Sunday, 30 December 2018

आठ योगी महापुरुष जो आज भी जीवित हैं

ये हैं वो आठ योगी महापुरुष जो आज भी जीवित  और अमर माने जाते हैं।
अश्वस्थामा, राजा बलि, व्यास मुनि, हनुमान, बिभीषण, कृपाचार्य, परसुराम भगवान, मार्कण्डेय ऋषि ये जीवित है ।
१. महावीर हनुमान – अंजनी पुत्र हनुमान जी को अजर और अमर रहने के वरदान मिला है तथा इन की मौजूदगी रामायण और महाभारत दोनों जगह पर पाई गई है.रामायण में हनुमान जी ने प्रभु राम की सीता माता को रावण के कैद से छुड़वाने में मदद की थी और महाभारत में उन्होंने भीम के घमंड को तोडा था. सीता माता ने हनुमान को अशोक वाटिका में राम का संदेश सुनाने पर वरदान दिया था की वे सदेव अजर-अमर रहेंगे. अजर-अमर का अर्थ है की उनकी कभी मृत्यु नही होगी और नही वे कभी बूढ़े होंगे. माना जाता है की हनुमान जी इस धरती पर आज भी विचरण करते है।

२. अश्वत्थामा – अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचर्य के पुत्र है तथा उनके मष्तक में अमरमणि विध्यमान है. अश्वत्थामा ने सोते हुए पांडवो के पुत्रो की हत्या करी थी जिस कारण भगवान कृष्ण ने उन्हें कालांतर तक अपने पापो के प्रायश्चित के लिए इस धरती में ही भटकने का श्राप दिया था. हरियाणा के करुक्षेत्र और अन्य तीर्थ में उनके दिखाई दिए जाने के दावे किये जाते है तथा मध्यप्रदेश के बुराहनपुर में उनके दिखाई दिए जाने की घटना प्रचलित है।

३. ऋषि मार्कण्डेय – ऋषि मार्कण्डेय भगवान शिव के परम भक्त है. उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपश्या द्वारा महामृत्युंजय तप को सिद्ध कर मृत्यु पर विजयी पा ली और चिरंजीवी हो गए।

४. भगवान परशुराम - परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं। परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि और माता का नाम रेणुका था. परशुराम का पहले नाम राम था परन्तु इस शिव के परम भक्त थे. उनकी कठोर तपश्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें एक फरसा दिया जिस कारण उनका नाम परशुराम पड़ा।

५. कृपाचार्य - कृपाचार्य शरद्वान गौतम के पुत्र हैं। वन में शिकार खेलते हुए शांतनु को दो शिशु मिले जिनका नाम उन्होंने कृपि और कृप रखा तथा उनका पालन पोषण किया. कृपाचार्य कौरवो के कुलगुरु तथा अश्वत्थामा के मामा हैं, उन्होंने महाभारत के युद्ध में कौरवो को साथ दिया।

६. विभीषण – विभीषण ने भगवान राम की महिमा जान कर युद्ध में अपने भाई रावण का साथ छोड़ प्रभु राम का साथ दिया. राम ने विभीषण को अजर-अमर रहने का वरदान दिया था।

७. वेद व्यास – ऋषि व्यास ने महाभारत जैसे प्रसिद्ध काव्य की रचना की है. उनके द्वारा समस्त वेदो एवं पुराणो की रचना हुई. वेद व्यास, ऋषि पाराशर और सत्यवती के पुत्र है. ऋषि वेदव्यास भी अष्टचिरंजीवियो में सम्लित है।

८. राजा बलि – राजा बलि को महादानी के रूप में जाना जाता है. उन्होंने भगवान विष्णु के वामन अवतार को अपना सब कुछ दान कर दिया अतः भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल का राजा बनाया और अमरता का वरदान दिया. राजा बलि प्रह्लाद के वंशज है।
                           

Monday, 24 December 2018

संतोष की प्रवृति


                 संतोष की प्रवृति

एक युवती एक संत के पास अपनी जिज्ञासा लेकर पहुंची वह बोली- "महाराज! मैं विवाह करना चाहती हूँ मैंने अनेक युवको को देख भी लिया है , परन्तु अभी  तक कोई सबसे योग्य युवक नहीं मिला! "संत बोले-बेटी! तुम पहले फूलो के बगीचे मे से सबसे सुन्दर गुलाब का फूल तोड़कर लाओ,  लेकिन शर्त यह है की एक बार आगे  बढ़ने के बाद पीछे नहीं मुड़ना!" थोड़ी देर बाद युवती खाली हाथ लोटी ! संत ने पूंछा- बेटी तुम्हे कोई सुन्दर फूल नहीं मिला..??" वह युवती बोली- "महाराज मैं अच्छे-से-अच्छे फूल की चाहत मे आगे बढती गई   मार्ग  मैं अनेक सुन्दर फूल दिखे, परन्तु मैं इस चाहत में आगे बढती गई की आगे और भी सुन्दर फूल होंगें! दुर्भाग्यवश अंत में फिर मुरझाये फूल मिले!" संत बोले- बेटी! जीवन भी इसी प्रकार है ! सबसे योग्य की तलाश में भटकते रहोगे तो जो संभव है, उससे भी हाथ धो बैठोगे! इसलिए जो प्राप्त हो सकता है, उसी में संतोष करने की प्रवृति पैदा करो! यही संभव समाधान है"!!

Sunday, 23 December 2018

साईनाथ आरती 2

आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ।
चरणों के तेरे हम पुजारी साईँ बाबा ॥
विद्या बल बुद्धि, बन्धु माता पिता हो l
तन मन धन प्राण, तुम ही सखा हो ll
हे जगदाता अवतारे, साईँ बाबा ।
आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ॥
ब्रह्म के सगुण अवतार तुम स्वामी l
ज्ञानी दयावान प्रभु अंतरयामी ll
सुन लो विनती हमारी साईँ बाबा ।
आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ॥
आदि हो अनंत त्रिगुणात्मक मूर्ति l
सिंधु करुणा के हो उद्धारक मूर्ति ll
शिरडी के संत चमत्कारी साईँ बाबा ।
आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ॥
भक्तों की खातिर, जनम लिये तुम l
प्रेम ज्ञान सत्य स्नेह, मरम दिये तुम ll
दुखिया जनों के हितकारी साईँ बाबा ।
आरती उतारे हम तुम्हारी साईँ बाबा ॥

