वैदिक काल की बात है। कान्तिपुर में चोल नामक चक्रवर्ती नरेश राज्य करते थे। उनके राज्य में कोई रोगी और दुःखी नहीं था। राजा निरन्तर दान-पुण्य तथा यज्ञ किया करते थे। सर्वगुण होते हुए भी उनके मन अभिमान आ गया। वे समझने लगे कि मैं दान-पूजन करके भगवान को जितना प्रसन्न कर सकता हूँ, उतना दूसरा कोई नहीं कर सकता। वे इस गर्वानुभूति में भूल गये कि भगवान धन के नहीं भाव के भूखे होते हैं।
उनके नगर में विष्णुदास नामक एक गरीब ब्राह्मण का भी निवास था। उनका विश्वास था कि श्रद्वा-भक्ति से समर्पित फूल-पत्ते आदि को भी भगवान बड़े चाव से ग्रहण करते हैं।
समुद्र तट पर एक मन्दिर था जिसमें राजा चोल और ब्राह्मण विष्णुदास प्रतिदिन पूजा करने जाया करते थे। एक दिन राजा चोल भगवान की पूजा कर मन्दिर में बैठे थे। उसी समय भक्त विष्णुदास जल का लौटा तथा तुलसी पुष्पों से भरी छोटी-सी डलिया लिए वहां पहुंचे। विष्णुदास भक्तिभाव में थे और सीधे भगवान के पास जाकर पूर्जा अर्चना करने लगे। उन्होंने भगवान को भक्तिपूर्वक स्नान कराया। स्नान के जल से राजा के द्वारा चढ़ाये हुए सारे बहुमूल्य वस्त्राभूषण भीग गये। वह सब देखकर राजा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने अपना आपा खोते हुए बोला-‘ कंगले ब्राह्मण! तुझमें तो तनिक भी बुद्धि नहीं है। मैंने भगवान की कितना सुन्दर श्रृंगार किया था। तुमने सब बिगाड दिया? फूल-पत्तों से भी कोई पूजा-भक्ति होती है। भगवान को इस तरह प्रसन्न नहीं किया जाता।’
ब्राह्मण ने विनय पूर्वक कहा-‘राजन्! मेरी नज़र आपकी पूजा-सामग्री पर गयी ही नहीं। मेरी समझ में भगवान की पूजा स्वर्ण-पुष्प और आभूषणों से ही होती हो, ऐसी बात नहीं हैं। भगवान को प्रसन्न करने के लिए भाव की आवश्यता होती है, न कि धन-दौलत की। भगवान यदि धन से ही प्रसन्न होते तो हम गरीब लोग कैसे पूजा कर सकते। अतः आप धन का गर्व छोड़ दें। दूसरे लोग अपनी स्थिति के अनुसार पूजा करे, इसमें आपको भी प्रसन्न होना चाहिए।
राजा ने ब्राह्मण का पुनः तिरस्कार करते हुए कहा-‘तेरे फूल-पत्तों से भगवान प्रसन्न होते हैं या मेरी धन-सम्पत्ति के अर्पण से? अब देखूंगा कि हम दोनों में किस को पहले भगवान के दर्शन होते हैं। मैं भी भगवान को प्रसन्न करने का प्रयास करता हूँ, तू भी कर।’ ब्राह्मण ने राजा की बात मान ली।
राजा ने महल मे जाकर मुद्गल मुनि को बुलाया और उनके आचार्यत्व में एक बहुत बड़े विष्णुयज्ञ का आरम्भ कर दिया।
गरीब ब्राह्मण ने भी नियमों का पालन करते हुए भक्तिपूर्वक भगवान का पूजन करना आरम्भ कर दिया। इसी के साथ उन्होंने खाते-पीते, सोते-जागते प्रेमपूर्वक स्मरण करते हुए भगवान के दर्शन का अभ्यास किया। इसी तरह भक्ति भाव में काफी समय बीत गया।
विष्णुदास प्रातःकाल एक रोटी बनाकर रख देते और दिन में एक बार खा लेते। वे दिन-रात साधना में लगे रहते। रोज की भांति एक दिन रोटी बना कर रखी, जब खाने का समय हुआ तो पाया कि यह रोटी वहाँ थी ही नहीं। बेचारे ब्राह्मण भूखे तो थे, पर दुबारा रोटी बनाने में साधना का समय व्यय करना अनुचित समझ कर वे भूखे रह गये। दूसरे दिन रोटी बनाकर रखी और जब पूजा-अर्चना के बाद वापिस आये तो देखा कि रोटी नहीं है। इस प्रकार रोटियों के चोरी होते सात दिन बीत गये। ब्राह्मण का भूख से बुरा हाल था। आठवें दिन मन में विचार आया कि देखते हैं कि रोटी कौन चुराता है। वे रोटी बनाकर एक तरफ छिपकर खड़े हो गये।
एक चण्डाल दबे पांव आता है जो भूख से व्याकुल लग रहा था। शरीर मात्र हड्डियों का ढांचा था। उसमें दीनता छायी हुई। सर्वरूप में भगवान को देखने वाले विष्णुदास के मन में दया उमड़ पड़ी।
उन्होंने चण्डाल को आवाज लगायी। ‘ठहरो-ठहरो, रूखा अन्न कैसे खाओगे? मैं घी देता हूँ, इसके साथ रोटी लगाकर खाओ।’
चण्डाल आकस्मक ब्राह्मण को देखकर डर गया। वह रोटी लेकर वहां से भागा। विष्णुदास घी का पात्र लिए उसके पीछ-पीछे दौड़े। कुछ दूर जाने पर अत्यन्त कमजोर चण्डाल मूर्छित हो कर गिर पड़ा। ब्राह्मण विष्णुदास निकट आये और उस पर कपड़े से हवा करने लगे।
वह चण्डाल कोई नहीं स्वंय साक्षात भगवान विष्णु थे, वे साक्षात् प्रकट हो गये। विष्णुदास आनन्द में बेसुध होकर उस मनोहर छवि को एकटक होकर देखते रहे। भगवान विष्णु ने भक्त को प्रेम में आलिंगन कर अपने साथ विमान में बैठाया।
विमान आकाशपथ से चोल राजा के यज्ञस्थल के ऊपर से निकला। चोलराजा ने देखा कि दरिद्र ब्राह्मण केवल भावपूर्ण भक्ति के प्रताप से उनके यज्ञ की पूर्णाहुति के पहले ही भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन करके उनके साथ वैकुण्ठ जा रहा है। चोलराजा का धन-दान का सारा अभिमान चूर-चूर हो गया।
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