Wednesday, 31 October 2018

जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब किताब नही होता है

एक बार एक ग्वालन दूध बेच रही थी और सबको दूध नाप नाप कर दे रही थी । उसी समय एक नौजवान दूध लेने आया तो ग्वालन ने बिना नापे ही उस नौजवान का बरतन दूध से भर दिया।
वही थोड़ी दूर पर एक साधु हाथ में माला लेकर मनको को गिन गिन कर माल फेर था। तभी उसकी नजर ग्वालन पर पड़ी और उसने ये सब देखा और पास ही बैठे व्यक्ति से सारी बात बताकर इसका कारण पूछा ।
उस व्यक्ति ने बताया कि जिस नौजवान को उस ग्वालन ने बिना नाप के दूध दिया है वह उस नौजवान से प्रेम करती है इसलिए उसने उसे बिना नाप के दूध दे दिया ।
यह बात साधु के दिल को छू गयी और उसने सोचा कि एक दूध बेचने वाली ग्वालन जिससे प्रेम करती है तो उसका हिसाब नही रखती और मैं अपने जिस ईश्वर से प्रेम करता हुँ, उसके लिए सुबह से शाम तक मनके गिनगिन कर माला फेरता हुँ। मुझसे तो अच्छी यह ग्वालन ही है और उसने माला तोड़कर फेंक दी।
जीवन भी ऐसा ही है। जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब किताब नही होता है, और जहाँ हिसाब किताब होता है वहाँ प्रेम नही होता है, सिर्फ व्यापार होता ।
अतः प्रेम भलेही वो पत्नी से हो , भाई से हो , बहन से हो , रिश्तेदार से हो, पडोसी से हो , दोस्त से हो या फिर भगवान से । निस्वार्थ प्रेम कीजिये जहाँ कोई गिनती न हो , बस प्रेम हो।

Sunday, 28 October 2018

जीवन में अपना दृष्टिकोण बदलें

कृष्ण कहते हैं जो मनुष्य कर्म करते समय उसे मेरे अर्पण कर देते हैं फिर उसे कोई चिंता नही हो सकती।


         एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म (ईश्वर की खोज) में समय लगाए । राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर अपने गुरु को अपनी समस्याएँ बताते हुए कहा कि उसे राज्य का कोई योग्य वारिस नहीं मिल पाया है । राजा का बच्चा छोटा है, इसलिए वह राजा बनने के योग्य नहीं है । जब भी उसे कोई पात्र इंसान मिलेगा, जिसमें राज्य सँभालने के सारे गुण हों, तो वह राजपाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिए समर्पित कर देगा । गुरु ने कहा, "राज्य की बागड़ोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते ? क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है ?"
राजा ने कहा, "मेरे राज्य को आप से अच्छी तरह भला कौन सम्भाल सकता है ? लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागड़ोर आपके हाथों में सौंप देता हूँ ।"
गुरु ने पूछा, "अब तुम क्या करोगे ?"
राजा बोला, "मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूँगा, जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाए ।"
गुरु ने कहा, "मगर अब खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूँगा ।"
राजा बोला, "फिर ठीक है, "मैं कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा, उससे जो भी मिलेगा गुजारा कर लूँगा ।"
गुरु ने कहा, "अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहाँ एक नौकरी खाली है । क्या तुम मेरे यहाँ नौकरी करना चाहोगे ?"
राजा बोला, "कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूँ ।"
गुरु ने कहा, "मेरे यहाँ राजा की नौकरी खाली है । मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना ।"
एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था । अब तो दोनों ही काम हो रहे थे । जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य सँभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था । अब उसे कोई चिंता नहीं थी ।
इस कथा से ये समझ में आया की वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ ? कुछ भी तो नहीं ! राज्य वही, राजा वही, काम वही; बस दृष्टिकोण बदल गया । इसी तरह हम भी जीवन में अपना दृष्टिकोण बदलें । मालिक बनकर नहीं, बल्कि यह सोचकर सारे कार्य करें की, "मैं ईश्वर कि नौकरी कर रहा हूँ" अब ईश्वर ही जाने । और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें । ये सोचें कि मुझे तो जो जवाबदारी मेरे ठाकुर ने दी है वह पूरी लगन से करना है । फिर आप हर समस्या और परिस्थिति में खुशहाल रह पाएँगे ।। आपने देखा भी होगा की नौकरों को कोई चिंता नहीं होती मालिक का चाहे फायदा हो या नुकसान वो तो मस्त रहते हैं । क्योंकि चिन्ता तो मालिक को होती हैं तो हमें भी अपने मालिक(ठाकुरजी) पर छोड़ देना चाहिए ।

मुझे सुरक्षा मिलनी ही चाहिए

एक बन्दा इलेक्शन मे किस्मत आजमा रहा था, उसे सिर्फ तीन वोट मिले, अब उसने सरकार से जेड प्लस सुरक्षा की मांग की..