Saturday, 22 December 2018

साईं बाबा आरती 1

आरती श्री साईं गुरुवर की |
परमानन्द सदा सुरवर की ||
जा की कृपा विपुल सुखकारी |
दुःख, शोक, संकट, भयहारी ||
शिरडी में अवतार रचाया |
चमत्कार से तत्व दिखाया ||
कितने भक्त चरण पर आये |
वे सुख शान्ति चिरंतन पाये ||
भाव धरै जो मन में जैसा |
पावत अनुभव वो ही वैसा ||
गुरु की उदी लगावे तन को |
समाधान लाभत उस मन को ||
साईं नाम सदा जो गावे |
सो फल जग में शाश्वत पावे ||
गुरुवासर करि पूजा - सेवा |
उस पर कृपा करत गुरुदेवा ||
राम, कृष्ण, हनुमान रूप में |
दे दर्शन, जानत जो मन में ||
विविध धर्म के सेवक आते |
दर्शन कर इच्छित फल पाते ||
जै बोलो साईं बाबा की |
जो बोलो अवधूत गुरु की ||
`साईंदास` आरती को गावे |
घर में बसि सुख, मंगल पावे ||

Friday, 21 December 2018

शिरडी साईं बाबा की आरती

ॐ जय साईं हरे, बाबा शिरडी साईं हरे।
भक्तजनों के कारण, उनके कष्ट निवारण॥
शिरडी में अवतरे, ॐ जय साईं हरे॥ ॐ जय...॥

दुखियन के सब कष्टन काजे, शिरडी में प्रभु आप विराजे।
फूलों की गल माला राजे, कफनी, शैला सुन्दर साजे॥
कारज सब के करें, ॐ जय साईं हरे ॥ ॐ जय...॥

काकड़ आरत भक्तन गावें, गुरु शयन को चावड़ी जावें।
सब रोगों को उदी भगावे, गुरु फकीरा हमको भावे॥
भक्तन भक्ति करें, ॐ जय साईं हरे ॥ ॐ जय...॥

हिन्दु मुस्लिम सिक्ख इसाईं, बौद्ध जैन सब भाई भाई।
रक्षा करते बाबा साईं, शरण गहे जब द्वारिकामाई॥
अविरल धूनि जरे, ॐ जय साईं हरे ॥ ॐ जय...॥

भक्तों में प्रिय शामा भावे, हेमडजी से चरित लिखावे। 
गुरुवार की संध्या आवे, शिव, साईं के दोहे गावे॥
अंखियन प्रेम झरे, ॐ जय साईं हरे ॥ ॐ जय...॥

ॐ जय साईं हरे, बाबा शिरडी साईं हरे। 
शिरडी साईं हरे, बाबा ॐ जय साईं हरे॥

Thursday, 20 December 2018

मां शैलपुत्री की आरती

आरती देवी शैलपुत्री जी की
शैलपुत्री मां बैल असवार।
करें देवता जय जयकार।
शिव शंकर की प्रिय भवानी।
तेरी महिमा किसी ने ना जानी।
पार्वती तू उमा कहलावे।
जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू।
दया करे धनवान करे तू।
सोमवार को शिव संग प्यारी।
आरती तेरी जिसने उतारी।
उसकी सगरी आस पुजा दो।
सगरे दुख तकलीफ मिला दो।
घी का सुंदर दीप जला के।
गोला गरी का भोग लगा के।
श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं।
प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।
जय गिरिराज किशोरी अंबे।
शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।
मनोकामना पूर्ण कर दो।
भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।

Wednesday, 19 December 2018

मां शाकंभरी देवी चालीसा

दोहा
दाहिने भीमा ब्रामरी अपनी छवि दिखाए। 
बाईं ओर सतची नेत्रों को चैन दीवलए। 
भूर देव महारानी के सेवक पहरेदार। 
मां शकुंभारी देवी की जाग मई जे जे कार।।
चौपाई
जे जे श्री शकुंभारी माता। हर कोई तुमको सिष नवता।।
गणपति सदा पास मई रहते। विघन ओर बढ़ा हर लेते।।
हनुमान पास बलसाली। अगया टुंरी कभी ना ताली।।
मुनि वियास ने कही कहानी। देवी भागवत कथा बखनी।।
छवि आपकी बड़ी निराली। बढ़ा अपने पर ले डाली।।
अखियो मई आ जाता पानी। एसी किरपा करी भवानी।।
रुरू डेतिए ने धीयां लगाया। वार मई सुंदर पुत्रा था पाया।।
दुर्गम नाम पड़ा था उसका। अच्छा कर्म नहीं था जिसका।।
बचपन से था वो अभिमानी। करता रहता था मनमानी।।
योवां की जब पाई अवस्था। सारी तोड़ी धर्म वेवस्था।।
सोचा एक दिन वेद छुपा लूं। हर ब्रममद को दास बना लूं।।
देवी-देवता घबरागे। मेरी सरण मई ही आएगे।।
विष्णु शिव को छोड़ा उसने। ब्रह्माजी को धीयया उसने।।
भोजन छोड़ा फल ना खाया। वायु पीकेर आनंद पाया।।
जब ब्रहाम्मा का दर्शन पाया। संत भाव हो वचन सुनाया।।
चारो वेद भक्ति मई चाहू। महिमा मई जिनकी फेलौ।।
ब्ड ब्रहाम्मा वार दे डाला। चारों वेद को उसने संभाला।।
पाई उसने अमर निसनी। हुआ प्रसन्न पाकर अभिमानी।।
जैसे ही वार पाकर आया। अपना असली रूप दिखाया।।
धर्म धूवजा को लगा मिटाने। अपनी शक्ति लगा बड़ाने।।
बिना वेद ऋषि मुनि थे डोले। पृथ्वी खाने लगी हिचकोले।।
अंबार ने बरसाए शोले। सब त्राहि-त्राहि थे बोले।।
सागर नदी का सूखा पानी। कला दल-दल कहे कहानी।।
पत्ते बी झड़कर गिरते थे। पासु ओर पाक्सी मरते थे।।
सूरज पतन जलती जाए। पीने का जल कोई ना पाए।।
चंदा ने सीतलता छोड़ी। समाए ने भी मर्यादा तोड़ी।।
सभी डिसाए थे मतियाली। बिखर गई पूज की तली।।
बिना वेद सब ब्रहाम्मद रोए। दुर्बल निर्धन दुख मई खोए।।
बिना ग्रंथ के कैसे पूजन। तड़प रहा था सबका ही मान।।
दुखी देवता धीयां लगाया। विनती सुन प्रगती महामाया।।
मा ने अधभूत दर्श दिखाया। सब नेत्रों से जल बरसाया।।
हर अंग से झरना बहाया। सतची सूभ नाम धराया।।
एक हाथ मई अन्न भरा था। फल भी दूजे हाथ धारा था।।
तीसरे हाथ मई तीर धार लिया। चोथे हाथ मई धनुष कर लिया।।
दुर्गम रक्चाश को फिर मारा। इस भूमि का भार उतरा।।
नदियों को कर दिया समंदर। लगे फूल-फल बाग के अंदर।।
हारे-भरे खेत लहराई। वेद ससत्रा सारे लोटाय।।
मंदिरो मई गूंजी सांख वाडी। हर्षित हुए मुनि जान पड़ी।।
अन्न-धन साक को देने वाली। सकंभारी देवी बलसाली।।
नो दिन खड़ी रही महारानी। सहारनपुर जंगल मई निसनी।।

