Sunday, 28 April 2019

ख्वाहिश नहीं मुझे मशहूर होने की

मुन्सी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता

ख्वाहिश नहीं मुझे
मशहूर होने की,

        आप मुझे पहचानते हो
        बस इतना ही काफी है.


अच्छे ने अच्छा और
बुरे ने बुरा जाना मुझे,

        क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी
        उसने उतना ही पहचाना मुझे.


जिन्दगी का फलसफा भी
कितना अजीब है,

        शामें कटती नहीं और
        साल गुजरते चले जा रहें है.


एक अजीब सी
दौड है ये जिन्दगी,

        जीत जाओ तो कई
        अपने
अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं.


बैठ जाता हूँ
मिट्टी पे अकसर,

        क्योंकि मुझे अपनी
        औकात अच्छी लगती है.

मैंने समंदर से
सीखा है जीने का सलीका,

        चुपचाप से बहना और
        अपनी मौज मे रेहना.


ऐसा नहीं की मुझमें
कोई ऐब नहीं है,

        पर सच कहता हूँ
        मुझमें कोई फरेब नहीं है.


जल जाते है मेरे अंदाज से
मेरे दुश्मन,

              क्यों की एक मुद्दत से मैंने,
.... न मोहब्बत बदली
      और न दोस्त बदले हैं.


एक घडी खरीदकर
हाथ मे क्या बांध ली

        वक्त पीछे ही
        पड गया मेरे.

सोचा था घर बना कर
बैठुंगा सुकून से,

        पर घर की जरूरतों ने
        मुसाफिर बना डाला मुझे.


सुकून की बात मत कर
ऐ गालिब,

        बचपन वाला इतवार
        अब नहीं आता.


जीवन की भाग दौड मे
क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?

        हँसती-खेलती जिन्दगी भी
        आम हो जाती है.


एक सवेरा था
जब हँसकर उठते थे हम,

        और आज कई बार बिना मुस्कुराये
        ही शाम हो जाती है.


कितने दूर निकल गए
रिश्तों को निभाते निभाते,

        खुद को खो दिया हम ने
        अपनों को पाते पाते.


लोग केहते है
हम मुस्कुराते बहुत है,

        और हम थक गए
        दर्द छुपाते छुपाते.


खुश हूँ और सबको
खुश रखता हूँ,

        लापरवाह हूँ फिर भी
        सब की परवाह करता हूँ.



मालूम है
कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी

        कुछ अनमोल लोगों से
        रिश्ता रखता हूँ।

Friday, 19 April 2019

भगवान श्री राम और श्री हनुमान जी का संवाद


बहुत सुन्दर और ज्ञान वर्धक प्रसंग...

पहली बात: हनुमान जी जब संजीवनी बूटी का पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है:- ''प्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था, बल्कि मेरा भ्रम दूर करने के लिए भेजा था, और आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मैं ही आपका राम नाम का जप करने वाला सबसे बड़ा भक्त हूँ''।

भगवान बोले:- वो कैसे ...?

हनुमान जी बोले:- वास्तव में मुझसे भी बड़े भक्त तो भरत जी है, मैं जब संजीवनी लेकर लौट रहा था तब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मैं गिरा, तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया।
कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, उन्होंने कहा कि यदि मन, वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो, यदि रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित होकर स्वस्थ हो जाए।
उनके इतना कहते ही मैं उठ बैठा।
सच कितना भरोसा है भरत जी को आपके नाम पर।

शिक्षा :-
हम भगवान का नाम तो लेते है पर भरोसा नही करते, भरोसा करते भी है तो अपने पुत्रो एवं धन पर, कि बुढ़ापे में बेटा ही सेवा करेगा, धन ही साथ देगा।
उस समय हम भूल जाते है कि जिस भगवान का नाम हम जप रहे है वे है, पर हम भरोसा नहीं करते।
बेटा सेवा करे न करे पर भरोसा हम उसी पर करते है।

दूसरी बात प्रभु...!

बाण लगते ही मैं गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप उठाये हुए थे और मैं अभिमान कर रहा था कि मैं उठाये हुए हूँ।
मेरा दूसरा अभिमान भी टूट गया।

शिक्षा :-
हमारी भी यही सोच है कि, अपनी गृहस्थी का बोझ को हम ही उठाये हुए है।
जबकि सत्य यह है कि हमारे नहीं रहने पर भी हमारा परिवार चलता ही है।

जीवन के प्रति जिस व्यक्ति कि कम से कम शिकायतें है, वही इस जगत में अधिक से अधिक सुखी है।
 जय श्री सीताराम जय श्री बालाजी



⛳जय श्री राम⛳

Thursday, 18 April 2019

आत्मसुधार का प्रयास


          चाहे गलती स्वयं की हो मगर दूसरों को दोष देना, यही आज के इस आदमी की फितरत बन गयी है। आदमी गिरता है तो पत्थर को दोष देता है, डूबता है तो पानी को दोष देता है और कुछ नहीं कर पाता तो क़िस्मत को दोष देता है।
         दूसरों को दोष देने का अर्थ ही मात्र इतना सा है कि स्वयं की गलती को स्वीकार करने का सामर्थ्य न रख पाना और अपने में सुधार की सारी संभावनाओं को स्वयं अपने हाथों से कुचल देना।
         खुद के जीवन में दोष होने से भी ज्यादा घातक है, दूसरों को दोष देना क्योंकि इसमें समय का अपव्यय व आत्मप्रवंचना दोनों होते हैं। अतः आत्मसुधार का प्रयास करो, जहाँ आत्म सुधार की प्रवत्ति है, वहीँ परमात्मा से मिलन भी है।