जिले के DM ने समझाते हुए कहा “आप को सिर्फ 3 वोट मिले है आप को जेड प्लस कैसे दे सकते है”

आदमी बोला:- “जिस शहर मे इतने लोग मेरे खिलाफ हो तो मुझे सुरक्षा मिलनी ही चाहिए।

Thursday, 25 October 2018

वो बड़ा कंजूस था साहब


         एक छोटी सी कहानी

एक नगर के बहुत बड़े सेठ का आज देंहात हो गया, उसका एक बेटा था, जो सोचने लगा, कौन आयेंगा मेरे पिताजी की मिट्टी में, जीवन भर तो इन्होनें कोई पुण्य, कोई दान धर्म नही किया बस पैंसे के पीछे भागते रहें, सब लोग कहते है ये तो कंजूसों के भी कंजूस थे, फिर कौन इनकी अंतिम यात्रा में शामिल होगा,,

खैर जैसा तैसा कर, रिश्तेदार, कुछ मित्र मिट्टी में शामिल हुये, पर वहाँ भी वही बात, सब एक दूसरे से कहने लगे बड़ा ही कंजूस शख्स था, कभी किसी की मदद नही की, हर वक्त बस पैंसा, पैंसा, यहाँ तक की घरवालों, रिश्तेदारों, तक को भी पैंसे का एक_एक हिसाब ले लेता था, कभी कालोनी के किसी भी कार्यकम्र में एक रूपयें नही दिया, हर वक्त बस ताने दियें, खुद से कर लिया करो, आज देखों दो चार लोग, बस इनकी मिट्टी पर आये हैं,

बहुत देर मिट्टी रोकने के बाद कंजूस सेठ के बेटे को किसी ने कहा, अब कोई नही आयेंगा, इन्हें कोई पसंद नही करता था, एक नम्बर के कंजूस थे, कौन आयेगा इनकी मिट्टी पर, अब श्मशान ले जाने की तैयारी करो, बेटे ने हामी भर दी, शरीर को लोग उठाने लगें,

पर एकाएक उनकी नजर सामने आती भीड़ पर पड़ी, कोई अंधा, कोई लगड़ा, हजारो की संख्या में महिलाए, बुजर्ग बच्चें, सामने नजर आने लगें, और उस कंजूस सेठ के शरीर के पास आकर फूट_फूट कर रोने लगे, ये कहकर मालिक अब हमारा क्या होगा, आप ही तो हमारे माई_बाप थे, कैसें होगा अब, सारे बच्चों ने उस कंजूस सेठ का पैर पकड़ लिया और बिलख_बिलख कर रोने लगे,,, सेठ के बेटे से रहा नही गया, उसने पूछ बैठा कौन है आप सब और क्यूं रो रहें हैं,

पास ही खड़े कंजूस सेठ के मुनीम ने कहा, ये है तुम्हारे पिता की कमाई, कंजूसीयत, ये लोग देख रहें हो,, कोई अंधा कोई अपहिज, लड़कीयाँ, महिलाए, बच्चें तुम्हारे पिता ने ये कमाया है सारी उम्र,,,
तुम जिसें कंजूस कहते हो ये रिश्तेदार, पड़ोसी मित्र जिसे महाकंजूस कहता हैं,,, इन झुग्गी झोपड़ी वालो से पूछो, की बताएंगे, ये कितने दानी थे,
कितने वृध्दाआश्रम, कितने स्कूल, कितनी लड़कियों की शादी, कितनो को भोजन कितनो को नया जीवन आपके इस कंजूस बाप ने दिया हैं, ये वो भीड़ है जो दिल से आयी हैं,, आपके रिश्तेदार पडोसी जैसे नही, जो रस्म पूरी   करने के लिए आये हैं,

फिर उसके बेटे ने पूछा पिताजी ने मुजे ये सब क्यू नही बताया, क्यूं हमें एक_एक पैंसे के लिए तरसतें रहे, क्यू, कालोनी के किसी भी कार्यकम्र में एक भी मदद नही की
मुनीम ने कहा, तुम्हारे पिताजी चाहते थे, तुम पैंसों की कीमत समझों, अपनी खुद की कमाई से सारा बोझ उठाओ, तभी तुम्हें लगें की हाँ पैसा कहा खर्च करना है और क्यूं,
फिर मुनीम ने कहा, ये कालोनी वाले ये मित्र, ये रिश्तेदार,
कभी स्वीमिंग पूल के लिए, कभी शराब, शबाब के लिए, कभी अपना नाम ऊंचा करने के लिए, कभी मंदिरों में अपना नाम लिखवाने के लिए, चंदा मांगते थे, पूछों इन सब से कभी वो आयें इनके पास की सेठ किसी गरीब, बच्ची की शादी, पढाई, भोजन अंधा की ऑख, अपहिजों की साईकिल, किसी गरीब की छत, इनके लिए कभी नही आये, ये तो आये बस खुद को दूसरो से ऊंचा दिखाने के लिए, मौज मस्ती में पैसा उड़ाने के लिए,,,

आज ये भीड़ है ना वो दिल से रो रही हैं, क्यूकि उन्होने वो इंसान खोया हैं, जो कई बार खुद भूखे रहकर, इन गरीबों को खाना खिलाया है, ना जाने कितनी सारी बेटियों की शादी करवाई, कितने बच्चों का भविष्य बनाया,
पर हाँ तुम्हारे कालोनी वालो की किसी भी फालतू फरमाईश में साथ नही दिया,,,

गर तुम समझते हो ये कंजूस हैं,,, तो सच हैं,,, इन्होने कभी किसी गरीब को छोटा महसूस नही होने दिया, उनकी इज्जत रखी, ये कंजूसीयत ही हैं,,,,
आज हजारों ऑखें रो रही हैं, इन चंद लोगो से तुम समझ रहें हो तुम्हारे पिता कंजूस है तो तुम अभागें हो,,,,

बेटे ने तुरंत अपने पिता के पैर पकड़ लिए,, और पहली बार दिल से रो कर कहने लगा, बाबूजी आप सच में बहुत कंजूस थे, आपने अपने सारे नेक काम कभी किसी से नही बाँटे आप बहुत कंजूस थे।

       किसी महान आदमी ने कहा हैं
       नेकी कर और दरिया में डाल .......