श्री शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती

हरि ॐ श्री शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो
ऐसी अद्भुत रूप हृदय धर लीजो
शताक्षी दयालु की आरती कीजो
तुम परिपूर्ण आदि भवानी मां, सब घट तुम आप बखानी मां
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो

तुम्हीं हो शाकुम्भर, तुम ही हो सताक्षी मां
शिवमूर्ति माया प्रकाशी मां,
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो

नित जो नर-नारी अम्बे आरती गावे मां
इच्छा पूर्ण कीजो, शाकुम्भर दर्शन पावे मां
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो

जो नर आरती पढ़े पढ़ावे मां, जो नर आरती सुनावे मां
बस बैकुंठ शाकुम्भर दर्शन पावे
शाकुम्भरी अंबाजी की आरती कीजो।

Tuesday, 18 December 2018

श्री हरसुब्रह्म चालीसा

दोहा:-
बाबा हरसू ब्रह्म के, चरणों का करि ध्यान।
चालीसा प्रस्तुत करूँ, पावन यश गुण गान।।

चालीसा
हरसू ब्रह्म रूप अवतारी।
जेहि पूजत नित नर अरु नारी।।
शिव - अनवद्य अनामय रूपा।
जन - मंगल हित शिला स्वरूपा।।
विश्व - कष्ट - तम - नाशक जोई।
ब्रह्म धाम मँह राजत सोइ।।
निर्गुण निराकार जग व्यापी।
प्रकट भये बन - ब्रह्म प्रतापी।।
अनुभव गम्य प्रकाश स्वरूपा।
सोई शिव प्रकट ब्रह्म के रूपा।।
जगत - प्राण जग जीवन दाता।
हरसू ब्रह्म हुए विख्याता।।
पालन हरण सृजन कर जोई।
ब्रह्म रूप धरि प्रकटेउ सोई।।
मन बच अगम अगोचर स्वामी।
हरसू ब्रह्म सोई अंतरयामी।।
भव जन्मा त्यागा सब भव रस।
शित निर्लेप अमान एक रस।।
चैनपुर   सुखधाम  मनोहर।
जहाँ विराजत ब्रह्म निरन्तर।।
ब्रह्म तेज वर्धित तव क्षण क्षण।
प्रमुदित होत निरन्तर जन मन।।
द्विज द्रोही नृप को तुम नासा।
आज मिटावत जन मन त्रासा।।
दे सन्तान सृजन तुम करते।
कष्ट मिटाकर जन भय हरते।।
सब भक्तन के पालक तुम हो।
दनुज वृति कुल घालक तुम हो।।
कुष्ट रोग से पीड़ित होई।
आवे सभय शरण तकि सोई।।
भक्षण करे भभूत तुम्हारा।
चरण गहे नित बारहिं बारा।।
परम रूप सुन्दर सोई पावै।
जीवन भर तव यश नित गावै।।
पागल बन विचार जो खोवै।
देखत कबहुँ हँसे फिर रोवै।।
तुम्हरे निकट आव जब सोई।
भूत - पिशाच ग्रस्त उर होई।।
तुम्हरे धाम आई सुख माने।
करत विनय तुमको पहिचाने।।
तव दुर्धष तेज के आगे।
भूत पिशाच विकल होई भागे।।
नाम जपत तव ध्यान लगावत।
भूत पिशाच निकट नहीं आवत।।
भांति - भांति के कष्ट अपारा।
करि उपचार मनुज जब हारा।।
हरसू ब्रह्म के धाम पधारे।
श्रमित - भ्रमित जन - मन से हारे।।
तव चरणन परि पूजा करई।
नियत काल तक व्रत अनुसरई।।
श्रद्धा अरु विश्वास बटोरी।
बांधे तुमहि प्रेम की डोरी।।
कृपा करहु तेहि पर करुणाकर।
कष्ट मिटे लौटे प्रमुदित घर।।
वर्ष - वर्ष तव दर्शन करहीं।
भक्ति भाव श्रद्धा उर भरहीं।।
तुम व्यापक सबके उर अंतर।
जानहु भाव कुभाव निरन्तर।।
मिटे कष्ट नर अति सुख पावे।
जब तुमको उर - मध्य बिठावे।।
करत ध्यान अभ्यास निरन्तर।
तब होइहहिं प्रकाश उर अंतर।।
देखहहिं शुद्ध स्वरूप तुम्हारा।
अनुभव गम्य विवेक सहारा।।
सदा एक रस जीवन भोगी।
ब्रह्म रूप तब होइहहिं योगी।।
यज्ञ स्थल तब धाम शुभ्रतर।
हवन यज्ञ जहँ होत निरंतर।।
सिद्धासन बैठे योगी जन।
ध्यान मग्न अविचल अन्तर्मन।।
अनुभव करहिं प्रकाश तुम्हारा।
होकर द्वैत भाव से न्यारा।।
पाठ करत बहुधा सकाम नर।
पूर्ण होत अभिलाषा - शीघ्रतर।।
नर - नारी गण युग कर जोरे।
विनवत चरण परत प्रभु तोरे।।
भूत पिशाच प्रकट होई बोले।
गुप्त रहस्य शीघ्र ही खोले।।
ब्रह्म तेज तव सहा न जाई।
छोड़ देह तब चले पराई।।