         

Wednesday, 17 April 2019

ज़िन्दगी अवसरों से भरी हुई है


एक नौजवान आदमी एक किसान की बेटी से शादी की इच्छा लेकर किसान के पास गया ।

किसान ने उसकी ओर देखा और कहा,
तुम मेरे खेत में जाओ,
मैं एक एक करके तीन बैल
छोड़ने वाला हूँ ।
अगर तुम तीनों बैलों में से किसी भी एक बैल की पूँछ पकड़ लो तो मैं अपनी बेटी की शादी तुमसे कर दूंगा ।

नौजवान खेत में बैल की पूँछ पकड़ने के लिए खडा हो गया ।

किसान ने खेत में स्थित घर का दरवाजा खोला,
और एक बहुत ही बड़ा और खतरनाक बैल उसमे से निकला,
नौजवान ने ऐसा बैल पहले कभी नहीं देखा था,
उससे डर कर नौजवान ने निर्णय लिया कि वह अगले बैल का इंतज़ार करेगा,
और वह एक तरफ हो गया जिससे बैल उसके पास से होकर निकल गया ।

दरवाजा फिर खुला,
आश्चर्यजनक रूप से इस बार पहले से भी बड़ा और भयंकर बैल निकला,
नौजवान ने सोचा कि इससे तो पहला वाला बैल ठीक था फिर उसने एक ओर होकर बैल को निकल जाने दिया ।

दरवाजा तीसरी बार खुला,
नौजवान के चहरे पर मुस्कान आ गई,
इस बार एक छोटा और मरियल बैल निकला,
जैसे ही बैल नौजवान के पास आने लगा, नौजवान ने उसकी पूँछ पकड़ने के लिए मुद्रा बना ली ताकि उसकी पूँछ सही समय पर पकड़ ले पर उस बैल की पूँछ थी ही नहीं ।

कहानी से सीख
ज़िन्दगी अवसरों से भरी हुई है,
कुछ सरल हैं और कुछ कठिन ।

पर अगर एक बार अवसर गवां दिया तो फिर वह मौका दुबारा नहीं मिलेगा ।

अतः हमे हमेशा प्रथम अवसर को ही हासिल करने का प्रयास करना चाहिए ।।

Tuesday, 16 April 2019

आत्मीय एहसास

रामायण कथा का एक अंश

जिससे हमे सीख मिलती है "एहसास" की...

    


*श्री राम, लक्ष्मण एवम् सीता' मैया* चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे,

राह बहुत *पथरीली और कंटीली* थी !

की यकायक *श्री राम* के चरणों मे *कांटा* चुभ गया !


श्रीराम *रूष्ट या क्रोधित* नहीं हुए, बल्कि हाथ जोड़कर धरती माता से *अनुरोध* करने लगे !

बोले- "माँ, मेरी एक *विनम्र प्रार्थना* है आपसे, क्या आप *स्वीकार* करेंगी ?"


*धरती* बोली- "प्रभु प्रार्थना नहीं, आज्ञा दीजिए !"


प्रभु बोले, "माँ, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज मे इस पथ से गुज़रे, तो आप *नरम* हो जाना !

कुछ पल के लिए अपने आँचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना !

मुझे कांटा चुभा सो चुभा, पर मेरे भरत के पाँव मे *आघात* मत करना"


श्री राम को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई !

पूछा- "भगवन, धृष्टता क्षमा हो ! पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है ?

जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गए, तो क्या कुमार भरत सहन नही कर पाँएगें ?

फिर उनको लेकर आपके चित मे ऐसी *व्याकुलता* क्यों ?"


*श्री राम* बोले- "नही...नही माते, आप मेरे कहने का अभिप्राय नही समझीं ! भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पाँव को नही, उसके *हृदय* को विदीर्ण कर देगा !"


*"हृदय विदीर्ण* !! ऐसा क्यों प्रभु ?",

*धरती माँ* जिज्ञासा भरे स्वर में बोलीं !


"अपनी पीड़ा से नहीं माँ, बल्कि यह सोचकर कि...इसी *कंटीली राह* से मेरे भैया राम गुज़रे होंगे और ये *शूल* उनके पगों मे भी चुभे होंगे !

मैया, मेरा भरत कल्पना मे भी मेरी *पीड़ा* सहन नहीं कर सकता, इसलिए उसकी उपस्थिति मे आप *कमल पंखुड़ियों सी कोमल* बन जाना..!!"


अर्थात 

*रिश्ते* अंदरूनी एहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं ।

जहाँ *गहरी आत्मीयता* नही, वो रिश्ता शायद नही परंतु *दिखावा* हो सकता है ।


इसीलिए कहा गया है कि...

*रिश्ते*खून से नहीं, *परिवार* से नही,

*मित्रता* से नही, *व्यवहार* से नही,

बल्कि...

सिर्फ और सिर्फ आत्मीय एहसास से ही बनते और निर्वहन किए जाते हैं।

जहाँ एहसास ही नहीं, 

आत्मीयता ही नहीं ..

वहाँ अपनापन कहाँ से आएगा l

          

हम सबके लिए प्रेरणास्पद लघुकथा