार्थी शब्द प्रार्थना, आस्था, विश्वास और श्रद्धा को माना जा सकता है।
वेद, योग, उपनिषद, गीता, पुराण आदि ग्रंथों में भक्ति के बहुत से प्रकार बताकर उसकी व्याख्या की गई है। भक्ति में वही रमता है जिसकी भगवान में श्रद्धा है तब वही व्यक्ति भक्त कहलाता है। भक्ति के लिए निष्ठा एवं समर्पण होना जरूरी है।
भक्ति का आधार सकारात्मक भावना है। हमारे भीतर प्रतिक्षण अच्छी और बुरी भावना की उत्पत्ति सांसारिक प्रभाव से होती रहती है। इस प्रभाव से बचकर जो व्यक्ति भगवान का भजन, चिंतन या मनन करते हुए स्वयं के भीतर सकारात्मक और निर्मल भाव का विकास करने लगता है तो उसके जीवन में सभी कार्यों के शुभ परिणाम आने लगते हैं। भगवान से बगैर माँगे उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होने लगती है। यह स्थिति शरणागति की होती है। शरणागति की स्थिति में भक्त लगातार भगवान की शरण में होता है।
यह मार्ग बहुत ही सरल है। भक्त कोई भी हो (बन) सकता है। यह मार्ग सभी के लिए समान रूप से खुला है। भक्त होने के लिए किसी भी प्रकार की योग्यता, ज्ञान आदि की आवश्यकता नहीं। बस भक्त का सरल, सहज एवं निर्मल होना ही भक्ति के लिए जरूरी है। जो व्यक्ति अद्वैष, मैत्री भाव युक्त, करूणा युक्त, अहंकार रहित, सुख-दुख सहने में सक्षम है वही भक्त बनने योग्य है।
जब मनुष्य अपने सांसारिक स्वार्थ को छोड़कर भगवान को भजता है तब ही वह भक्ति योग का मार्गी कहलाता है। भक्त को साधक, उपासक, भजने वाला, व्रती, तपस्वी इत्यादि कहा जाता है।
भक्ति शब्द का अर्थ होता है, ‘भजना’ एवं 'भाव' सतत् रूप से सकारात्मक विचार और भाव से भगवान को याद करना और उनके प्रति समर्पण कर श्रद्धा और सबुरी का भाव रखना। भक्ति को वंदना, उपासना, पूजा, तपस्या, आराधना, जप, साधना, भजन, कीर्तन, होम आदि भी कहा जाता है, किंतु इसके समानार्थी शब्द प्रार्थना, आस्था, विश्वास और श्रद्धा को माना जा सकता है।
वेद, योग, उपनिषद, गीता, पुराण आदि ग्रंथों में भक्ति के बहुत से प्रकार बताकर उसकी व्याख्या की गई है। भक्ति में वही रमता है जिसकी भगवान में श्रद्धा है तब वही व्यक्ति भक्त कहलाता है। भक्ति के लिए निष्ठा एवं समर्पण होना जरूरी है।
भक्ति का आधार सकारात्मक भावना है। हमारे भीतर प्रतिक्षण अच्छी और बुरी भावना की उत्पत्ति सांसारिक प्रभाव से होती रहती है। इस प्रभाव से बचकर जो व्यक्ति भगवान का भजन, चिंतन या मनन करते हुए स्वयं के भीतर सकारात्मक और निर्मल भाव का विकास करने लगता है तो उसके जीवन में सभी कार्यों के शुभ परिणाम आने लगते हैं। भगवान से बगैर माँगे उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होने लगती है। यह स्थिति शरणागति की होती है। शरणागति की स्थिति में भक्त लगातार भगवान की शरण में होता है।
यह मार्ग बहुत ही सरल है। भक्त कोई भी हो (बन) सकता है। यह मार्ग सभी के लिए समान रूप से खुला है। भक्त होने के लिए किसी भी प्रकार की योग्यता, ज्ञान आदि की आवश्यकता नहीं। बस भक्त का सरल, सहज एवं निर्मल होना ही भक्ति के लिए जरूरी है। जो व्यक्ति अद्वैष, मैत्री भाव युक्त, करूणा युक्त, अहंकार रहित, सुख-दुख सहने में सक्षम है वही भक्त बनने योग्य है।
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