       नेक काम ऐसा होना चाहिए
       की एक हाथ से करें, तो दूसरे को पता ना चलें ......

Friday, 19 October 2018

मौन रहे


1 *मौन रहे*-- *जब तक आप के पास संपूर्ण तथा और प्रमाण न हो*

2 *मौन रहें*-- जब आप को लगता है कि *आप बिना चीखे कुछ बात नहीं बोल सकते*

3 *मौन रहें*-- अगर आप के *शब्दों से,वाणी से त्रुटि पूर्ण भावों का प्रचार प्रसार हो रहा हो*

4 *मौन रहें*-- अगर *आप आक्रोश के आवेग में आ रहे हो*

5 *मौन रहें*-- जब आप को लगता है कि *कोई महत्वपूर्ण दोस्ती आपके बोलने की वज़ह से टूट सकतीं हैं*

6 *मौन रहें*-- जब आप को लगता है कि *किसी व्यक्ति को आपके शब्द चुभेगे*

7 *मौन रहें-- अगर आप को लगे कि *मुझे ऐसा नहीं बोलना चाहिए था*

8 *मौन रहें*-- जब आप को *स्वयं के प्रति आत्म ग्लानि से भरे हुए हो।*

9 *मौन रहें*-- *जब श्रवण का समय हो*

10 *मौन रहें*-- तब जब आपको लगता है कि *निरर्थक शब्दों के उपयोग से रहना ही उचित है*

दृष्टिकोण


  ट्रेन में दो बच्चे यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे, कभी आपस में झगड़ जाते तो कभी किसी सीट पर कूदते। पास ही बैठा पिता किन्हीं विचारों में खोया था।बीच-बीच में जब बच्चे उसकी ओर देखते तो वह एक स्नेहिल मुस्कान बच्चों पर डालता और फिर बच्चे उसी प्रकार अपनी शरारतों में व्यस्त हो जाते और पिता फिर उन्हें निहारने लगता।

   ट्रेन के सहयात्री बच्चों की चंचलता से परेशान हो गए थे और पिता के रवैये से नाराज़। चूँकि रात्रि का समय था अतः सभी आराम करना चाहते थे।बच्चों की भागदौड़ को देखते हुए एक यात्री से रहा न गया और लगभग झल्लाते हुए बच्चों के पिता से बोल उठा-"कैसे पिता हैं आप? बच्चे इतनी शैतानियां कर रहे हैं और आप उन्हें रोकते- टोकते नहीं बल्कि मुस्कुराकर प्रोत्साहन दे रहे हैं।क्या आपका दायित्त्व नहीं कि आप इन्हें समझाएं???

  उन सज्जन की शिकायत से अन्य यात्रियों ने राहत की साँस ली कि अब यह व्यक्ति लज्जित होगा और बच्चों को रोकेगा।परन्तु उस पिता ने कुछ क्षण रुक कर कहा कि-"कैसे समझाऊं बस यही सोच रहा हूं भाईसाहब"।

   यात्री बोला-"मैं कुछ समझ नहीं"
व्यक्ति बोला-"मेरी पत्नी अपने मायके गई थी वहाँ एक दुर्घटना के चलते कल उसकी मौत हो गई। मैं बच्चों को उनके अंतिम दर्शनों के लिए ले जा रहा हूँ।इसी उलझन में हूँ कि कैसे समझाऊं इन्हें कि अब ये अपनी मां को कभी देख नहीं पाएंगे।"

  उसकी यह बात सुनकर जैसे सभी लोगों को साँप सूंघ गया।बोलना तो दूर सोचने तक की सामर्थ्य जाती रही सभी की। बच्चे यथावत शैतानियां कर रहे थे। अभी भी वे कंपार्टमेंट में दौड़ ही लगा रहे थे। वह व्यक्ति फिर मौन हो गया। वातावरण में कोई परिवर्तन न हुआ पर वे बच्चे अब उन यात्रियों को शैतान,अशिष्ट नहीं लग रहे थे बल्कि ऐसे नन्हें कोमल पुष्प लग रहे थे जिन पर सभी अपनी ममता उड़ेलना चाह रहे थे। उनका पिता अब उन लोगों को लापरवाह इंसान नहीं वरन अपने जीवनसाथी के विछोह से दुखी दो बच्चों का अकेला पिता और माता भी दिखाई दे रहा था।

  कहने को तो यह कहानी है सत्य या असत्य। पर एक मूल बात यह अनुभूत हुई कि आखिर क्षण भर में ही इतना परिवर्तन सभी के व्यवहार में आ गया।क्योंकि उनकी दृष्टि में परिवर्तन आ चुका था।

  हम सभी इसलिए उलझनों में हैं क्योंकि हमने अपने धारणाओं रूपी उलझनों का संसार अपने इर्द- गिर्द स्वयं रच लिया है। मैं यह नहीं कहता मित्रों कि परेशानी या तकलीफ नहीं किसी को पर क्या निराशा या नकारात्मक विचारों से हम उन परिस्थितियों को बदल सकते हैं?नहीं।

  आवश्यकता है एक आशा,उत्साह से भरी सकारात्मक सोच की फिर परिवर्तन तत्क्षण आपके भीतर आपको अनुभव होगा।

Tuesday, 16 October 2018

त्याग का रहस्य


एक बार महर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन बन में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ा घनी छाया वाला सेमर का वृक्ष देखा और उसकी छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गये।
नारदजी को उसकी शीतल छाया में आराम करके बड़ा आनन्द हुआ, वे उसके वैभव की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे।

उन्होंने उससे पूछा कि.. “वृक्ष राज तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं?