दोहा:-
पूर्ण काम हरसू सदा, पूरण कर सब काम।
परम तेजमय बसहु तुम, भक्तन के उर धाम।।

लक्ष्य और उद्देश्य



रेगिस्तान में कई ऊंट अपने मालिक के साथ जा रहे थे अंधेरा होता देख मालिक एक सराय में रुकने का आदेश दे दिया।
निन्यानवे ऊंटों को जमीन में खूंटियां गाड़कर उन्हें रस्सियों से बांध दिया मगर एक ऊंट के लिए खूंटी और रस्सी कम पड़ गई सराय में खोजबीन की, पर व्यवस्था हो नहीं पाई।
तब सराय के मालिक ने सलाह दी कि तुम खूंटी गाड़ने जैसी चोट करो और ऊंट को रस्सी से बांधने का अहसास करवाओ।
यह बात सुनकर मालिक हैरानी में पड़ गया पर दूसरा कोई रास्ता नहीं था इसलिए उसने वैसा ही किया झूठी खूंटी गाड़ी गई  चोटें की गईं ऊंट ने चोटें सुनीं और समझ लिया कि बंध चुका है वह बैठा और सो गया।
सुबह निन्यानबे ऊंटों की खूटियां उखाड़ीं और रस्सियां खोलीं सभी ऊंट उठकर चल पड़े पर एक ऊंट बैठा रहा मालिक को आश्चर्य हुआ अरे यह तो बंधा भी नहीं है फिर भी उठ नहीं रहा है।
सराय के मालिक ने समझाया तुम्हारे लिए वहां खूंटी का बंधन नहीं है मगर ऊंट के लिए है जैसे रात में व्यवस्था की वैसे ही अभी खूंटी उखाड़ने और बंधी रस्सी खोलने का अहसास करवाओ मालिक ने खूंटी उखाड़ दी जो थी ही नहीं अभिनय किया और रस्सी खोल दी जिसका कोई अस्तित्व नहीं था इसके बाद ऊंट उठकर चल पड़ा।
न केवल ऊंट बल्कि मनुष्य भी ऐसी ही(धर्म,रीति रिवाज) खूंटियों से और रस्सियों से बंधे होते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता मनुष्य बंधता है अपने ही गलत दृष्टिकोण से मिथ्या सोच से विपरीत मान्यताओं की पकड़ से ऐसा व्यक्ति सच को झूठ और झूठ को सच मानता है वह दोहरा जीवन जीता है। उसके आदर्श और आचरण में लंबी दूरी होती है इसलिए जरूरी है कि मनुष्य का मन जब भी जागे लक्ष्य का निर्धारण सबसे पहले करे बिना उद्देश्य मीलों तक चलना सिर्फ थकान भटकाव और नैराश्य देगा मंज़िल नहीं।"

Monday, 17 December 2018

आशावादी आस्तिक

विचार मंथन
आशावादी आस्तिक
आशावाद आस्तिकता है। सिर्फ नास्तिक ही निराशावादी हो सकता है। आशावादी ईश्वर का डर मानता है, विनयपूर्वक अपना अन्तर नाद सुनता है, उसके अनुसार बरतता है और मानता है कि ‘ईश्वर जो करता है वह अच्छे के लिये ही करता है।’
निराशावादी कहता है ‘मैं करता हूँ।’ अगर सफलता न मिले तो अपने को बचाकर दूसरे लोगों के मत्थे दोष मढ़ता है, भ्रमवश कहता है कि “किसे पता ईश्वर है या नहीं’, और खुद अपने को भला तथा दुनिया को बुरा मानकर कहता है कि ‘मेरी किसी ने कद्र नहीं की’ ऐसा व्यक्ति एक प्रकार का आत्मघात कर लेता है और मुर्दे की तरह जीवन बिताता है।

Sunday, 16 December 2018

भगवान ही आपकी बात को सुनता है

मीरा जी जब भगवान कृष्ण के लिए गाती थी तो भगवान बड़े ध्यान से सुनते थे।
सूरदास जी जब पद गाते थे तब भी भगवान सुनते थे।
और कहाँ तक कहूँ कबीर जी ने तो यहाँ तक कह दिया:- चींटी के पग नूपुर बाजे वह भी साहब सुनता है।
एक चींटी कितनी छोटी होती है अगर उसके पैरों में भी घुंघरू बाँध दे तो उसकी आवाज को भी भगवान सुनते है।
यदि आपको लगता है की आपकी पुकार भगवान नहीं सुन रहे तो ये आपका वहम है या फिर आपने भगवान के स्वभाव को नहीं जाना।
कभी प्रेम से उनको पुकारो तो सही, कभी उनकी याद में आंसू गिराओ तो सही।
मैं तो यहाँ तक कह सकता हूँ की केवल भगवान ही है जो आपकी बात को सुनता है।
एक छोटी सी कथा संत बताते है:-
एक भगवान जी के भक्त हुए थे, उन्होंने 20 साल तक लगातार भगवत गीता जी का पाठ किया।
अंत में भगवान ने उनकी परिक्षा लेते हुऐ कहा:- अरे भक्त! तू सोचता है की मैं तेरे गीता के पाठ से खुश हूँ, तो ये तेरा वहम है।
मैं तेरे पाठ से बिलकुल भी प्रसन्न नही हुआ।
जैसे ही भक्त ने सुना तो वो नाचने लगा, और झूमने लगा।
भगवान ने बोला:- अरे! मैंने कहा की मैं तेरे पाठ करने से खुश नही हूँ और तू नाच रहा है।
वो भक्त बोला:- भगवान जी आप खुश हो या नहीं हो ये बात मैं नही जानता।
लेकिन मैं तो इसलिए खुश हूँ की आपने मेरा पाठ कम से कम सुना तो सही, इसलिए मैं नाच रहा हूँ।
ये होता है भाव....
थोड़ा सोचिये जब द्रौपती जी ने भगवान कृष्ण को पुकारा तो क्या भगवान ने नहीं सुना?
भगवान ने सुना भी और लाज भी बचाई।
जब गजेन्द्र हाथी ने ग्राह से बचने के लिए भगवान को पुकारा तो क्या भगवान ने नहीं सुना?
बिल्कुल सुना और भगवान अपना भोजन छोड़कर आये।
कबीरदास जी, तुलसीदास जी, सूरदास जी, हरिदास जी, मीरा बाई जी, सेठजी, भाई पोद्दार जी, राधाबाबा जी, श्री रामसुखदास जी और न जाने कितने संत हुए जो भगवान से बात करते थे और भगवान भी उनकी सुनते थे।
इसलिए जब भी भगवान को याद करो उनका नाम जप करो तो ये मत सोचना की भगवान आपकी पुकार सुनते होंगे या नहीं?
कोई संदेह मत करना, बस ह्रदय से उनको पुकारना, तुम्हे खुद लगेगा की हाँ, भगवान आपकी पुकार को सुन रहे है !

