Sunday, 20 January 2019

परोपकार हमेशा आपके लिए अच्छा फल लेकर के आती है।

आज हम आपको एक बेहद ही दिलचस्प कहानी बताने जा रहे हैं। दरअसल कुछ बरस पहले एक गांव में कुछ लोग एक सांप को मार रहे थे और उनका इरादा सांप को मौत के घाट उतार देने का लग रहा था। लेकिन तभी वहां एक संत आ गए और उन्होंने गांव वालों से कहा कि इस सांप को छोड़ दो और इसको जाने दो।

गांव वालों ने संत को बोला कि अगर हम इसे छोड़ देंगे तो ये हमें काट लेगा। फिर संत ने कहा कि अगर आप लोग इसे मारेंगे नहीं और परेशान नहीं करेंगे तो ये आपको बिना वजह नहीं काटेगा। गांव वालों ने संत की बात मान ली और उस सांप को छोड़ दिया और अपने-अपने घर चले गए। संत भी अपने आश्रम आ गए।

फिर अगले दिन सुबह-सुबह संत नदी पर स्नान के लिए जा रहे थे। चूंकि उस वक्त ब्रह्म मुहूर्त था इसलिए उस समय अंधेरा था। तभी संत की नज़र एक सांप पर पड़ी। संत ने बहुत कोशिश की उस सांप को भगाने की लेकिन सांप वहां से हिला नहीं।

फिर संत ने अपना रास्ता बदल लिया और दूसरे घाट पर स्नान के लिए चले गए। लौटते समय उजाला हो गया था और वे उसी रास्ते ले आश्रम लौट रहे थे जहां उन्हें सांप दिखा था। चूंकि दिन हो गया था तो रास्ते में उन्होंने देखा कि जहां सांप बैठा था, वहां से कुछ ही दूरी पर एक बड़ा गड्ढा हो गया है।

संत समझ गए की अगर सुबह यहां सांप न होता तो वे उसी रास्ते पर आगे बढ़ते तो वो अंधेरे में इस गड्ढे में गिर सकते थे। संत ने परमात्मा को धन्यवाद दिया कि एक सांप द्वारा उनकी रक्षा हुई।

बीता दें कि इस छोटी सी कथा की सीख यह है कि किसी भी प्राणी पर की गई दया और परोपकार हमेशा आपके लिए अच्छा फल लेकर के आती है। माना जाता है कि स्वयं भगवान भी ऐसे लोगों की मदद करते हैं जो दूसरों पर दया करते हैं और अच्छे काम करते हैं।

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Monday, 14 January 2019

आध्यात्मिक जीवन

एक गाँव में एक बुद्धिमान व्यक्ति रहता था। उसके पास 19 ऊंट थे। एक दिन उसकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पश्चात वसीयत पढ़ी गयी। जिसमें लिखा था कि:

मेरे 19 ऊंटों में से आधे मेरे बेटे को, उसका एक चौथाई मेरी बेटी को, और उसका पांचवाँ हिस्सा मेरे नौकर को दे दिए जाएँ।

सब लोग चक्कर में पड़ गए कि ये बँटवारा कैसे हो ?

19 ऊंटों का आधा अर्थात एक ऊँट काटना पड़ेगा, फिर तो ऊँट ही मर जायेगा। चलो एक को काट दिया तो बचे 18 उनका एक चौथाई साढ़े चार- साढ़े चार फिर??

सब बड़ी उलझन में थे। फिर पड़ोस के गांव से एक बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया

वह बुद्धिमान व्यक्ति अपने ऊँट पर चढ़ कर आया, समस्या सुनी, थोडा दिमाग लगाया, फिर बोला इन 19 ऊंटों में मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो।

सबने पहले तो सोचा कि एक वो पागल था, जो ऐसी वसीयत कर के चला गया, और अब ये दूसरा पागल आ गया जो बोलता है कि उनमें मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो। फिर भी सब ने सोचा बात मान लेने में क्या हर्ज है।

19+1=20 हुए।

20 का आधा 10 बेटे को दे दिए।

20 का चौथाई 5 बेटी को दे दिए।

20 का पांचवाँ हिस्सा 4 नौकर को दे दिए।

10+5+4=19 बच गया एक ऊँट जो बुद्धिमान व्यक्ति का था वो उसे लेकर अपने गॉंव लौट गया।