सेमर के वृक्ष ने हंसते हुए ऋषि के प्रश्न का उत्तर दिया कि- “भगवान्! बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके। वह मुझे किसी प्रकार गिरा नहीं सकता।

नारदजी को लगा कि सेमर का वृक्ष अभिमान के नशे में ऐसे वचन बोल रहा है। उन्हें यह उचित प्रतीत न हुआ और झुँझलाते हुए सुरलोक को चले गये। सुरपुर में जाकर नारदजी ने पवन से कहा.. ‘अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प वचन बोलता हुआ आपकी निन्दा करता है, सो उसका अभिमान दूर करना चाहिए।
पवन को अपनी निन्दा करने वाले पर बहुत क्रोध आया और वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आँधी तूफान की तरह चल दिया।

सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी परोपकारी और ज्ञानी था, उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई। वृक्ष ने अपने बचने का उपाय तुरन्त ही कर लिया। उसने अपने सारे पत्ते झाड़ा डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया। पवन आया उसने बहुत प्रयत्न किया पर ढूँठ का कुछ भी बिगाड़ न सका। अन्ततः उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा।

कुछ दिन पश्चात् नारदजी उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए उसी बन में फिर पहुँचे, पर वहाँ उन्होंने देखा कि वृक्ष ज्यों का त्यों हरा भरा खड़ा है। नारदजी को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ।

उन्होंने सेमर से पूछा- “पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हुए हो, इसका क्या रहस्य है?

वृक्ष ने नारदजी को प्रणाम किया और नम्रता पूर्वक निवेदन किया- “ऋषिराज! मेरे पास इतना वैभव है पर मैं इसके मोह में बँधा हुआ नहीं हूँ। संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हुए हूँ, परन्तु जब जरूरत समझता हूँ इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूँठ बन जाता हूँ। मुझे वैभव का गर्व नहीं था वरन् अपने ठूँठ होने का अभिमान था इसीलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था। आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण मैं पवन की प्रचंड टक्कर सहता हुआ भी यथा पूर्व खड़ा हुआ हूँ।

नारदजी समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे तो वह एक प्रकार का साधु ही है। ऐसे जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।

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Saturday, 13 October 2018

असली शिक्षा


एक बड़ी सी गाड़ी आकर बाजार में रूकी, कार में ही मोबाईल से बातें करते हुयें, महिला ने अपनी बच्ची से कहा, जा उस बुढिया से पूछ सब्जी कैंसे दी, बच्ची कार से उतरतें ही,
अरें बुढिया यें सब्जी कैंसे दी?
40 रूपयें किलों, बेबी जी.....

सब्जी लेते ही, उस बच्ची ने सौ रूपयें का नोट उस सब्जी वाली को फेंक कर दिया, और आकर कार पर बैठ गयी, कार जाने लगी तभी अचानक किसी ने कार के सीसे पर दस्तक दी,

एक छोटी सी बच्ची जो हाथ में 60 रूपयें कार में बैठी उस औरत को देते हुये, बोलती हैं आंटी जी यें आपके सब्जी के बचें 60 रूपयें हैं, आपकी बेटी भूल आयी हैं,
कार में बैठी औरत ने कहा तुम रख लों, उस बच्ची बड़ी ही मिठी और सभ्यता से कहा, नही आंटी जी हमारें जितने पैंसे बनते थें हमने ले लियें हमें, हम इसे नही रख सकतें

मैं आपकी आभारी हूं, आप हमारी दुकान पर आए, आशा करती हूं, की सब्जी आपको अच्छी लगें, जिससे आप हमारें ही दुकान पर हमेशा आए, उस लड़की ने हाथ जोड़े और अपनी दुकान लौट गयी.......

कार में बैठी महिला उस लड़की से बहुत प्रभावित हुई और कार से उतर कर फिर सब्जी की दुकान पर जाने लगी, जैसें ही वहाँ पास गयी, सब्जी वाली अपनी बच्ची को पूछते हुयें, तुमने तमीज से बात की ना, कोई शिकायत का मौका तो नही दिया ना??

बच्ची ने कहा, हाँ माँ मुजे आपकी सिखाई हर बात याद हैं, कभी किसी बड़े का अपमान मत करो, उनसे सभ्यता से बात करो, उनकी कद्र करो, क्यूकि बड़े_बुजर्ग बड़े ही होते हैं, मुजे आपकी सारी बात याद हैं, और मैं सदैव इन बातों का स्मरण रखूगी,

बच्ची ने फिर कहा, अच्छा माँ अब मैं स्कूल चलती हूं, शाम में स्कूल से छुट्टी होते ही, दुकान पर आ जाऊंगी.......