Saturday, 15 December 2018

आनंद पर शर्त

आनंद पर शर्त

एक दिन एक उदास पति-पत्नी संत फरीद के पास पहुंचे। उन्होंने विनय के स्वर में कहा,’बाबा, दुनिया के कोने-कोने से लोग आपके पास आते हैं, वे आपसे खुशियां लेकर लौटते हैं। आप किसी को भी निराश नहीं करते। मेरे जीवन में भी बहुत दुख हैं। मुझे उनसे मुक्त कीजिए।’ फरीद ने देखा, सोचा और झटके से झोपड़े के सामने वाले खंभे के पास जा पहुंचे। फिर खंभे को दोनों हाथों से पकड़कर ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाने लगे। शोर सुनकर सारा गांव इकट्ठा हो गया। लोगों ने पूछा कि क्या हुआ तो बाबा ने कहा-‘इस खंभे ने मुझे पकड़ लिया है, छोड़ नहीं रहा है।’ लोग हैरानी से देखने लगे।

एक बुजुर्ग ने हिम्मत कर कहा- ‘बाबा, सारी दुनिया आपसे समझ लेने आती है और आप हैं कि खुद ऐसी नासमझी कर रहे हैं। खंभे ने कहां, आपने खंभे को पकड़ रखा है।’ फरीद खंभे को छोड़ते हुए बोले, ‘यही बात तो तुम सब को समझाना चाहता हूं कि दुख ने तुम्हें नहीं, तुमने ही दुखों को पकड़ रखा है। तुम छोड़ दो तो ये अपने आप छूट जाएंगे।’

 उनकी इस बात पर गंभीरता से सोचें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि हमारे दुख-तकलीफ इसलिए हैं क्योंकि हमने वैसी सोच बना रखी है। ऐसा न हुआ तो क्या होगा और वैसा न हुआ तो क्या हो सकता है। सब दुख हमारी नासमझी और गलत सोच के कारण मौजूद हैं। इसलिए सिर्फ अपनी सोच बदल दीजिए, सारे दुख उसी वक्त खत्म हो जाएंगे। ऐसा नहीं है कि जितने संबुद्ध हुए हैं, उनके जीवन में सब कुछ अच्छा-अच्छा हुआ हो, लेकिन वे 24 घंटे मस्ती में रहते थे। कबीर आज कपड़ा बुन कर बेचते, तब कल उनके खाने का जुगाड़ होता था। लेकिन वह कहते थे कि आनंद झरता रहता है नानक आनंदित होकर एकतारे की तान पर गीत गाते चलते थे। एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सुख और दुख सिर्फ आदतें हैं। दुखी रहने की आदत तो हमने डाल रखी है । सुखी रहने की आदत भी डाल सकते हैं।

एक प्रयोग कीजिए और तुरंत उसका परिणाम भी देख लीजिए। सुबह सोकर उठते ही खुद को आनंद के भाव से भर लीजिए। इसे स्वभाव बनाइए और आदत में शामिल कर लीजिए। यह गलत सोच है कि इतना धन, पद या प्रतिष्ठा मिल जाए तो आनंदित हो जाएंगे। दरअसल, यह एक शर्त है। जिसने भी अपने आनंद पर शर्त लगाई वह आज तक आनंदित नहीं हो सका। अगर आपने बेशर्त आनंदित जीवन जीने का अभ्यास शुरू कर दिया तो ब्रहमांड की सारी शक्तियां आपकी ओर आकर्षित होने लगेंगी।

 क्राइस्ट ने अद्भुत कहा है, ‘पहले तुम प्रभु के राज्य में प्रवेश करो यानी तुम पहले आनंदित हो जाओ, बाकी सभी चीजें तुम्हें अपने आप मिलती चली जाएंगी।

Friday, 14 December 2018

किसी के फेंके हुए मैले शब्दों को अपने मन में धारण न करें

एक गांव में एक बहुत समझदार और संस्कारी औरत रहती थी। एक बार वह अपने बेटे के साथ सुबह-सुबह कहीं जा रही थी तभी एक पागल औरत उन दोनों मां-बेटे के रास्ते में आ गई और उस लड़के की मां को बहुत बुरा-भला कहने लगी। इस पागल औरत ने लड़के की मां को बहुत सारे अपशब्द कहे लेकिन फिर भी उस औरत की बातों का मां पर कोई असर नहीं हुआ और वह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गई।
जब उस पागल औरत ने देखा कि इस औरत पर तो उसकी बातों का कोई असर ही नहीं हो रहा है, तो वह और भी गुस्सा हो गई और उसने सोचा कि मैं और ज्यादा बुरा बोलती हूं। अब वो पागल औरत उस लड़के की मां, उसके पति और परिवार के लिए भला-बुरा कहने लगी। लड़के की मां फिर भी बिना कुछ बोले आगे बढ़ते रही। काफी देर भला-बुरा कहने के बाद भी जब सामने से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो पागल औरत थककर लड़के की मां के रास्ते से हट गई और दूसरे रास्ते पर चली गई।
उस औरत के जाते ही बेटे ने अपनी मां से पूछा कि मां उस औरत ने आपको इतना बुरा-भला कहा, पिताजी और घर के अन्य लोगों तक के लिए बुरी बातें कही, आपने उस दुष्ट की बातों का कोई जवाब क्यों नहीं दिया? वो औरत कुछ भी जो मन में आया बोलती रही और आप मुस्कुराती रही, क्या आपको उसकी बातों से जरा भी कष्ट नहीं हुआ?
उस समय मां ने बेटे को कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप घर चलने को कहा। जब दोनों अपने घर के अंदर पहुच गए तब मां ने कहा कि तुम यहा बैठो, मैं आती हूं। कुछ देर बाद मां अपने कमरे से कुछ मैले कपड़े लाई और बेटे को बोली कि यह लो, तुम अपने कपड़े उतारकर ये कपड़े पहन लो। इस पर बेटे ने कहा कि ये कपड़े तो बहुत ही गंदे हो रहे हैं और इनमें से तो तेज दुर्गंध आ रही है। बेटे ने उन मैले कपड़ों को हाथ में लेते ही उन्हें दूर फेंक दिया।
अब मां ने बेटे को समझाया कि जब कोई तुमसे बिना मतलब उलझता है और भला-बुरा कहता है, तब उसके मैले शब्दों का असर क्या तुम्हें अपने साफ-सुथरे मन पर होने देना चाहिए? ऐसे समय में गुस्सा होकर अपना साफ-सुथरा मन क्यों खराब करना?
किसी के फेंके हुए मैले अपशब्द हमें अपने मन में धारण करके अपना मन नहीं खराब करना चाहिए और न ही ऐसी किसी बात पर प्रतिक्रिया देकर अपना समय ही नष्ट करना चाहिए। जिस तरह तुम अपने साफ-सुथरे कपड़ों की जगह ये मैले कपड़े धारण नहीं कर सकते, उसी तरह मैं भी उस औरत के फेंके हुए मैले शब्दों को अपने साफ मन में कैसे धारण करती? यही वजह थी कि मुझे उसकी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा।