सो हम सब के जीवन में 5 ज्ञानेंद्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 प्राण, और 4 अंतःकरण चतुष्टय( मन,बुद्धि, चित्त, अहंकार) कुल 19 ऊँट होते हैं। सारा जीवन मनुष्य इन्हीं के बँटवारे में उलझा रहता है और जब तक उसमें आत्मा रूपी ऊँट नहीं मिलाया जाता यानी के आध्यात्मिक जीवन (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) नहीं जिया जाता, तब तक सुख, शांति, संतोष व आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।

Friday, 11 January 2019

भगवान भाव के भूखे हैं धन के नही


वैदिक काल की बात है। कान्तिपुर में चोल नामक चक्रवर्ती नरेश राज्य करते थे। उनके राज्य में कोई रोगी और दुःखी नहीं था। राजा निरन्तर दान-पुण्य तथा यज्ञ किया करते थे। सर्वगुण होते हुए भी उनके मन अभिमान आ गया। वे समझने लगे कि मैं दान-पूजन करके भगवान को जितना प्रसन्न कर सकता हूँ, उतना दूसरा कोई नहीं कर सकता। वे इस गर्वानुभूति में भूल गये कि भगवान धन के नहीं भाव के भूखे होते हैं।
उनके नगर में विष्णुदास नामक एक गरीब ब्राह्मण का भी निवास था। उनका विश्वास था कि श्रद्वा-भक्ति से समर्पित फूल-पत्ते आदि को भी भगवान बड़े चाव से ग्रहण करते हैं।
समुद्र तट पर एक मन्दिर था जिसमें राजा चोल और ब्राह्मण विष्णुदास प्रतिदिन पूजा करने जाया करते थे। एक दिन राजा चोल भगवान की पूजा कर मन्दिर में बैठे थे। उसी समय भक्त विष्णुदास जल का लौटा तथा तुलसी पुष्पों से भरी छोटी-सी डलिया लिए वहां पहुंचे। विष्णुदास भक्तिभाव में थे और सीधे भगवान के पास जाकर पूर्जा अर्चना करने लगे। उन्होंने भगवान को भक्तिपूर्वक स्नान कराया। स्नान के जल से राजा के द्वारा चढ़ाये हुए सारे बहुमूल्य वस्त्राभूषण भीग गये। वह सब देखकर राजा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने अपना आपा खोते हुए बोला-‘ कंगले ब्राह्मण! तुझमें तो तनिक भी बुद्धि नहीं है। मैंने भगवान की कितना सुन्दर श्रृंगार किया था। तुमने सब बिगाड दिया? फूल-पत्तों से भी कोई पूजा-भक्ति होती है। भगवान को इस तरह प्रसन्न नहीं किया जाता।’
ब्राह्मण ने विनय पूर्वक कहा-‘राजन्! मेरी नज़र आपकी पूजा-सामग्री पर गयी ही नहीं। मेरी समझ में भगवान की पूजा स्वर्ण-पुष्प और आभूषणों से ही होती हो, ऐसी बात नहीं हैं। भगवान को प्रसन्न करने के लिए भाव की आवश्यता होती है, न कि धन-दौलत की। भगवान यदि धन से ही प्रसन्न होते तो हम गरीब लोग कैसे पूजा कर सकते। अतः आप धन का गर्व छोड़ दें। दूसरे लोग अपनी स्थिति के अनुसार पूजा करे, इसमें आपको भी प्रसन्न होना चाहिए।
राजा ने ब्राह्मण का पुनः तिरस्कार करते हुए कहा-‘तेरे फूल-पत्तों से भगवान प्रसन्न होते हैं या मेरी धन-सम्पत्ति के अर्पण से? अब देखूंगा कि हम दोनों में किस को पहले भगवान के दर्शन होते हैं। मैं भी भगवान को प्रसन्न करने का प्रयास करता हूँ, तू भी कर।’ ब्राह्मण ने राजा की बात मान ली।
राजा ने महल मे जाकर मुद्गल मुनि को बुलाया और उनके आचार्यत्व में एक बहुत बड़े विष्णुयज्ञ का आरम्भ कर दिया।