कार वाली महिला शर्म से पानी पानी थी, क्यूकि एक सब्जी वाली अपनी बेटी को, इंसानियत और बड़ों से बात करने शिष्टाचार करने का पाठ सीखा रही थी और वो अपने अपनी बेटी को छोटा_बड़ा ऊंच_नीच का मन में बीज बो रही थी.....!!

"गौर करना दोस्त,
बहुत अच्छा तो वो कहलाता हैं, बहुत अच्छा तो वो कहलाता हैं, जो आसमान पर भी रहता हैं, जमीं पर भी बहता चला जाता हैं"....!

"बस इंसानियत, भाईचारें, सभ्यता, आचरण, वाणी में मिठास, सब की इज्जत करने की सीख दीजिए अपने बच्चों को, क्यूकि अब बस यहीं पढ़ाई हैं जो आने वाले समय में बहुत ही जादा ही मुश्किल होगी, इसे पढ़ने इसे याद रखने इसे ग्रहण करने में, और जीवन को उपयोगी बनाने में..

Friday, 12 October 2018

कुछ कर्ज कभी नही उतारे जा सकते

विवाह के दो वर्ष हुए थे जब सुहानी गर्भवती होने पर अपने घर पंजाब जा रही थी ...पति शहर से बाहर थे ...

जिस रिश्ते के भाई को स्टेशन से ट्रेन मे बिठाने को कहा था वो लेट होती ट्रेन की वजह से रुकने में मूड में नहीं था इसीलिए समान सहित प्लेटफॉर्म पर बनी बेंच पर बिठा कर चला गया ....

गाड़ी को पांचवे प्लेटफार्म पर आना था ...

गर्भवती सुहानी को सातवाँ माह चल रहा था. सामान अधिक होने से एक कुली से बात कर ली....

 बेहद दुबला पतला बुजुर्ग...पेट पालने की विवशता उसकी आँखों में थी ...एक याचना के साथ  सामान उठाने को आतुर ....

 सुहानी ने उसे पंद्रह रुपये में तय कर लिया और टेक लगा कर बैठ गई.... तकरीबन डेढ़ घंटे बाद गाडी आने की घोषणा हुई ...लेकिन वो बुजुर्ग कुली कहीं नहीं दिखा ...

कोई दूसरा कुली भी खाली नज़र नही आ रहा था.....ट्रेन छूटने पर वापस घर जाना भी संभव नही था ...

रात के साढ़े बारह बज चुके थे ..सुहानी का मन घबराने लगा ...

तभी वो बुजुर्ग दूर से भाग कर आता हुआ दिखाई दिया .... बोला चिंता न करो बिटिया हम चढ़ा देंगे गाडी में ...भागने से उसकी साँस फूल रही थी ..उसने लपक कर सामान उठाया ...और आने का इशारा किया

सीढ़ी चढ़ कर पुल से पार जाना था कयोकि अचानक ट्रेन ने प्लेटफार्म चेंज करा था जो अब नौ नम्बर पर आ रही थी

वो साँस फूलने से धीरे धीरे चल रहा था और सुहानी भी तेज चलने हालत में न थी
 गाडी ने सीटी दे दी
भाग कर अपना स्लीपर कोच का डब्बा ढूंढा ....

डिब्बा प्लेटफार्म खत्म होने के बाद इंजिन के पास था। वहां प्लेटफार्म की लाईट भी नहीं थी और वहां से चढ़ना भी बहुत मुश्किल था ....

सुहानी पलटकर उसे आते हुए देख ट्रेन मे चढ़ गई...तुरंत ट्रेन रेंगने लगी ...कुली अभी दौड़ ही रहा था ...

हिम्मत करके उसने एक एक सामान रेलगाड़ी के पायदान के पास रख दिया ।

अब आगे बिलकुल अन्धेरा था ..

जब तक सुहानी ने हडबडाये कांपते हाथों से दस का और पांच का का नोट निकाला ...
तब तक कुली की हथेली दूर हो चुकी थी...

उसकी दौड़ने की रफ़्तार तेज हुई ..
मगर साथ ही ट्रेन की रफ़्तार भी ....

वो बेबसी से उसकी दूर होती खाली हथेली देखती रही ...

और फिर उसका हाथ जोड़ना नमस्ते
और आशीर्वाद की मुद्रा में ....
उसकी गरीबी ...
उसका पेट ....
उसकी मेहनत ...
उसका सहयोग ...
सब एक साथ सुहानी की आँखों में कौंध गए ..

उस घटना के बाद सुहानी डिलीवरी के बाद दुबारा स्टेशन पर उस बुजुर्ग कुली को खोजती रही मगर वो कभी दुबारा नही मिला ...

आज वो जगह जगह दान आदि करती है मगर आज तक कोई भी दान वो कर्जा नहीं उतार पाया उस रात उस बुजुर्ग की कर्मठ हथेली ने किया था ...

सच है कुछ कर्ज कभी नही उतारे जा सकते......