Thursday, 13 December 2018

अच्छे लोगो के साथ बुरा क्यो होता है

अच्छे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने दिया इसका उत्तर, जाने।
अच्छे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, यह सवाल कई लोगो के मन मे आता होगा। मैंने तो किसी का बुरा नही किया, फिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ। मैं तो सदैव ही धर्म और नीति के मार्ग का पालन करता हूँ, फर मेरे साथ हमेशा बुरा क्यो होता है। ऐसे कई विचार अधिकांश लोगों के मन मे आते होंगे। ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने दिए हैं। एक बार अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि हे वासुदेव! अच्छे और सच्चे बुरे लोगो के साथ ही बुरा क्यो होता है, इस पर भगवान श्री कृष्ण ने एक कहानी सुनाई। इस कहानी में हर मनुष्य के सवालों का जवाब वर्णित है।
श्री कृष्ण कहते हैं, कि एक नगर में दो पुरूष रहते थे। पहला व्यापारी जो बहुत ही अच्छा इंसान था, धर्म और नीति का पालन करता था, भगवान की भक्ति करता था और मन्दिर जाता था। वह सभी तरह के गलत कामो से दूर रहता था। वहीं दूसरा व्यक्ति जो कि दुष्ट प्रवत्ति का था, वो हमेशा ही अनीति और अधर्म के काम करता था। वो रोज़ मन्दिर से पैसे और चप्पल चुराता था, झूठ बोलता था और नशा करता था। एक दिन उस नगर में तेज बारिश हो रही थी और मन्दिर में कोई नही था, यह देखकर उस नीच व्यक्ति ने मन्दिर के सारे पैसे चुरा लिए और पुजारी की नज़रों से बचकर वहाँ से भाग निकला, थोड़ी देर बाद जब वो व्यापारी दर्शन करने के उद्देश्य से मन्दिर गया तो उस पर चोरी करने का इल्ज़ाम लग गया। वहाँ मौजूद सभी लोग उसे भला – बुरा कहने लगे, उसका खूब अपमान हुआ। जैसे – तैसे कर के वह व्यक्ति मन्दिर से बाहर निकला और बाहर आते ही एक गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी। वो व्यापारी बुरी तरह से चोटिल हो गया।
इस वक्त उस दुष्ट को एक नोटो से भरी पोटली हाथ लगी, इतना सारा धन देखकर वह दुष्ट खुशी से पागल हो गया और बोला कि आज तो मज़ा ही आ गया। पहले मन्दिर से इतना धन मिला और फिर ये नोटों से भरी पोटली। दुष्ट की यह बात सुनकर वह व्यापारी दंग रह गया। उसने घर जाते ही घर मे मौजूद भगवान की सारी तस्वीरे निकाल दी और भगवान से नाराज़ होकर जीवन बिताने लगा। सालो बाद जब उन दोनों की मृत्यु हो गयी और दोनों यमराज के सामने गए तो उस व्यापारी ने नाराज़ स्वर में यमराज से प्रश्न किया कि मैं तो सदैव ही अच्छे कर्म करता था, जिसके बदले मुझे अपमान और दर्द मिला और इस अधर्म करने वाले दुष्ट को नोटो से भरी पोटली…आखिर क्यों? व्यापारी के सवाल पर यमराज बोले जिस दिन तुम्हारे साथ दुर्घटना घटी थी, वो तुम्हारी ज़िन्दगी का आखिरी दिन था, लेकिन तुम्हारे अच्छे कर्मों की वजह से तुम्हारी मृत्यु एक छोटी सी चोट में बदल गयी। वही इस दुष्ट को जीवन मे राजयुग मिलने की सम्भावनाएं थी, लेकिन इसके बुरे कर्मो के चलते वो राजयोग एक छोटे से धन की पोटली में बदल गया।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि भगवान हमे किस रूप में दे रहे हैं, ये समझ पाना बेहद कठिन होता है। अगर आप अच्छे कर्म कर रहे हैं और बुरे कर्मो से दूर हैं, तो भगवान निश्चित ही अपनी कृपा आप पर बनाए रखेंगे।
जीवन मे आने वाले दुखों और परेशानियों से कभी ये न समझे कि भगवान हमारे साथ नही है, हो सकता है आपके साथ और भी बुरा होने का योग हो, लेकिन आपके कर्मों की वजह से आप उनसे बचे हुए हो।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई इस रोचक कहानी में मनुष्यों के अधिकांश सवालों के उत्तर मौजूद हैं।

Wednesday, 12 December 2018

अपेक्षा ही दुःख का कारण

अपेक्षा ही दुःख का कारण..

किसी दिन एक मटका और गुलदस्ता साथ में खरीदा हों और घर में लाते ही 50 रूपये का मटका अगर फूट जाएं तो हमें इस बात का दुःख होता हैं

क्योंकि मटका इतनी जल्दी फूट जायेगा ऐसी हमें कल्पना भी नहीं थीं।

परंतु गुलदस्ते के फूल जो 200 रूपये के हैं, वो शाम तक मुर्झा जाएं.. तो भी हम दुःखी नहीं होते।
क्योंकि ऐसा होने वाला ही हैं..यह हमें पता ही था।

मटके की इतनी जल्दी फूटने की हमें अपेक्षा ही नहीं थीं..

तो फूटने पर दुःख का कारण बना।
परंतु​ फूलों से अपेक्षा नहीं थीं..
इसलिए​ वे दुःख का कारण नहीं बनें।

इसका मतलब साफ़ हैं कि जिसके लिए जितनी अपेक्षा ज़्यादा..उसकी तरफ़ से उतना दुःख ज़्यादा..
और जिसके लिए जितनी अपेक्षा कम, उसके लिए उतना ही दुःख भी कम ।

शरीर के तीन पाप

शरीर के तीन पापः

अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।

परदारोपसेवा च शरीरं त्रिविधं स्मृतम्।।

'पराये हक का लेना, अवैधानिक हिंसा करना, पर-स्त्री का संग करना – ये तीन शारीरिक पाप कहे जाते हैं।'

लोभकृत पापः आपके पास जो भी चीज है, वह आपके हक की होनी चाहिए। पिता-पितामह की तरफ से वसीयत के रूप में मिली हो, अपने परिश्रम से न्यायपूर्वक प्राप्त की हो, खरीदी हो, किसी ने दी हो अथवा किसी राज्य पर विजय हासिल कर प्राप्त की हो तो भी ठीक है। किंतु किसी की वस्तु को उसकी अनुमति अथवा जानकारी के बिना ले लेना यह शारीरिक पाप है। जो वस्तु आपके हक की नहीं है, जो आपको दी भी नहीं गयी है ऐसी दूसरे की वस्तु को हड़प लेना यह लोभकृत पाप है।