गरीब ब्राह्मण ने भी नियमों का पालन करते हुए भक्तिपूर्वक भगवान का पूजन करना आरम्भ कर दिया। इसी के साथ उन्होंने खाते-पीते, सोते-जागते प्रेमपूर्वक स्मरण करते हुए भगवान के दर्शन का अभ्यास किया। इसी तरह भक्ति भाव में काफी समय बीत गया।
विष्णुदास प्रातःकाल एक रोटी बनाकर रख देते और दिन में एक बार खा लेते। वे दिन-रात साधना में लगे रहते। रोज की भांति एक दिन रोटी बना कर रखी, जब खाने का समय हुआ तो पाया कि यह रोटी वहाँ थी ही नहीं। बेचारे ब्राह्मण भूखे तो थे, पर दुबारा रोटी बनाने में साधना का समय व्यय करना अनुचित समझ कर वे भूखे रह गये। दूसरे दिन रोटी बनाकर रखी और जब पूजा-अर्चना के बाद वापिस आये तो देखा कि रोटी नहीं है। इस प्रकार रोटियों के चोरी होते सात दिन बीत गये। ब्राह्मण का भूख से बुरा हाल था। आठवें दिन मन में विचार आया कि देखते हैं कि रोटी कौन चुराता है। वे रोटी बनाकर एक तरफ छिपकर खड़े हो गये।
एक चण्डाल दबे पांव आता है जो भूख से व्याकुल लग रहा था। शरीर मात्र हड्डियों का ढांचा था। उसमें दीनता छायी हुई। सर्वरूप में भगवान को देखने वाले विष्णुदास के मन में दया उमड़ पड़ी।
उन्होंने चण्डाल को आवाज लगायी। ‘ठहरो-ठहरो, रूखा अन्न कैसे खाओगे? मैं घी देता हूँ, इसके साथ रोटी लगाकर खाओ।’
चण्डाल आकस्मक ब्राह्मण को देखकर डर गया। वह रोटी लेकर वहां से भागा। विष्णुदास घी का पात्र लिए उसके पीछ-पीछे दौड़े। कुछ दूर जाने पर अत्यन्त कमजोर चण्डाल मूर्छित हो कर गिर पड़ा। ब्राह्मण विष्णुदास निकट आये और उस पर कपड़े से हवा करने लगे।
वह चण्डाल कोई नहीं स्वंय साक्षात भगवान विष्णु थे, वे साक्षात् प्रकट हो गये। विष्णुदास आनन्द में बेसुध होकर उस मनोहर छवि को एकटक होकर देखते रहे। भगवान विष्णु ने भक्त को प्रेम में आलिंगन कर अपने साथ विमान में बैठाया।
विमान आकाशपथ से चोल राजा के यज्ञस्थल के ऊपर से  निकला। चोलराजा ने देखा कि दरिद्र ब्राह्मण केवल भावपूर्ण भक्ति के प्रताप से उनके यज्ञ की पूर्णाहुति के पहले ही भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन करके उनके साथ वैकुण्ठ जा रहा है। चोलराजा का धन-दान का सारा अभिमान चूर-चूर हो गया।

Wednesday, 9 January 2019

मन कभी खाली नही बैठ सकता

      मन कभी भी ख़ाली नहीं बैठ सकता, कुछ ना कुछ करना इसका स्वभाव है, इसे काम चाहिए। अच्छा काम करने को ना मिला तो ये बुरे की तरफ भागेगा। मन खाली हुआ, बस उपद्रव प्रारम्भ कर देगा। लड़ाई -झगड़ा, निंदा-आलोचना, विषय- विलास ऐसी कई गलत जगह पर यह आपको ले जायेगा जहाँ पतन निश्चित है।
     
        पतन एक जन्म का हो तो भी कोई बात नहीं, ऐसे कई अपराध और गलत कर्म करा देता है जिसके प्रारब्ध फल को भुगतने के लिए कई कई जन्म कम पड़ जाते हैं।

       मन को सृजनात्मक और रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखिये। इससे आपका आत्मिक, साथ में भौतिक विकास भी होगा। मन सही दिशा में लग गया तो जीवन मस्त (आनंदमय) हो जायेगा। नहीं तो अस्त-व्यस्त और अपसेट होने में भी देर ना लगेगी।