गया में पिंडदान

गया में पिंडदान
बिहार की राजधानी पटना से करीब 104 किलोमीटर की दूरी पर बसा है गया । धार्मिक दृष्टि से गया , हिन्दूओं के लिए आदरणीय है। हिन्दू , गया को मुक्तिक्षेत्र और मोक्ष प्राप्ति का स्थान मानते हैं।इसलिए हर दिन देश के अलग-अलग भागों से नहीं बल्कि विदेशों में भी बसने वाले हिन्दू आकर गया में आकर अपने परिवार के मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना से श्राद्ध , तर्पण और पिण्डदान करते दिख जाते हैं।

गया में हर व्यक्ति क्यों चाहता है पिंडदान करना ? गया तीर्थ के बारे में गरूड़ पुराण में कहा गया है कि गया श्राद्ध करने मात्र से पितर यानी परिवार में जिनकी मृत्यु हो चुकी है वह संसार सागर से मुक्त होकर भगवान विष्णु की कृपा से उत्तम लोक में
जाते हैं। वायु पुराण में बताया गया है कि मीन , मेष , कन्या एवं कुंभ राशि में जब सूर्य होता है उस समय गया में पिण्ड दान करना बहुत ही उत्तम फलदायी होता है। इसी तरह मकर संक्रांति और ग्रहण के समय जो श्राद्ध और पिण्डदान किया जाता है वह श्राद्ध करने वाले और मृत व्यक्ति दोनों के लिए ही कल्याणी और उत्तम लोकों में स्थान दिलाने वाला होता है।गया तीर्थ के बारे में गरूड़ पुराण यह भी कहता है कि यहाँ पिण्डदान करने मात्र से व्यक्ति की सात पीढ़ी और एक सौ कुल का उद्धार हो जाता है। *गया तीर्थ के महत्व को भगवान राम ने भी स्वीकार किया है।**गया , में देवी सीता का शाप है ( जब सीता ने किया पिण्डदान )*वाल्मिकी रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। वनवास के दौरान भगवान राम लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुँचे। वहाँ श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी। गया जी के आगे फल्गू नदी पर अकेली सीताजी असमंजस में पड गई। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष , केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे
दिया।थोडी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया। बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है , इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण मांगा । तब सीता जी ने कहा कि यह फल्गू नदी की रेत , केतकी के फूल , गाय और वटवृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं । इतने में फल्गू नदी , गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही। तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की।दशरथ जी ने सीताजी की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि ऐन वक्त पर सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया। इस पर राम आश्वस्त हुए लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीता जी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी - जा तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी , तुझमें पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी। और केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढ़ाया जाएगा। वटवृक्ष को सीता जी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी। यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है , केतकी के फूल को पूजा पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता है.                         

Monday, 8 October 2018

एक दिन बहू ने गलती से यज्ञवेदी में थूक दिया

एक दिन बहू ने गलती से यज्ञवेदी में थूक दिया!!!

सफाई कर रही थी. मुंह में सुपारी थी. पीक आया तो वेदी में. पर उसे आश्चर्य हुआ कि उतना थूक स्वर्ण में बदल गया है.

अब तो वह प्रतिदिन जान बूझकर वेदी में थूकने लगी. और उसके पास धीरे धीरे स्वर्ण बढ़ने लगा.
महिलाओं में बात तेजी से फैलती है. कई और महिलाएं भी अपने अपने घर में बनी यज्ञवेदी में थूक थूक कर सोना उत्पादन करने लगी.

धीरे धीरे पूरे गांव में यह सामान्य चलन हो गया.
सिवाय एक महिला के.. !

उस महिला को भी अनेक दूसरी महिलाओं ने उकसाया..!समझाया..!
“अरी. तू क्यों नहीँ थूकती?”
“जी. ! बात यह है कि मै अपने पति की अनुमति बिना यह कार्य हरगिज नहीँ करूंगी. और वे. जहाँ तक मुझे ज्ञात है.. अनुमति नहीँ देंगे!”

किन्तु ग्रामीण महिलाओं ने ऐसा वातावरण बनाया.. कि आखिर उसने एक रात डरते डरते अपने ‎पति‬ को पूछ ही लिया.
“खबरदार जो ऐसा किया तो.. !! यज्ञवेदी क्या थूकने की चीज है??”

पति की गरजदार चेतावनी के आगे बेबस.. वह महिला चुप हो गई. पर जैसा वातावरण था. और जो चर्चाएं होती थी, उनसे वह साध्वी स्त्री बहुत व्यथित रहने लगी.

खास कर उसके सूने गले को लक्ष्य कर अन्य स्त्रियां अपने नए नए कण्ठ-हार दिखाती तो वह अन्तर्द्वन्द में घुलने लगी.

पति की व्यस्तता और स्त्रियों के उलाहने उसे धर्मसंकट में डाल देते.
“यह शायद मेरा दुर्भाग्य है.. अथवा कोई पूर्वजन्म का पाप.. कि एक सती स्त्री होते हुए भी मुझे एक रत्ती सोने के लिए भी तरसना पड़ता है.”

“शायद यह मेरे पति का कोई गलत निर्णय है.”
“ओह. इस धर्माचरण ने मुझे दिया ही क्या है?”
“जिस नियम के पालन से ‎दिल‬ कष्ट पाता रहे. उसका पालन क्यों करूँ?”

और हुआ यह कि वह बीमार रहने लगी. ‎पतिदेव‬ इस रोग को ताड़ गए. उन्होंने एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही सपरिवार ग्राम त्यागने का निश्चय किया.