क्रोधकृत पापः हिंसा चैवाविधानतः। जो धर्मानुसार एवं संविधानुसार नहीं है ऐसे कृत्य का आचरण यह शारीरिक पाप है। जिससे अपनी और अपने पड़ोसी की, दोनों की लौकिक, पारलौकिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हो, उसमें रूकावट न आये ऐसा कर्म धर्म है और ऐसे धर्म को भंग करना यह पाप है।

हिंसा दो प्रकार की होती हैः कानूनी और गैर-कानूनी। जब जल्लाद किसी को फाँसी पर लटकाता है, सैनिक आक्रमणकारी शत्रुदेश के सैनिक पर बंदूक चलाता है तो यह कानूनी हिंसा अपराध नहीं मानी जाती, वरन् उसके लिए वेतन दिया जाता है। हमारे शास्त्रीय संविधान के विरुद्ध जो हिंसा है वह हमारे जीवन में नहीं होनी चाहिए। मानवता को सुदृढ़ बनाने कि लिए, सुरक्षित रखने के लिए और गौरवान्वित करने के लिए हमारे जीवन से, वाणी से, सकल्प से किसी को कष्ट न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। हम जो करें, जो कुछ बोलें, जो कुछ लें, जो कुछ भोगें, उससे अन्य को तकलीफ न हो इसका यथासंभव ध्यान रखना चाहिए। यह मानवता का भूषण है।

कामकृत पापः पर-स्त्री के साथ संबंध यह कामकृत पाप है।

न ही दृशं अनावेश्यं लोके किंचन विद्यते।

पर स्त्री के साथ संबंध से बढ़कर शरीर को रोग देने वाला, मृत्यु देने वाला, आयुष्य घटाने वाला अन्य कोई दोष नहीं है। मानव की मर्यादा का यह उल्लंघन है। यह मर्यादा मानव की खास-विशेषता है। पशु, पक्षी, देवता अथवा दैत्यों में यह मर्यादा नहीं होती।

जैसे लोभ एक विकार है, क्रोध एक विकार है, वैसे ही काम भी एक विकार है। यह परंपरा से आता है। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के मन में भी यह था। इस प्राकृतिक प्रवाह को मर्यादित करने का उपाय अन्य किसी योनि में नहीं है। मनुष्य जीवन में ही उपाय है कि विवाह संस्कार के द्वारा माता-पिता, सास-ससुर एवं अग्नि को साक्षी बनाकर विवाह का संबंध जोड़ा जाता है। उस विवाह के बाद ही पति-पत्नी यज्ञ के अधिकारी होते हैं। 'पत्नी' शब्द का भी इसी अर्थ में उपयोग किया जाता है – 'त्युनो यज्ञसंयोग।' यज्ञ में, धर्मकार्य में जो सहधर्मिणी हो, सहभागिनी हो वह है पत्नी। यह पवित्र विवाह संस्कार धर्म की दृष्टि से मानव को सर्वोत्कृष्ट, संयमी एवं मर्यादित बनाता है। जिससे मानवता की सुरक्षा होती है उस आचार, विचार, विधि, संस्कार एवं मर्यादा का पालन मानव को अवश्य करना चाहिए। मर्यादा अर्थात् क्या ? 'मर्यि' अर्थात् मानव जिसे धर्मानुसार, ईश्वरीय संविधान के अनुसार आत्म-दृष्टि से, मानवता की दृष्टि से अपने जीवन में स्वीकार करे। जिसमें कोई मर्यादा नहीं है वह मर्यादाहीन जीवन मनुष्य जीवन नहीं, पशु जीवन कहलाता है।

यहाँ हमने मानवता को दूषित करने वाली चीजों की मीमांसा की। उनसे सावधानीपूर्वक बचना चाहिए। अब मनुष्यता को उज्जवल करने वाली बातों के विषय में विचार करेंगे। इन बातों को, मानवता की इन विशेषताओं को समझे। धर्म को कहीं से उधार नहीं लेना है अपितु वह हमारे ही अंदर स्थित है, उसे प्रगट करना पड़ता है। हीरे में चमक बाहर से नहीं भरनी पड़ती, किंतु हीरे को घिसकर उसके भीतर की चमक को प्रगट करना पड़ता है।

Sunday, 9 December 2018

भगवान से रिश्ता हो

।। भगवान से रिश्ता हो ।।

एक बार ऐसा हुआ कि एक पंडित जी थे।
पंडित जी ने एक दुकानदार के पास पाँच सौ रुपये रख दिये,उन्होंने सोचा कि जब बच्ची की शादी होगी, तो पैसा ले लेंगे,थोड़े दिनों के बाद जब बच्ची सयानी हो गयी, तो पंडित जी उस दुकानदार के पास गये।
उसने नकार दिया कि आपने कब हमें पैसा दिया था। उसने पंडित जी से कहा कि क्या हमने कुछ लिखकर दिया है,पंडित जी इस हरकत से परेशान हो गये और चिन्ता में डूब गये।
थोड़े दिन के बाद उन्हें याद आया कि क्यों न राजा से इस बारे में शिकायत कर दें ताकि वे कुछ फैसला कर दें एवं मेरा पैसा कन्या के विवाह के लिए मिल जाये।
वे राजा के पास पहुँचे तथा अपनी फरियाद सुनाई।
राजा ने कहा-कल हमारी सवारी निकलेगी,तुम उस लालाजी की दुकान के पास खड़े रहना।
राजा की सवारी निकली। सभी लोगों ने फूलमालाएँ पहनायीं, किसी ने आरती उतारी।
पंडित जी लालाजी की दुकान के पास खड़े थे।
राजा ने कहा-गुरुजी आप यहाँ कैसे, आप तो हमारे गुरु हैं?
आइये इस बग्घी में बैठ जाइये,लालाजी यह सब देख रहे थे,उन्होंने आरती उतारी, सवारी आगे बढ़ गयी।
थोड़ी दूर चलने के बाद राजा ने पंडित जी को उतार दिया और कहा कि पंडित जी हमने आपका काम कर दिया।
अब आगे आपका भाग्य।
उधर लालाजी यह सब देखकर हैरान थे कि पंडित जी की तो राजा से अच्छी साँठ-गाँठ है।
कहीं वे हमारा कबाड़ा न करा दें।
लालाजी ने अपने मुनीम को पंडित जी को ढूँढ़कर लाने को कहा-पंडित जी एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ विचार कर रहे थे,मुनीम जी आदर के साथ उन्हें अपने साथ ले गये।
लालाजी ने प्रणाम किया और बोले-पंडित जी हमने काफी श्रम किया तथा पुराने खाते को देखा, तो पाया कि हमारे खाते में आपका पाँच सौ रुपये जमा है।
पंडित जी दस साल में ब्याज के बारह हजार रुपये हो गये,पंडित जी आपकी बेटी हमारी बेटी है।
अत: एक हजार रुपये आप हमारी तरफ से ले जाइये तथा उसे लड़की की शादी में लगा देना,इस प्रकार लालाजी ने पंडित जी को तेरह हजार रुपये देकर प्रेम के साथ विदा किया,जब.... मात्र एक राजा के साथ सम्बंध होने भर से विपदा दूर जो जाती है तो हम सब भी अगर इस दुनिया के राजा, दीनदयालु भगवान .से अगर अपना सम्बन्ध जोड़ लें...............तो आपकी कोई समस्या, कठिनाई या फिर आपके साथ अन्याय का .....कोई प्रश्न ही नही उत्पन्न होता।।