गाड़ी में सारा सामान डालकर वे रवाना हो गए. सूर्योदय से पहले पहले ही वे बहुत दूर निकल जाना चाहते थे.

किन्तु..
अरे.. यह क्या..?????
ज्यों ही वे गांव की कांकड़(सीमा) से बाहर निकले.

पीछे भयानक विस्फोट हुआ.
पूरा गांव धू धू कर जल रहा था.
सज्जन दम्पत्ति अवाक् रह गए.
और उस स्त्री को अपने पति का महत्त्व समझ आ गया.

वास्तव में.. इतने दिन गांव बचा रहा. तो केवल इस कारण..उसका परिवार गांव की परिधि में था।

धर्माचरण करते रहे... कुछ पाने के लालच में इंसान बहुत कुछ खो बैठता है... इसलिए लालच से बचें..

त्रिदेवो की परीक्षा


शिव का क्रोध

महर्षि भृगु ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम ख्याति था जो दक्ष की पुत्री थी। महर्षि भृगु सप्तर्षिमंडल के एक ऋषि हैं। सावन और भाद्रपद में वे भगवान सूर्य के रथ पर सवार रहते हैं।

एक बार की बात है, सरस्वती नदी के तट पर ऋषि-मुनि एकत्रित होकर इस विषय पर चर्चा कर रहे थे कि ब्रह्माजी, शिवजी और श्रीविष्णु में सबसे बड़े और श्रेष्ठ कौन है? इसका कोई निष्कर्ष न निकलता देख उन्होंने त्रिदेवों की परीक्षा लेने का निश्चय किया और ब्रह्माजी के मानस पुत्र महर्षि भृगु को इस कार्य के लिए नियुक्त किया।

महर्षि भृगु सर्वप्रथम ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने न तो प्रणाम किया और न ही उनकी स्तुति की। यह देख ब्रह्माजी क्रोधित हो गए। क्रोध की अधिकता से उनका मुख लाल हो गया। आँखों में अंगारे दहकने लगे। लेकिन फिर यह सोचकर कि ये उनके पुत्र हैं, उन्होंने हृदय में उठे क्रोध के आवेग को विवेक-बुद्धि में दबा लिया।

वहाँ से महर्षि भृगु कैलाश गए। देवाधिदेव भगवान महादेव ने देखा कि भृगु आ रहे हैं तो वे प्रसन्न होकर अपने आसन से उठे और उनका आलिंगन करने के लिए भुजाएँ फैला दीं। किंतु उनकी परीक्षा लेने के लिए भृगु मुनि उनका आलिंगन अस्वीकार करते हुए बोले-“महादेव! आप सदा वेदों और धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। दुष्टों और पापियों को आप जो वरदान देते हैं, उनसे सृष्टि पर भयंकर संकट आ जाता है। इसलिए मैं आपका आलिंगन कदापि नहीं करूँगा।”

उनकी बात सुनकर भगवान शिव क्रोध से तिलमिला उठे। उन्होंने जैसे ही त्रिशूल उठा कर उन्हें मारना चाहा, वैसे ही भगवती सती ने बहुत अनुनय-विनय कर किसी प्रकार से उनका क्रोध शांत किया। इसके बाद भृगु मुनि वैकुण्ठ लोक गए। उस समय भगवान श्रीविष्णु देवी लक्ष्मी की गोद में सिर रखकर लेटे थे।

भृगु ने जाते ही उनके वक्ष पर एक तेज लात मारी। भक्त-वत्सल भगवान विष्णु शीघ्र ही अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम करके उनके चरण सहलाते हुए बोले-“भगवन! आपके पैर पर चोट तो नहीं लगी? कृपया इस आसन पर विश्राम कीजिए। भगवन! मुझे आपके शुभ आगमन का ज्ञान न था। इसलिए मैं आपका स्वागत नहीं कर सका। आपके चरणों का स्पर्श तीर्थों को पवित्र करने वाला है। आपके चरणों के स्पर्श से आज मैं धन्य हो गया।”

भगवान विष्णु का यह प्रेम-व्यवहार देखकर महर्षि भृगु की आँखों से आँसू बहने लगे। उसके बाद वे ऋषि-मुनियों के पास लौट आए और ब्रह्माजी, शिवजी और श्रीविष्णु के यहाँ के सभी अनुभव विस्तार से कह बताया। उनके अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनि बड़े हैरान हुए और उनके सभी संदेह दूर हो गए। तभी से वे भगवान विष्णु को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा-अर्चना करने लगे।

वास्तव में उन ऋषि-मुनियों ने अपने लिए नहीं, बल्कि मनुष्यों के संदेहों को मिटाने के लिए ही ऐसी लीला रची थी।