Saturday, 8 December 2018

हमारी भावनाऐं और हमारा विकाश

हमारी भावनाऐं और हमारा विकाश.

एक गरीब आदमी राह पर चलते भिखारियों को देखकर हमेंशा दु:खी होता और भगवान से प्रार्थना करता कि:- “हे भगवान! मुझे इस लायक तो बनाता कि मैं इन बेचारे भिखारियों को कम से कम 1 रूपया दे सकता।
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“भगवान ने उसकी सुन ली और उसे एक अच्छी कम्पनी में काम मिल गया।

अब उसे जब भी कोई भिखारी दिखाई देता, वह उन्हें 1 रूपया अवश्य देता, लेकिन वह 1 रूपया देकर सन्तुष्ट नहीं था।
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इसलिए वह जब भी भिखारियोंको 1 रूपए का दान देता, ईश्वर से प्रार्थना करता कि:- “हे भगवान! 1 रूपए में इन बेचारों का क्या होगा?
कम से कम मुझे ऐसा तो बनाता कि मैं इन बेचारे भिखारियों को 10 रूपया दे सकता। एक रूपए में आखिर होता भी क्या है"

संयोग से कुछ समय बाद उसी कम्पनी में उसकी तरक्की हो गई और वह उसी कम्पनी में मेनेजर बन गया, जिससे उसका स्तर ऊंचा हो गया। उसने अच्छी सी महंगी कार खरीद ली, बडा घर बनवा लिया।

फिर भी उसे जब भी कोई भिखारी दिखाई देता, वह अपनी अपनी कार रोककर उन्हें 100 रूपया दे देता, मगर फिर भी उसे खुशी नहीं थी।
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वह अब भी भगवान से प्रार्थना करता कि:“100 रूपए में इन बेचारों का क्या भला होता होगा?
काश मैं ऐसा बन पाता कि जो भी भिखारी मेरे सामने से गुजरता, वो भिखारी ही न रह जाता।“संयोग से नियति ने फिर उसका साथ दिया और वो कॉर्पोरेट जगत का चेयरमैन चुन लिया गया।
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अब उसके पास धन की कोई कमी नहीं थी। मंहगी कार, बंगला, प्रथम श्रेणी का रेल टिकट आदि उसके लिए अब पुरानी बातें हो चुकी थीं। अब वह हमेंशा अपने स्वयं के हवाई जहाज में ही सफर करता था और एक शहर से दूसरे शहर नहीं बल्कि एक देश से दूसरे देश में घूमता था।

लेकिन गरीब, निर्धनों के प्रति उसकी प्रार्थनाऐं अभी भी वैसी ही थीें, जैसी तब थीं, जब वह एक गरीब व्यक्ति था।
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इस लघु कथा का सार यह है कि आपकी नियति या आपका भाग्य अापकी भावनाओं पर ही निर्भर करता है।

आप जैसी भावनाऐं रखते हैं, वैसे ही बनते जाते हैं। इसलिए आप जैसा बनना चाहते हैं, वैसी ही भावनाऐं रखिये।

प्रेम मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है


एक बार संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थीं। पुस्तक में एक जगह लिखा था,
"शैतान से घृणा करो, प्रेम से नहीं।" राबिया ने वह लाइन काट दी।
कुछ दिन बाद उनसे मिलने एक संत आए। वह उस पुस्तक को पढ़ने लगे। उन्होंने कटा हुआ वाक्य देख कर सोचा कि किसी नासमझ ने उसे काटा होगा। उसे धर्म का ज्ञान नहीं होगा।
उन्होंने राबिया को वह पंक्ति दिखा कर कहा- "जिसने यह पंक्ति काटी है वह जरूर नास्तिक होगा।"
राबिया ने कहा- "इसे तो मैंने ही काटा है।"
संत ने अधीरता से कहा- "तुम इतनी महान संत होकर यह कैसे कह सकती हो कि शैतान से घृणा मत करो। शैतान तो इंसान का दुश्मन होता है।"
इस पर राबिया ने कहा- "पहले मैं भी यही सोचती थी कि शैतान से घृणा करो। लेकिन उस समय मैं प्रेम को समझ नहीं सकी थी। लेकिन जब से मैं प्रेम को समझी, तब से बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं कि घृणा किससे करूं। मेरी नजर में घृणा लायक कोई नहीं है।"
संत ने पूछा- "क्या तुम यह कहना चाहती हो कि जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें।"
राबिया बोली- "प्रेम किया नहीं जाता। प्रेम तो मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है। जो ईश्वर को भीतर जान लेने के पश्चात ही उसका स्फुरण होता है। प्रेम के अंकुरित होने पर मन के अंदर घृणा के लिए कोई जगह नहीं होगी।
हम सबकी एक ही तकलीफ है। हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता। यह कोई नहीं सोचता ,कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं है, यह देने की चीज है। हम प्रेम देते हैं। यदि शैतान से प्रेम करोगे तो वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।"
संत ने कहा- "अब समझा, राबिया! तुमने उस पंक्ति को काट कर ठीक ही किया है। दरअसल हमारे ही मन के अंदर प्रेम करने का अहंकार भरा है। इसलिए हम प्रेम नहीं करते, प्रेम करने का नाटक करते हैं। यही कारण है कि संसार में नफरत और द्वेष फैलता नजर आता है।"

प्रेम का पौधा अन्तर्घट(ह्रदय) में उगता है ,बाहरी जमीं पर नहीं और वह पूर्ण संत के सान्निध्य में पुष्पित एवं पल्लवित और खुशनुमा होता है!