Sunday, 7 October 2018

चिड़िया का ज्ञान


राजा भानुप्रताप के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी, जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी, वहां रोज एक चिड़िया आती, मीठे अंगूर चुनकर खा जाती और अधपके व खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती, माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आयी, हताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताई, यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ, उसने सोचा इस चिड़िया को वह खुद पकड़ेगा और उसे सबक सिखाएगा, अगले दिन राजा वाटिका में छिपकर बैठ गया, जब चिड़िया आयी तो राजा ने उसे पकड़ लिया, वह चिड़िया की गर्दन मरोड़ने ही वाला था कि चिड़िया बोली-राजन, मैं आपको ज्ञान की चार महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी, राजा ने कहा जल्दी बता, चिड़िया बोली- *पहली बात ये की हाथ में आये शत्रु को कभी मत छोड़ो*, राजा ने कहा-दूसरी बात....? चिड़िया ने कहा- *किसी असम्भव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो,* तीसरी बात यह कि *बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो,* राजा ने कहा- अब चौथी बात भी जल्दी बतादो, इसपर चिड़िया बोली, चौथी बात बड़ी रहस्यमयी है, मेरी गर्दन थोड़ी ढ़ीली करें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है, कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी, चिड़िया की बात सुन राजा ने जैसे ही अपना हाथ ढीला किया, चिड़िया उड़कर एक डाल पर बैठ गई, राजा भौंचक्का सा उसे देख रहा था, चिड़िया बोली- हे राजन, *चौथी बात यह है कि ज्ञान की बात सुनने से कुछ लाभ नहीं होता उसपर अमल करने से होता है,* अगर आप मेरी पहली बात पर अमल किए होते तो आज मै आपके गिरफ्त मे होती। मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी मुझे पकड़ने के बाद आप मेरी अच्छी-अच्छी बातों के बहकावे में आ गए और मुझे ढीला छोड दिया, अब तो आप अपनी गलती पर बस पछता सकते हैं, इतना कहकर चिड़िया उड़ गई और राजा ठगे से खड़े रह गए।

Monday, 1 October 2018

इच्छाशक्ति


हिरण के दौड़ ने की गति लगभग 85 किमी प्रति घंटा की होती है जबकि शेर कि गति ज्यादा से ज्यादा 60 किमी प्रति घंटा है। गति में इतने अंतर होने के बावजूद भी अधिकतम अवसरों पर हिरण शेर का शिकार बन जाता है। जानते हैं क्यों?

क्योंकि जब भी शेर को देखकर जान बचाने के लिए हिरण भागता है तो उसे ये पक्का विश्वास हो जाता है कि शेर उसे अब हरगिज नहीं छोड़ेगा वह शेर के सामने कमजोर और असहाय है और उससे बच कर नहीं निकल सकता।

छुटकारा न पा सकने का ये डर उसे हर पल पीछे मुड़कर ये देखने के लिए विवश कर देता है कि अब उसके और शेर के बीच कितनी दूरी बची है। और डर की स्थिति में यही सोच हिरण की गति को प्रभावित करती है और इसी बीच में शेर नजदीक आकर उसे दबोचकर अपना निवाला बना लेता है।

अगर हिरण पीछे मुड़कर देखने की अपनी इस आदत पर काबू पा ले तो कभी भी शेर का शिकार नहीं बन पाएगा। और अगर हिरण को अपनी क्षमता पर विश्वास हो जाए कि उसकी शक्ति उसकी तेज़ गति में छुपी हुई है बिल्कुल ऐसे ही जैसे शेर की शक्ति उसकी पाचन और आत्मविश्वास में छुपी हुई है तो वह हमेशा शेर से बच जाएगा।

बस कुछ ऐसी ही हम इंसानों प्रकृति बन जाती है कि हम हर पल पीछे मुड़ मुड़कर अपने भूतकाल को तकते और कुरेदते रहते हैं। जो कुछ और नहीं बल्कि हमें डंसता रहता है, हमारी हिम्मतों को कमजोर करता रहता है और हमारे व्यवहार को नीरस बनाता रहता है। और कितने ही ऐसे पीछा करते हमारे वहम और डर हैं जो हमें नाकामियों का निवाला बनाते रहते हैं।

और कितनी ही हमारी ऐसी आंतरिक निराशाएं हैं जो हमसे जिंदा रहने का हौसला तक छीनती रहती हैं। हम कहीं खत्म न हो जाएं की सोच की वजह से अपने लक्ष्य को प्राप्त के योग्य नहीं बनते और न ही अपनी क्षमताओं पर कभी विश्वास कर पाते हैं।

प्रसन्नता का कारण



देवदास बड़ा हैरान था कि गुरु शृणोति, प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न कैसे रह लेते हैं। उसका अध्ययन करने के लिये वह कई दिन तक निरन्तर शृणोति के साथ बना रहा।

मध्याह्न का भोजन कर चुकने के पश्चात् मुनि शृणोति ने अपनी धर्मपत्नी शोभा से कहा- "घर में गुड़ हो तो एक डली देना। गुड़ में छार होता है उससे पेट साफ हो जाता है।"

शोभा ने इधर-उधर ढूँढ़ा, घर में गुड़ था नहीं सो लौटकर बताया- "गुड़ रहा नहीं, कहें तो मँगा दूँ।"
शृणोति ने मुस्कराते हुए कहा- "नहीं, नहीं, प्रिये! उसकी आवश्यकता नहीं। गुड़ तो गरम करता हैं?"

देवदास ने पूछा- "महात्मन् पहले तो आपने उसी गुड़ को उपयोगी ठहराया बाद में हानिकारक! आप भी दोहरी बातें करते हैं।”

शृणोति ने कहा- "वत्स यह विनोदप्रियता ही सदैव प्रसन्नता का रहस्य है और संसार में कुछ है नहीं। यहाँ न कुछ उपयोगी है न अनुपयोगी, मान्यताओं के अनुपम वस्तुओं की उपयोगिता-अनुपयोगिता बदलती रहती है।"

'अखण्ड ज्योति,जुलाई